बुधवार, 30 दिसंबर 2009

नये साल के मतलब



नये साल के मतलब सबके लिये अलग-अलग हैं। वैसे ही जैसे हर त्यौहार का मतलब उसके मनाने वाले पर निर्भर करता है। एक हिन्दू के लिए ईद या क्रिसमस का क्या मतलब है? एक मुसलमान के लिए दीवाली का क्या मतलब है?
यदि आप हिन्दू हैं और किसी पोंगापंडित ज्योतिषी के घर पैदा हुए हैं तो आपका नया साल तो हिन्दू कैलेण्डर के हिसाब से शुरू होना है यानि इस 1 जनवरी वाले दिन का आपके लिए क्या मतलब?
रामू एक छोटा सा बच्चा है 5 साल का, खेलकूद उसे पसंद है। उसके घर में रहने वाले चाचा की नई-नई नौकरी लगी है और अखबार मैगजीन्स पढ़कर, दोस्तों से सुनकर, और टीवी चैनल्स इंटरनेट पर देखकर.. उसके चाचा पर नये साल का बुखार भी चढ़ा है। पर रामू को 30 तारीख को बुखार था वह ढंग से खेल नहीं पाया 31 को वो ठीक हो गया और दोस्तों के साथ गलियों में खेला, दरअसल 1 तारीख के लिए उसमें अभी कोई उत्तेजना नहीं है क्यों? समयबोध न होने के कारण। वह 1 तारीख को एक सामान्य दिन की तरह जिएगा हो सकता है वो पढ़े, खेले, सोये। न पिछले सालों को याद करेगा न पिछले महीने को न पिछले हफ्ते को... यहां तक कि वो पिछले दिन को भी याद नहीं करेगा।
ऐसा तथाकथित पढ़े लिखे सभ्य शहरी लोग के साथ नहीं होगा, दरअसल ये लोग भी पिछली जिन्दगी की तरह ही 1 तारीख को भी कुछ खास नहीं करने वाले, ये भी एक आम दिन की तरह ही जिएंगे पर नये साल के बारे में उन्हें बहुत गलतफहमियां हैं। मुझे मालूम है आप नये साल को क्या करने वाले हैं:
1 आप पिछले सालों को पलट कर देखेंगे और रूंआसे होंगे या खुश होंगे, जबकि ऐसा करने से या ना करने से आप जो हैं उसमें अंतर नहीं पड़ने वाला।
2. आप यह कहेंगे कि मैं 1 तारीख को सामान्य दिन की तरह ही मनाएंगे और कोई महत्व नहीं देंगे, इससे भी कुछ नहीं होगा क्योंकि ये वैसे ही एक सामान्य दिन है, आपके सामान्य तरह जीने से ये सामान्य नहीं हो रहा।
3. आप नये साल की रात यारों दोस्तों संग दारू डांस पार्टी में मनायेंगे ये सब भूल भाल कर कि पिछले साल भी आपने ऐसी पार्टी में दारू पीकर एक लड़की को छेड़ा था और आपके भयंकर जूते पड़े थे। उसके बाद घर जाकर उल्टियाँ की थीं और उनमें खून भी देखा था। इसके बाद कयामत तो तब हुई थी जब पता चला कि वो असल में लड़की थी ही नहीं।
4. नये साल पर कुछ नये संकल्प करेंगे, जबकि पिछले साल जो संकल्प लिखकर किये थे वो चौथे दिन ही टूट गये थे... तो ऐसा करने से फायदा। पिछले सालों में ऐसा कई बार हुआ है।
5. आप कुछ भला करेंगे, राम नाम का कीर्तन करवायेंगे या उसमें शामिल होंगे या अनाथाश्रम में बूढ़ों या बच्चों के बीच दिन बितायेंगे और फिर महीनों तक अपने इस कृत्य का चाहे अनचाहे, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चहुं ओर बखान करेंगे, यूं आपका अहं आपको बिना खबर किये छल जायेगा।
5. आप कहेंगे कि आखिर करें क्या? कुछ करने की जरूरत क्या है? आप इसे 3 फरवरी जैसे एक अनाम दिन की तरह मनाएं जिससे कोई भी पुण्यतिथि, जन्मतिथि, वर्षगांठ या कोई स्मृति जुड़ी नहीं होती एक ऐसे दिन की तरह जब सब कुछ नियमित अनियमित सा....आम सा हो खास होने की इच्छा किये बिना.... या अचानक ही खास हो गया हो।
नये साल में यांत्रिक शुभकामनाओं के साथ, निजी वैयक्तिक रूप से जिन्दा लोगों से मिलने के लिए समय निकालना और बिना कारण मिलना ज्यादा बेहतर हो सकता है। नये अंग्रेजी साल की हार्दिक शुभकामनाएं।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

गुनगुनाने की कोशिश




सुबह ने सारे सपने खोये, रात ने साये उजालों के
आंसू का खारापन चुभता, यादों के उभरे छालों पे

आंखों पर धुंधलापन उतरा, धूल जमीं है जालों पे
लोग क्यों बेजा अटके से हैं, धूप चांदनी की मिसालों पे


पत्तों से छनकर उतरी जो, आंच नहीं वो सीलन है
यह जम कर जहरीली होगी, वक्त की कई सम्हालों पे

गुनगुनाने की कोशिश में, सांसों से कई कराहें उठीं
अक्सर कई निगाहें उठीं, शुष्क लबों के तालों पे


कई कुपोषण फैले थे, मेरे सीने में तपेदिक से
ऐतराज था उनको, गिनकर, मेरे खुश्क निवालों पे

मौत की खूंटी पर टंगी, चिथड़े-सी जिन्दगी लटकी थी
लहराती थी अंगड़ाई लेकर, मेरे जवाबों-सवालों पे

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

रोज की तरह



रोज की तरह
हम सुबह उठकर
घर से
बाहर मोहल्ले की ओर देखते हैं
कि आज के सूरज के नयेपन जैसा
कुछ हम में भी उगेगा।

पर हर ढलती शाम को
काम धंधे से लौटते हुए
हमने यही पाया है
कि सवेरा तो सवेरा
हमारी यह शाम भी
कल की शाम की तरह ही
हजारों साल बासी है।

यही बासापन
रोज
सुबह से शाम तक
हमें परेशान करता है।

इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।

हम दि‍ल से नहीं चाहते
कि‍ ये पीलेपन और फफूंद लि‍ये शब्‍द
कि‍सी को दि‍खायें।

पर मेरे ख्‍याल से
अब बचा ही क्‍या है, इनके सि‍वा।

बि‍ना कि‍सी बाहरी र्नि‍भरता के हम अपने आपको कैसे जाने समझें ?

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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

गर्मी बुझने ना पाये



दिल की जमीं पर बादल छाये,
उम्मीद का सूरज ठण्डा है,
सपनों पर कोहरा छाया है,
तदबीरों पर बर्फ गिरी है।

जमे-ठिठुरते इस मौसम में,
कंपकंपाती छांव से धूप खो गई है।

ओस के गहरे गीलेपन से,
शाम की सड़कें काली हुई हैं।

रात चली तो चाँद की खिड़की,
बिन आवाज ही बन्द हुई है।
चाँदनी पिघल रही बन शबनम।

शहर के सारे दीवानों को,
बेघर, आवारा इन्सानों को
जिस्म संभाल के रखने होंगे।

मौत के नक्श फिर चुभने लगे हैं,
बाजारों में बैठे कचरे के,
अब तो अलाव जलाने होंगे,

ढूंढ-ढूंढ कर लानी होंगी
भले बुरे के भेद से हटकर,
सूखी, जलने के माफिक चीजें
कि,
सीनों में गर्मी बुझने ना पाये।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

बुरा क्‍यों देखन मैं चला



लाईने तो पुरानी भी ठीक थीं और इतनी ठीक थीं कि इन पर लोगों ने भरपूर किताबें लिखीं। कभी-कभी जिन चीजों का अर्थ जल्दी समझ में आ जाता है वो काम की नहीं रह जातीं। आदमी का भी यही हाल है जो आदमी समझ में आ जाये वो काम का नहीं - सीधा, झल्ला, पगला, गेला...अन्यान्य सम्बोधनों से टाल दिया जाता है। कौए-लोमड़ी सा तिकड़मी, घाघ, चालू, चलता पुर्जा, स्मार्ट, ऐसे शब्दों को अर्थ देने वाले व्यक्तित्व ही आदमी कहलाते हैं।
तो लाइने ये थीं -

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।
जो दिल देखा आपना मुझसे बुरा न कोय।।

इन पंक्तियों का सीधा अर्थ जो भी हो, निकाला ये जाने लगा कि मैं बुरा देखने निकला तो मुझे कोई भी बुरा न मिला लेकिन अंदर झांका तो मुझमें ही सारी बुराईयां थीं।
ईसाइयों के चर्च़ में लोग कन्फेशन यानि स्वीकारीकरण करते हैं, यानि व्यवस्था ये कि यदि पाप किया है तो इस बात को स्वीकार कर लो। तद्-भांति एक व्यवस्था जैनों में भी है वो साल में एक बार क्षमा-दिवस मनाते हैं। मैंने एक विज्ञापन एजेंसी में अपनी सेवाएं दी, दुकान मालिक जैन थे वो क्षमा दिवस के दिन एक बड़ा- सा विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित करवाते थे, जिसमें ये लिखा होता था कि चाहे-अनचाहे हुई गलतियों/पापों के लिए वे क्षमा माँगते हैं। यह विज्ञापन साल दर साल हर साल छपता था। यानि ये निश्चित था कि जब जब उन्होंने विज्ञापन छपवाया, पक्के तौर पर पाप किया होगा। ये विज्ञापन अखबारों वाले इसलिए छापते थे क्योंकि वो जानते थे कि विज्ञापन एजेंसी के मालिक का ‘क्षमा माँगने का विज्ञापन’ न छापना कितना अक्षम्य हो सकता है, अन्य कमाऊ विज्ञापन नहीं मिलेंगे।
मुझे ये कन्फेशन और क्षमा माँगना एक पाप के भार से मुक्त होने और अन्य के लिए प्रशस्त होने का चरण बन जाता दिखा। पाप किया इससे निपटने की विधि स्वरूप क्षमा मांगी। इससे हुआ ये कि आपने पाप की कोंपले छांट दी। पूरा दरख्त और शाखाएं हरियाए हुए मजे से झूमते रहे।
कुछ लोग अपने बारे में ही कि वे इतने बुरे कि उन्होंने ये किया ....ये किया और वो किया ......जो नहीं किया वो भी गिना देंगे। लेकिन इस स्वीकारीकरण का फल ये नहीं निकलता कि वे उन दोषों से दूर हो जाते हैं जिनको वे स्वीकार कर रहे हैं। इस स्वीकारीकरण से वे उन्हीं दोषों से दूर होने ...उन दोषो से निवृत्त होने को एक प्रक्रिया बनाते हुए, टालते हुए लगते हैं।
मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद प्रत्येक भाषा में दिये शब्दों के नये अर्थ किये जाना, पालन करने वाले परमात्मा का परमगुण है। इस दोहे का अर्थ है कि बुराई देखने की वृत्ति एक भारी बुराई है न कि.. ये कि मैं सबसे बुरा हूं, मुझसे पंगा लेकर तो देखो... मुझसे बुरा कोई नहीं (धमकाने वाले अंदाज में)। एक सफल बलात्कारी के ये कहने का क्या अर्थ कि जिस लड़की से उससे कुकर्म किया, उससे शादी कर लेगा।
कुछ अन्य सकारात्मकता से देखने के हितैषी लोग कहते हैं ‘पॉजीटिव थिंकर बनो‘।



जे कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ‘क्या’ और ‘क्यों’ को भलीभांति देख लेने पर, ‘कैसे’ की समस्या नहीं रहती। आप ने यह देखा कि ‘आपका बुरा देखना, एक बुराई है’ तो उसके बाद देखना चाहिए कि ऐसा क्यों है, मुझसे बुरा क्यों हो रहा है, मैं क्यों बुरा देख रहा हूं, बुराई क्यों है... इस तरह देखने पर सारा परिदृश्य साफ हो जाता है, साफ करना नहीं पड़ता। आपने देखा कि बुरा क्या है, क्यों है... एक समझ आती है और बुरा करने की वृत्ति और मूल कारण तुरंत विदा हो जाते हैं।

अगर आप पाप करने और उसके बाद पश्चाताप करने की कहानी में यकीन करते हैं तो आप निश्चित ही उलझन में हैं। क्योंकि असली पश्चाताप यह है कि वो अब वो पाप अपने आप ही... आपसे न हो। अगर आप इतनी सरलता से नहीं देख रहें हैं तो अवश्य ही आपका मन कोई न कोई कलाबाजी कर आपको ही उल्लू बना रहा है, आप अपने से ही छल कर रहे हैं।
''पुर्नप्रेषि‍त''

जो व्‍यक्‍ि‍त प्रेम में हो वो उसमें शत्रुभाव नहीं होता

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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

कोई आया ही नहीं मेरे पास, आहटों के सिवा



मैने किस-किस के लिए, क्या-कया तोहफे रखे थे
कोई आया ही नहीं मेरे पास, आहटों के सिवा।

गया जमाना कि इन्सान को भी पढ़ा जाता था
अब तो बस लोग, सब पढ़ते हैं, लिखावटों के सिवा।

याद कुछ रहता नहीं, अपनी ही खबर किसको?
पुराने लोग थे कुछ और, बनावटों के सिवा।

मैं उससे बात तो करूंगा, पर क्या वो समझेगा?
मेरा खजाना है कुछ और, दिखावटों के सिवा।

पुल, नाव, तिनकों, दुआओं को सहारा बनाया
उसने ही पाया कुछ अलग, रूकावटों के सिवा।

बहुत थीं खूबियाँ, तो भी क्‍यों नाकाम रहा?
सब कुछ आता था उसे, सजावटों के सिवा।

हैरान थे अपनी किस्मत से



खुशी का आंसू, गम का आंसू, कैसे मैं पहचान करूं?
दोनों ही बहुत चमकते हैं, दोनों ही तो खारे हैं

बेबस मैं उम्रों-उम्रों तक, उस दिलबर का अरमान करूं
ख्वाबों में रहें या हकीकत में, मेरे जीने के सहारे हैं

मिले इक बार ही जीवन में, है उनका बहुत अहसान यही
उनकी यादों के भंवर में डूबे, हम तो लगे किनारे हैं

हमने था जिसे खुदा जाना, उसने ही समझा बेगाना
हैरान थे अपनी किस्मत से, कि हम कितने बेचारे हैं

नफरत करें या करें उल्फत, दोनों का अंजाम यही
उनके लिए हम ‘अजनबी’ हैं, वो सदा ही हमको प्यारे हैं

( पुर्नप्रेषि‍त)

रविवार, 13 दिसंबर 2009

जिन्दगी बहुत खास थी हर घड़ी



राह की दुश्वारियों से बचकर, लोग रोज मंजिले बदलते रहे।
जिन्दगी बहुत खास थी हर घड़ी, लोग आम होकर जीते रहे मरते रहे।

पर्वतों के शिखर पर कितने सूरज, रोज उगते रहे और ढलते रहे।
यहाँ शहर की स्याह सड़कों पर, लोग छिलकों पे ही फिसलते रहे।

क्या बुरा कर दिया इंसान ही था, उधार की सांसों का मेहमान ही था,
लोग बेवजह नजरों से गिराते रहे, खुद ही फिर उम्र भर संभलते रहे।

उम्मीदें सांसों संग ही जीती रहीं, दिल में अरमान भी मचलते रहे,
मेरी नजरें तो धुंधली हो चली थीं, ख्वाब आंखों में फिर भी पलते रहे।

अजब नशा था मौत का होना, इस घड़ी पाना, उस घड़ी खोना,
फिर क्यों लोग निशानियां बचाते रहे? हो कर मायूस हाथ मलते रहे।

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

क्‍या आपने कामधंधे, कैरि‍यर और जीवन को इस नजरि‍ये से देखा है ???



दो सौ साल पहले व्यापारी अपने संस्थानों यानि कंपनियों की औसत उम्र पीढ़ियों में गिना करते थे। आज एक संस्थान की औसत उम्र 30 वर्ष मानी जाती है, और भविष्य के अनुमान कहते हैं कि अगले 20 सालों में यह उम्र घटकर 5 वर्ष रह जायेगी। यह आंकड़े हम में से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर गहरा असर डालते हैं क्योंकि एक आम आदमी की नौकरी धंधे की उम्र औसतन 50 साल होती है।

आधुनिक व्यावसायिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति पर यह दबाव है कि वो इस हकीकत के प्रभाव जाने कि हम अपने ही व्यापार यानि अपने आपको ही बेचने खरीदने में लगे हुए हैं। हालांकि अपने को ही खरीदने बेचने के व्यवसाय में सीधे-सीधे न लगे होकर.... हम अपना समय बेचते हैं, इस समय की कीमत हमारी उत्पादकता - यानि हमारी कुशलता या ज्ञान की गुणवत्ता द्वारा निर्धारित होती है। हम अपने ज्ञान को कितने प्रभावकारी ढंग से क्रियान्वित कर पा रहे हैं यही तथ्य हमारी काम धंधे की आयु में हमारे बाजार मूल्य को ऊंचाईयों की ओर ले जा सकता है।

आपके ज्ञान के उत्पाद की गुणवत्ता अकेले आप के निष्पादन में पर्याप्त नहीं क्योंकि आप के संभावित ग्राहकों में वे कम्पनियां हैं जो अपनी प्रकृति से ही लोगों की टीमों द्वारा बनी हैं। ऐसे लोगों की टीमों से जिनके पास विविध प्रकार का ज्ञान और कौशल होता है। इसलिए आपके उत्पादता के मूल्य की असली माप सीधे सीधे इस बात से जुड़ी है कि आप उस समय कितनी सक्षमता, प्रभावपूर्ण तरीके से योगदान कर सीधे परिणाम दे रहे हैं या एक अर्थवान सहभागिता उस टीम में करते हैं जिसके अंतर्गत आप संचालित किये जा रहे हैं।
अक्सर उस उम्र से जब हम अपने आप से यह कहना शुरू करते हैं कि ”अब कुछ करना चाहिये " हम उस परिवेश में चले जाते है, जहाँ हम अपना आकलन करना शुरू कर देते हैं कि अब ”हम यह करने के लायक हो गये हैं“ और इसके बाद हमें यह भी दिखना शुरू हो जाता है कि हमारी प्रगति के लिए वह क्या प्रभावी योगदान हैं जो हम इन टीमों में कर सकते हैं। इन वास्तविकताओं का मतलब यह भी है कि एक वैयक्तिक व्यवसायिक योजना के तहत हम अपनी जिम्मेवारी, अपनी ही जागरूकतापूर्वक देखभाल, समय के साथ समायोजन और समय-समय पर अपना मूल्यांकन कर इनमें बदलाव की भूमिका निभायें। कोई भी कंपनी आपके कैरियर की योजना नहीं बनाती, आपको अपने लिए जो जरूरी है वो खुद ही योजनाबद्ध कर क्रियान्वित करना होगा।

यही वह जगह है जहां असली चुनौती है, क्योंकि हमें अपना जीवन योजनाबद्ध करने, अपनी व्यावसायिक योजना बनाते समय यह साफ होना चाहिए कि हम कौन है - हमें अपने बारे में समझपूर्ण होना होगा। हम सब चाहते हैं कि हम खुश रहें, स्वस्थ रहें, हम प्यार करें, लेकिन हमारा मन बहुत ही अशांत रहता हैं और इन सब के बीच हमारा शरीर इतना क्लांत रहता है कि हम अपने अस्तित्व के उस भाग पर ध्यान देने में सफल ही नहीं हो पाते जो कि हमारे जीवन की सारी बातों की नींव है और हमें हमारे उद्देश्यों के निर्धारण और जीवन को दिशा देने में सहायक होता है, वह है - हमारी आत्मा।

अपने आपको जानने समझना का पहला चरण है कि ”हम कौन है?“ इसके तीन आयामों को समझें। यह हैं - पहला आपका शरीर, दूसरा मन, तीसरा आत्मा।
- आपका शरीर अणुओं का संग्रह है जो आपको संसार का अनुभव कराने में सक्षम है। आपके शरीर में वो संवेदनशील अंग शामिल हैं जो आपको वातावरण से सम्बन्धित करते हैं (सुनना, महसूस करना, देखना, चखना और सूंघना आदि) और संचालन तंत्र (आपका बोलना, हाथ और पैर इत्यादि) आपको कार्य करने में सक्षम बनाता हैं। हर दिन आपके संवेदन अनुभव आपके तंत्रिका तंत्र में कई प्रकार के रासायनिक एवं वैद्युतीय परिवर्तन करते हैं जो आपके शरीर के हर अणु और प्रत्येक अवयव के गुण और संरचना को बदलते हैं। इस प्रकार आपके अनुभव आपको जैविक रूप से प्रभावित करते हैं।
- आपका मन विचारों का क्षेत्र है जो सदा इस वार्तालाप में संलग्न रहता है कि क्या हुआ, क्या हो रहा है और आपके साथ आगे क्या होगा? आपके सतत प्रत्येक अनुभव से ही भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से रंगे आपके मत, विचार, मान्यताएं, मूल्यांकन और निर्णय आकार लेते हैं। आपके विचार, स्मृतियां, इच्छायें और अहसास मन की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
- आपकी आत्मा, आपके शरीर और मन की तटस्थ प्रत्यक्षदृष्टा है। आप यह देखें कि 10 वर्ष पूर्व आपका रूप रंग आकार कैसा था और अब कितना बदल चुका है। इस प्रकार आपका शरीर बदलता रहता है। अपने और संसारे के बारे में आपके विश्वास भी पहले के समय से ही नहीं रहते। पर इन सबको आपकी आत्मा सतत देखती रहती है, आपकी पहचान को निरंतरता देते हुए, एक धुरी देते हुए ताकि आप संतुलित रह सकें।
जब आप आत्मा का अवलोकन करते हैं, विचारों से मन बनता है और भौतिक शरीर तद्नुरूप समायोजित होता है, आप अपने इरादों को पसंद में जाहिर करते हैं जिनसे परिणामस्वरूप आपकी इच्छाएं बनती हैं। यह आपकी आत्मा का ही निर्णय होता है जो परिवर्तन के द्वार में आपको इस प्रकार प्रशस्त करता है, आप इससे गुजरते हुए समय में दुबारा वापस लौटने का इरादा नहीं रखते। यही संकल्प या प्रतिबद्धता कहलाता है, जिसमें अपनी जिम्मेदारी हम खुद लेते हैं।

अपने जिन्दगी और कैरियर की जिम्मेदारी लेते समय भी आपको इसी प्रकार की प्रतिबद्धता और संकल्प की आवश्यकता होती है। प्रतिबद्धता में आपका कर्म क्रियान्वित होता है जिसे एक निरंतरता में करना होता है। इन्हीं नियमित कर्मों से आपकी अच्छी और बुरी आदतें बनती हैं जिनके द्वारा आप आपने जीवन को एक (ऑटोमेटिक मोड) ‘‘अपने आप चलने वाले निकाय’’ में डाल देते हैं।
यहाँ आपको तीन मार्गदर्शक सिद्धांत अपनाने होंगे:
1. आप जो सोचते हैं, वही हो जाते हैं।
अपनी आत्मा की गहराई में आपको संदेह रहता है कि आपने अभी भी अपनी पूर्ण सामथ्र्य को नहीं पहचाना है। आप अभी भी और अधिक के योग्य हैं। आपको अपने प्रति ईमानदार रहते हुए अपने मन को इस संदेह के विश्लेषण में लगाना होगा क्योंकि यह चेतन मन ही जो आपको प्रशस्त करता है और सामथ्र्यवान बनाता है कि आप अब एक बेहतर अध्याय रच सकें, उस सब से अप्रभावित रहते हुए जो कि आज की तारीख तक हुआ। अब आपकी प्राथमिक आवश्यकता यह होती है कि आप की जाने वाली चीजों को एक अलग नजरिये से देखें ताकि आप नये नतीजों को पहचान कर उन्हें प्राप्त कर सकें।
2. अपने अतीत से मुक्त हो जायें!
हम सभी के पास मुश्किलें और समस्याएं होती हैं। हम समस्याओं से निपटने की कोशिश में, उनकी जड़ तक जाने के लिए सालों का समय और अमूल्य ऊर्जा लगाते हैं। इस प्रकार समस्या को हल करने के लिए भी, समस्या को प्रमुखता देना अत्यंत सफल रणनीति नहीं है। यह स्पष्ट रूप से समझना संभव है कि हम क्यों नाखुश हैं, लेकिन इसके बाद भी हम खुश क्यों नहीं होते? यह संभव है कि आप जान जायें कि आपने अतीत में गलत चुनाव और निर्णय किये, लेकिन ये ज्ञान आपको वर्तमान को बेहतर बनाने में सक्षम नहीं बनाता। सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि हम अतीत को देखें, जाने दें और बदलने के लिए प्रतिबद्ध हों। हमें अपनी जिन्दगी बदलने के लिए, खुद को बदलना होगा।
3. असीखा होना या बने बनाये सांचों और ढाँचों से निकलना।
आपको यांत्रिक जीवन से बाहर निकलना होगा। हम में से बहुत से लोग अपनी जिन्दगी उस सीखे-सिखाये जानवर जैसे जीते हैं जिसे यह पता होता है कि किन परिस्थितियों, हालातों या लोगों से मिलने पर, किस तरह की प्रतिक्रिया देनी है। क्योंकि उन्हीं चीजों और बातों को दोहराने में सुरक्षितता होती है, लोग उन रिश्तों में भी बने रहते हैं जो उनके लिए भले नहीं होते, उन कामधंधों में भी लगे रहते हैं जिनमें उनकी आत्माभिव्यक्ति की कम ही गुंजाइश होती है और उस दिनचर्या को भी निरन्तर बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जिनसे वो अपने आस-पास ही हमेशा मंडरा रहे अवसरों के प्रति सुन्न और असंवेदनशील हैं। आप यह सुनना पसंद करें या ना करें पर यह सच है कि आप आदतों के गुलाम हो गये हैं या रोबोट से हो गये हैं। आप वो खेत हैं जिनको बागड़ ही निगल गयी है। यदि आप को जीवन में वो चाहिए जो आपको नहीं मिल रहा है तो आपको इन आदतों को पहचानना, इनसे मुक्त होना और इनको पार करना होगा। क्योंकि आप आदतों को बनाने वाले हैं, ना कि आदतों के द्वारा बने हैं। आपको जानना ही होगा कि आप वास्तव में क्या हैं?
यह आपका कर्म है जो जिन्दगी में वहां ले जाता है जहां आप जाना चाहते हैं न कि आपकी या किसी अन्य की पुष्टि। सफल लोग कभी भी अपने आपको निरन्तर यह नहीं कहते रहते कि ‘‘मैं एक शक्तिशाली व्यक्ति  हूँ’’ बल्कि वो यह अपने कर्मों से सिद्ध करते रहते हैं कि वो उससे अधिक के योग्य हैं, जो वो अभी हैं।
चुनौती अभी और यहीं है। आपके पास चुनने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है सिवा इसके कि आप अपने जिन्दगी और कैरियर की बागडोर अपने हाथ में ले लें क्योंकि अन्य कोई व्यक्ति आपके लिए ऐसा नहीं करने वाला है। अन्य लोग भी आपकी ही भांति भ्रमित हैं। यह निर्धारित करें कि कौन सा ज्ञान है जो आपको प्राप्त करना है, यह जाने कि कैसे और कहाँ से ये ज्ञान मिलेगा, वहां जायें और इसे प्राप्त करें और प्रयोग में लायें। अपने आपको अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में सर्वोत्तम उत्पाद बनायें।
इन बातों के लिए प्रतिबद्ध हों:
1. आपको कौन सा, किस चीज का ज्ञान चाहिए
2. इस नये ज्ञान को पाने के मार्ग निर्धारित करें।
3. इस नये ज्ञान को व्यावहारिकता में उतारते समय अपने प्रति ईमानदार रहें। याद रखें आपके अन्दर से आये गलत फैसले, आपको असफल बनाने में बाहरी तथ्यों से 6 गुना ज्यादा बड़ा कारण बनते हैं।
व्यवसाय में सफलता, जीवन में सफलता प्राप्त करने की तरह ही है और दोनों में बुनियादी बातें समान हैं कि अपने कब, कहाँ, क्या किया? क्या यह विचारणीय नहीं है?

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

"बेटि‍यों पर" एक मर्मस्पर्शी पंजाबी गीत हिन्दी में



हिन्दी में:

लोगो ये कहर मत बरपाओ,
बेटियाँ कोख में ही मत मिटाओ

ये सदा ही माँ बाप के घर की खैर माँगती हैं,
बेटे तो जायदाद-जमीनें, बेटियाँ दुखों को बँटाती हैं

मशीनों से टुकड़े-टुकड़े कर के फेंक देना
कली को खिलने से पहले ही मसल देना
ये कैसा दस्तूर है ऐ लोगो
कुछ तो समझो कुछ तो सोचो
कभी बेचारी गौएं कभी चिड़िया कहाती हैं
बेटे तो जायदाद-जमीनें, बेटियाँ दुखों को बँटाती हैं

बिन बिटियों के खानदान कैसे आगे बढ़ाओगे
कौन जनेगा बेटे, रिश्ते कैसे जुटाओगे
इनका तो गुरूओं-पीरों ने गुणगान गाया है
इन्होंने दुनियाँ में हमारा मान बढ़ाया है
तो भी अभी तक ये पैर की जूती कहाती हैं
बेटे तो जायदाद-जमीनें, बेटियाँ दुखों को बँटाती हैं




पंजाबी गीत सुनने के नीचे पंजाबी शब्‍द पर क्‍ि‍लक करें। 
"मूल पंजाबी गीत" 


पंजाबी बोल:

लोको ना ए कहर गुजारो.......
धीयां कुख दे विच ना मारो.........

सदा सदा मां प्यां दे घर दी खैर मनाओं’दि’आं ने
पुत वंडोन जमीनां, धीयां दुख वंडो’दि’यां ने

नाल मशीनां टुक्कड़े टुक्कड़े कर के सुट देना
किसी कली नूं खिड़ने तो, पहलां ही पुट देना
ऐ कैसा दस्तूर वे लोको, कुछ ते समझे कुछ तो सोचो
कदें विचारियां गौआं, कदी चिड़ियाँ अखवोंदियां ने

बिन धीयां दे खान दान किवें अग्यां तोरां गे
कौन जम्मेगा पुत ते किथे रिश्ते जोड़ांगे
इह नूं गुरू पीरां वडयाया, दुनियां दे विच मान वदाया
तावीं पैर दी जुत्ती जै ही क्यों रखवोंदिया हैं

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

पलकों पे अश्कों के चिराग सजा




पलकों पे अश्कों के चिराग सजा, अंधेरे कमरों में बैठते हैं
कभी देखा नहीं तेरा चेहरा, कोई रोशनी भली नहीं लगती


उम्र के पाखी उड़ते हैं, हम बेबस बैठे देखते हैं
उम्मीद का लटका है सेहरा, क्यों दुल्हन छली-छली लगती


कुछ भी तो समझ नहीं आता, क्यों लोग बेवजह ऐंठते हैं
मेरा रूप तो वैसा ही इकहरा, क्यों जवानी टली नहीं लगती


क्या ऐसी सजा भी मिलती है, कि सब जख्मों को सेकते हैं
जब तक समझें हम ककहरा, ये जिन्दगी चली-चली लगती


अब तक जो देखे भरम ही थे, ऐसे क्यों सच मुंह फेरते हैं?
रस्सी पे बल ठहरा-ठहरा, क्यों अकड़न जली नहीं लगती।

सारे मंजर गुजर गये, मौसम भी कौन ठहरते हैं
बाकी रहा मीलों सहरां, कोई तेरी गली नहीं लगती 


* ककहरा - ए बी सी डी

इस नवगजल का ऑडि‍यो लि‍न्‍क इस पंक्‍ि‍त को क्‍ि‍लक करें


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

क्‍या आपको ऐसा नहीं लगता ?




अक्‍सर एक सपना सा चलता है
कि‍ चारों ओर श्‍मशान सा माहौल है

अजीब सा लगता है
मुर्दों के बीच रहना
चलना फि‍रना
उनसे बातें करना
उनकी निंदा उनकी प्रशंसा करना

फि‍र कभी कभी शक होता है
कि‍ कहीं हम भी मुर्दे ...

और नींद टूट जाती है।


और जागने के बाद भी लगता है
कि‍ ये ही हकीकत है ? या,
वो ही हकीकत थी ?

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

कहाँ नहीं मिलती मोहब्बत ?




मिलेगा जो चाहेगा खुदा, सब्र रख
दुआएं अमल में ला, सब्र रख


किसे मिला है ज्यादा उसके रसूख से?
खुदा पे यकीन ला, सब्र रख


सिकन्दर भी गए हैं, पैगम्बर भी गए हैं
वक्त की शै से धोखा न खा, सब्र रख


छोटी-छोटी बातों के क्या शिकवे गिले
खुदा बन, जो चाहता है खुदा, सब्र रख


नाकामियों उदासियों के सागर कितने गहरे?
तरकीब-ए-सुराख आजमा, सब्र रख


कहाँ नहीं मिलती मोहब्बत “अजनबी”
कुर्बानियाँ बढ़ा, दीवानगी बढ़ा, सब्र रख

सोमवार, 30 नवंबर 2009

हम अष्टावक्र हैं



हम सच को
विभाजनों की खिड़कियों में बैठे हुए,
आंखों पर रंग बिरंगे चश्मे (पूर्वाग्रहों) चढ़ाए
अतीत के अहसासों,
मधुर जहरीली संवेदनाओं की
असंख्य परतों के पीछे से देखते हैं
और फिर शिकायत करते हैं कि
सब धुंधला और विकृत है

हम सच को
प्रतिष्ठित विचारधाराओं
ठोस सिद्धांतों
अतीत, भविष्य की कल्पनाओं में
उच्च मानवीय मूल्यों में
पढ़ते पढ़ाते आए हैं
पर रोज पैदा हो जाती हैं
असंख्य नई समस्याएँ
और हमारे पास
कई करोड़ पुरानियों का ही हल नहीं है।

हम क्यों नहीं समझते
रोज हर क्षण
उगता रहता है अनवरत नया सच।

क्यों हम
केवल आंख ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
आंख के देखे में....

क्यों हम कान ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
कान के सुने में ....

क्यों हम गंध ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
नाक के सूंघे में

क्यों आदत पड़ गई है हमें
पानी जैसी
जिसमें विकृत नजर आता है
सब डूबा हुआ

क्यों चाहते हैं हम रोज़
सब तरफ से सुरक्षित रहें
जिएं बहुत पुरानी और सुविधाजनक सांसें
जिन्हें लेने पर आवाज भी नहीं आए
ऐसा तो कब्रों में होता है न!

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

हौसलों की बात



रास्तों की बात थी, न मंजिलों की बात थी,
कदम क्या कहते मेरे? और, हौसलों की बात थी।

शहर क्या? वीराना क्या? था अपना क्या? बेगाना क्या?
मेरी निगह ने जो किये, उन फैसलों की बात थी।

नजरों ने देखा उसे और दिल का मेहमां कर लिया,
वो जवां हुआ दर्द सा, या किस्मतों की बात थी।

मैं नहीं भूला उन्‍हें, उन्‍होंने कभी याद नहीं कि‍या
नहीं मेरी दीवानगी, मि‍जाज ए उल्‍फतों की बात थी

अब तो खवाबों में भी बस, नाम सा उनका सुनते हैं,
वक्त के जो तय किये, उन फासलों की बात थी



डॉ. हीरा इंदौरी की मार्च 2006 में प्रकाशि‍त एक बन्‍दि‍श
औरत
अश्क बरसाए तो सावन की झड़ी है औरत ।
मुस्कराए तो सितारों की लड़ी है औरत ।।

लुत्फ आता है वहां ये जहां हिलमिल के रहें ।
आदमी है जो पकोड़ा तो कढ़ी है औरत ।।

आदमी जब इसे पाता है तो बन जाता है मर्द।
कोई टानिक कोई बूटी जड़ी है औरत ।।

सिर्फ औरत की ही हर बात चले जिस घर में ।
उसमें हर आदमी छोटा है बड़ी है औरत ।।

गैर की हो तो नहीं रूपमती से कुछ कम ।
और अपनी हो तो लगता है सड़ी है औरत ।।

सुबह होते ही वो बच्चों पे बरस पडती है ।
अपने घर में तो अलारम घड़ी है औरत ।।

चाहे झांसी का किला हो के हो वो चिकमंगलूर ।
कोई मैदान हो मर्दो से लड़ी है औरत ।।

लोग इसे चांद से सूरज से हसीं कहते है ।
बावजूद इसके अंधेरे में पड़ी है औरत ।।

इसमें कुछ शक नही सब कहते है 'हीरा' मुझको ।
पर मेरे दिल की अंगूठी में जड़ी है औरत ।।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

तुम हमारे अजनबी, हम तुम्हारे अजनबी

हमने देखे सच के इशारे अजनबी
अपनी ही आंखों के नजारे अजनबी

अपनों की गुजारिशें और राम का भाग्य
सोने के हिरन थे सारे अजनबी

मुश्किल हालात, नहीं बस में बात
शहर अपना है लोग सारे अजनबी

अजनबीयत का रिश्ता अजीब देखा
तुम हमारे अजनबी, हम तुम्हारे अजनबी

अमावस रातों में जिन्दगी का सफर
चांद अजनबी सितारे अजनबी

जिन्दगी ने धीरे - धीरे से सिखलाया
फूल, खुश्बू, रंग, सनम सारे अजनबी


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जीवन की गहराई में


प्रेम क्या है? डेविड लयूक कहते हैं ‘‘अनन्त प्रेम ही सत्य है, शेष तो प्रेम के नाम पर भ्रम ही है’’ हालांकि वैज्ञानिकों द्वारा चिकित्सा अध्ययनों में हमारे जीन्स को आधार मानकर प्रेम की व्याख्याएं करने की कोशिश की गई है। मूलतः उन्होंने पाया है कि हम उस व्यक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं जो आनुवांशिक तौर पर बीमारियों और अन्य कमजोरियों में हमारे ही समान होता है।

हालांकि हमारा प्राचीन ज्ञान हमें एक दूसरे ही दृष्टिकोण से शिक्षित करता है। प्राचीन ज्ञान और पुरानी पवित्र माने जाने वाली अध्ययन सामग्रियों में यह विश्वास व्यक्त किया गया है कि हमारा शरीर (व्यक्तिगत आत्म या स्व) अपने चारों ओर चार ऊर्जाओं (चार या अहं) से मिलकर बना है।

यह चार प्रकार की ऊर्जाएं हैं: 1. भौतिक ऊर्जा अपनी आवश्यकताओं सहित 2. संवेदी अपनी इच्छाओं सहित 3. भावना अपने अहसासों सहित और बौद्धिक ऊर्जा अपनी संकल्पनाओं सहित। हमारे आत्म के उच्च स्व या आत्म तक पहुंचने के लिए ये ऊजाएं संतुलित होनी चाहिए। चूंकि इस बिखरे विक्षेपित संसार में यह बहुत ही कठिन कार्य है इसलिए हम अक्सर किसी उस व्यक्ति (जीवन साथी) की तलाश में रहते हैं जो (जैसे जीन्स का आदान प्रदान होकर संकर जीन्स बनते हैं वैसे ही हमारी और अगले व्यक्ति की अधूरी और रिक्त ऊर्जांए मिलकर) हमें उच्च आत्म स्तर अस्तित्व तक ले जा सके।

प्राच्य विद्याओं की मान्यता थी कि हम आत्मा सहित पैदा नहीं होते, बस आध्यात्मिकता के बीज सहित पैदा होते हैं और इस जन्म लेने का ध्येय आत्मा की खोज होता है अथवा अपनी उच्च आत्मावस्था की खोज। क्या ये वैसी ही कोशिश नहीं होता जैसी कि हम लोहे की धातु को सोना बनाना चाहें।

मुझे यह संकल्पना एकबारगी सही लगी कि वाकई जिन इंसानों को हम अपने आस पास चलते-फिरते देख रहे हैं उनमें से अधिकतर की आत्माएं तो पक्के तौर पर नहीं हैं। फिर बहुतेरे तो ऐसे शरीर हैं जो केवल भौतिक ही हैं, या भावानात्मक ही हैं, या संवेदी ही हैं या फिर केवल बौद्धिक ही हैं। यानि इस संकल्पना के अनुसार तो हम सब लूले लंगड़े और पंगु ही हैं, किसी में किसी अंग तो किसी अन्य में दूसरे अंग का अभाव है, संतुलन नाम की चीज दुर्लभ ही दिखाई देती है।

वैसे ये संकल्पना हमारी उस ‘‘कला’’वादी संकल्पना के काफी निकट है जिसमें ये ख्याल था कि आदमी में कलाएं होती हैं। जितनी कलाएं होंगी वो उतना ही ऐश्वर्यशाली या ईश्वर होगा जैसे राम में कलाएं कम थी और कृष्ण में अधिक, और ऐसे ही अन्य ऐतिहासिक चरित्रों में न्यूनाधिक मात्रा में कलाएं थीं।

झूठ के इशारे
झूठ को सामान्यतः इन संकेतों से पहचाना सकता है: अचानक ही मुंह से ‘उं’, ‘आं’ ‘आ’ की आवाजें सामान्य से अधिक बार निकलना, अपने आप ही बचाव की मुद्राएं बनना, नजरें चुराना, नजर ना मिला पाना, तनाव पूर्ण होना, झूठा व्यक्ति अंदर से तो कड़वेपन का अहसास कर रहा होता है पर ऊपर ही ऊपर मुस्कान बिखेरता नजर आता है। वह अपने शरीर को आपसे दूर दूर सा करता है,वह आपसे टलने की कोशिश करता है। उसके शारीरिक हाव भाव असामान्य होते हैं और उसके हाथ मुंह को ढांकने के लिए बार-बार ऊपर को उठते हैं। झूठ बोलने वाले व्यक्ति की धड़कने अनियमित होती हैं।
वैसे आप यह सब जानने के बाद कितनी ही निपुणता से झूठ बोलिये, अंततः ‘‘सत्यमेव जयते’’ ही होता है, नहीं ?


रोचक तथ्य:

  • शुतरमुर्ग की आंखें उसके दिमाग से बढ़ी होती हैं। इससे साबित होता है कि कोई आंखे तरेरे तो उससे डरने की कतई जरूरत नहीं।
  • कछुआ अपने गुदाद्वार से भी सांस ले सकता है।
  • अंगे्रजी में जी ओ ’’गो’’ सबसे सरल और सम्पूर्ण वाक्य है।
  • प्रसिद्ध ‘‘बारबी डॉल’’ का पूरा नाम बारबरा मिलिसेंट राबर्ट्स है।
  • हमारी आंखें जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त एक सी रहती हैं, पर नाक और कान आजीवन बढ़ते रहते हैं।
  • एक घोंघा तीन वर्ष तक सो सकता है।
  • स्त्रियाँ पुरूषों से दुगुनी बार पलके झपकतीं हैं। वैसे ज्यादा पलके झपकने वाले पुरूषों के बारे में यह विश्वास होता है कि वो झूठे और चालबाज हैं।
  • दो अरब लोगों में से एक व्यक्ति ही 116 साल या अधिक की आयु जी पाता है।
  • औसतन प्रतिवर्ष 100 लोग बॉल प्वाइंट पेन मुंह में लेते-लेते, अचानक गले में चले जाने और दम घुट जाने के कारण मर जाते हैं।
  • किसी भी बतक्ख के मुंह से निकली आवाज ‘‘क्वेक क्वेक’’ कभी भी गूंजती नहीं, कोई भी नहीं जानता ऐसा क्यों होता है।

    मंगलवार, 24 नवंबर 2009

    श्रम के मोती काफी

    पेट भरे नींद आ आये, इतनी रोटी काफी
    मेहनत करूं और चढ़े देह पर, उतनी बोटी काफी

    लानत है इस फैशन पर, रूह नंगी कर देता है
    जिसमें मेरे पैर समाएं, इतनी धोती काफी

    चाँद, तारे, सूरज की किरने, रोशनी कुछ ज्यादा है
    कदम-कदम जो राह दिखाये, दीप की ज्योति काफी

    बेईमानी की धन-दौलत से, भ्रम न हो कामयाबी का
    माथे पर जो झलकें-चमकें श्रम के मोती काफी

    रविवार, 22 नवंबर 2009

    हकीकत के फल



    काशी काबे की बातों में, ये दिल भरमायेगा तुझको
    खुदा खुद ही यहाँ चला आयेगा, तू अपने दिल को मक्का कर

    तस्सव्वुर तो रंग बिरंगे हैं, फल फूल जो देखे आखों ने
    ये जहर भरे कि हैं अमृत, हकीकत के फल भी चक्खा कर

    आठों ही पहर कड़ी मेहनत, और सोहबत नई तदबीरों की
    कहाँ खर्चने नगीने सांसों के, जरा ध्यान इधर भी रक्खा कर

    अश्कों की नदी दुख के सागर, ना किनारे इनके बैठा कर
    जरा उतर तो इन गहराईयों में, जरा अपने इरादे पक्का कर

    इक बीज में सारा जंगल छुपा, कैसे ये हुआ दुनियां को दिखा
    नहीं, आम मौत मर जाना नहीं, जरा जहां को हक्का-बक्का कर
     

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    सपने की हकीकत :
    सपना अर्द्ध चेतन अवस्था होती है जिसमें हमारा अपने ही विचारों और अभिव्यक्तियों पर नियंत्रण नहीं होता। अपवादस्वरूप कुछ एक लोग इस बात में पारंगत होते हैं कि वो सपने में वो सब देख सकें जो वो देखना चाहते हैं। क्या आप जानते हैं कि हममें में अधिकतर लोग जीवनभर में 6 साल सपने देखते हुए बिताते हैं? अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है कि हम सभी अपनी एक सामान्य नींद के दौरान कम से कम दो या अधिक बार सपने देखते हैं हालांकि जागने के बाद ये हमें याद नहीं रहते। सामान्यतः जागने के 5 मिनट बाद आधे से ज्यादा सपने भुला दिये जाते हैं और जागने के 10 मिनट बाद सारे सपने भुला दिये जाते हैं।
    वो लोग जो जन्म से अंधे होते हैं वो भी सपने देखते हैं। जन्मांध लोगों के सपने स्पर्श, गंध, ध्वनि और स्वाद जैसी इन्द्रियों पर आधारित होते हैं। रोमन युग में संसद में कुछ उन सपनों पर चर्चा और व्याख्या भी होती थी जिन्हें समझा जाता था कि ईश्वर ने मानवजाति के लिए दिखाया है।
    उन सपनों जिन पर व्यक्ति का थोड़ा बहुत नियंत्रण होता है, सबोधगम्य सपने कहते हैं।
    जागरूक रहने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि हम सपनों का अभ्यास करें। हम सपनों को लिखें और सपनों की श्रंखला का रिकार्ड रखें, यह हमारे अपने बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण है।
    दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम उन संकेतों और उत्प्रेरकों को लिखकर रखें जो हमें सपना देखने के दौरान इस बात के ज्ञान में सहायक हों कि हम स्वप्न अवस्था में हैं। एक बार हम सबोधगम्य सपने देखना शुरू कर दें तो हम सवप्न अवस्था में काल्पनिक अनुभवों पर नियंत्रण कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए अतिमहत्वपूर्ण है जिन्हें बुरे सपने आते हैं। एक मजेदार तथ्य यह भी है कि नींद के दौरान हमारा शरीर अचल हो जाता है शायद इसलिए कि हम नींद में सपनों को चलते-फिरते हकीकत न करने लगें।
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    मजेदार तथ्‍य :

    • यदि आप 8 वर्ष और 7 माह तक चिल्लायें तो आप इतनी ध्वनि ऊर्जा पैदा कर सकते हैं जो एक कप कॉफी बनाने के लिए पर्याप्त हो।
    • एक सूअर 30 मिनट तक संभोगावस्था में रह सकता है।
    • एक मगरमच्छ अपनी जुबान बाहर नहीं निकाल सकता।
    • यदि आप दीवार पर सर मारते हैं तो इसमें 150 कैलोरी प्रति घंटा खर्व होगी।
    • केवल आदमी और डॉल्फिन ही ऐसी प्राणी प्रजातियां  हैं जो केवल सुख के लिए संभोग करती हैं। 
    • आदमी के शरीर में सबसे मजबूत मांसपेशी है जीभ।
    • सीधे हाथ से काम करने वाले लोग, उल्टे हाथ से काम करने वाले खब्बुओं से औसतन 9 वर्ष अधिक जीते हैं। क्या आपको मालूम है - धु्रवीय भालु भी खब्बू होते हैं?
    • चींटी अपने वजन से 50 गुना अधिक वजन उठा सकती है और 30 गुना अधिक वजन खींच सकती है। चींटी नशे में होने पर हमेशा सीधे हाथ की ओर गिरती है। क्या आपको मालूम है कि नशे में होने पर आप किस और गिरते हैं?
    • मौत के मुंह में जाने से बचा एक काकरोच अपने सिर के बिना, यानि एक कॉकरोच का धड़ 9 दिन तक जिन्दा रह सकता है।
    • कुछ शेर दिन में 50 बार संभोग कर सकते हैं।
    • स्टारफिश का दिमाग नहीं होता।
    • तितलियां अपने पैरों से स्वाद का अनुभव करती हैं।
    • मच्छर भगाने वाले साधन ऑलआउट वगैरह मच्छरों के संवेदी अंगों को निष्क्रिय कर देते हैं जिससे उसे पता नहीं चलता कि आप कहां हैं?
    • दंत चिकित्सक सलाह देते हैं कि आप अपने टूथब्रध को कमोड से कम से कम 6 फिट दूर रखें।
    • एक जवान नारियल में भरा पानी ब्लड प्लाज्मा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
    • किसी भी कागज के टुकड़े को (अपने आकार से आधा करते हुए ) 7 बार से ज्यादा नहीं मोड़ा जा सकता।
    • उतने लोग वायुयान दुर्घटनाओं में नहीं मरते जितने गधों द्वारा मार दिये जाने से।
    • आप टीवी देखकर उतनी कैलोरी खर्च नहीं करते, जितनी सो कर।
    • तस्मों के किनारे पर लगी चीज एग्लेट्स कहाती है।
    • वॉल्ट डिज्नी चूहों से डरते थे।
    • यदि आप 6 वर्ष 9 माह तक लगातार अपानवायु नि‍ष्‍कासन में सक्षम हों तो इतनी गैस पैदा हो सकती है जो एक एटम बम जितना ऊर्जा पैदा कर सके।
    • मोती सिरके में पिघल घुल जाते हैं।

    गुरुवार, 19 नवंबर 2009

    तुम कहाँ हो ?



    यूं तो मुझको कोई गम न था, क्यों याद तुम्हारी आती रही
    कोई आग सी दिल में दबी-दबी, आहों की हवा सुलगाती रही

    जब भी तेरा नाम सुनाई दिया, इस दुनियां की किसी महफिल में
    कई दिन तक, फिर इन आंखों में, तस्वीर तेरी लहराती रही

    छोड़ू ये शहर, तोड़ूं नाते, जोगी बन वन - वन फिरता रहूं
    कहीं तो होगा विसाल तेरा, उम्मीद ये दिल सहलाती रही

    कई बार मेरे संग हुआ ऐसा, कि सोते हुए मैं उठ बैठा
    मैं तुमसे मिन्नतें करता रहा, तुम खामोश कदम चली जाती रहीं

    तेरा मिलना और बिछड़ जाना, इक ख्वाब सा बनकर रह गया है
    तेरे होने, न होने की जिरह, ता जिंदगी मुझे भरमाती रही

    शनिवार, 14 नवंबर 2009

    लोग



    बहुत चमकते-बहुत खनकते, गहराई तक खोटे लोग।


    मौके की ढलानों पे लुढ़कते, बेपेंदी के लोटे लोग।


    दूजों को क्या समझाते हैं? खुद जो अक्ल से मोटे लोग।


    गिरेबां खुद का झांक न देखें, दूजों के नोचें झोंटे लोग।


    बडी-बड़ी कविताएं लिखते, दिल के छोटे-छोटे लोग।


    बेफिक्र होकर हलाल करें, वेद-कुरान को घोटे लोग।

    गुरुवार, 12 नवंबर 2009

    जिन्दगी के लोन बेमियादी हैं



    जुबान भीड़ के लिए फरियादी है,
    आज मूड समाजवादी है।

    सच का शोर मचाओ, मर जाओ,
    अपने संविधान में भी आजादी है।

    डॉन नहीं, हीरो नहीं, नेता नहीं, रईस नहीं,
    अदालत में खड़ा ही क्यों ये फरियादी है?

    कुंआरेपन को ब्याहों की नजर लगी,
    खुली जेल की सजा सी शादी है।

    आखिरी सांस तक चुकाते रहो,
    जिन्दगी के लोन बेमियादी हैं।

    परमाणु बमों से ही हल होगी,
    बढ़ती समस्या, बढ़ती आबादी है।

    सोमवार, 9 नवंबर 2009

    आदमी की संभावना



    कुत्ता, कुत्ते सा
    अजगर, अजगर सा ही होता है

    गिरगिट, गिरगिट सा
    भेड़िया, भेड़िये सा ही होता है

    गिद्ध गिद्ध सा
    सूअर, सूअर सा ही होता

    बैल, बैल सा
    गधा, गधे सा ही होता है

    सांप, सांप सा
    केंचुआ केंचुए-सा ही होता है

    फिर क्यों आदमी
    कुत्ता, अजगर, गिरगिट
    गिद्ध, सूअर, बैल
    गधा, सांप, केंचुआ
    सब कुछ हो जाता है?

    क्यों नहीं रहता
    आदमी, आदमी सा?

    या,
    आदमी वो संभावना है
    जो सब कुछ हो सकता है?
    आदमी से बदतर,
    आदमी से बेहतर।

    या,
    आदमी का होना
    बदतर और बेहतर
    दो अतियों में झूलना है।

    या,
    आदमी, इस सारे प्रपंच से
    होश की छलांग लगाकर
    बाहर हो सकता है?
    हमेशा के लि‍ए।

    शनिवार, 7 नवंबर 2009

    नई तरकीबें




    मेरी दीवानगी की हदें, अज़ब सी चीजें ढूंढती हैं
    ख़्वाबों के तहखाने में, जिन्दा उम्मीदे ढूंढती हैं

    मसीहा भी तैयारी से, आते हैं इन्सानों में
    मालूम उन्हें भी होता है, क्या सलीबें ढूंढती हैं


    हजारों दिवालियां चली गई, पर राम नहीं लौटे
    नन्हें चिरागों की रोशनियाँ, अब नई तरकीबें ढूंढती हैं


    बिना ब्याहे संग रहना, और माई-बाप से तंग रहना
    जाने क्या? कैसे रिश्ते? अब तहजीबें ढूंढती हैं


    इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
    नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।


    गुरुवार, 5 नवंबर 2009

    घास



    घास आदमी के पैरों को
    चलने की सहूलियत देती है

    घास जानवरों का पेट भरती है।

    घास से हष्ट-पुष्ट हुए जानवर खा
    मांसाहारी हष्ट-पुष्ट होते हैं।

    घास से
    नभचर, थलचर और जलचर
    सभी पलते हैं।

    जहाँ भी मिट्टी होती है
    अनायास उग आती है घास।

    धरती के सीने में हरदम रहते हैं,
    घास के बीज।

    घास धरती की अभिव्यक्ति है।

    जब भी परमात्मा कुछ नहीं होना चाहता
    घास हो जाता है।
    --------------

    सोमवार, 2 नवंबर 2009

    कुछ मिला न तुझको चाह कर।

    न मन्दिर न दरगाह पर,
    कुछ मिला न तुझको चाह कर।

    ऐ मेरे जख्मों चुप करो
    क्या मिलेगा तुमको आह कर?

    अब मुझे भी चैन कैसे आये,
    वे तड़पा मुझे मनाह कर।

    वो मुझको अजनबी कहता है,
    मेरे दिल में गहरे थाह कर।

    वो नमाजें कैसे पड़ता है?
    किसी मन्दिर को ढाह कर?

    चाँद न जाने कहाँ गया,
    रात के मुँह को स्याह कर।

    इन्सान क्यों उनको कहते हो,
    जो जिएं एक दूजे को तबाह कर।

    ऐ दिल जल मत तू काबिल बन,
    नहीं मिलता कुछ भी डाह कर।

    मेरी महबूबा कहाँ खो गई,
    जब लाया उसे निकाह कर।

    छुरियाँ छुपा के गले लगा,
    मेरा दोस्त मुझे आगाह कर।

    उस रात से राख सा उड़ता हूँ,
    जब लौटा यादें दाह कर।

    मेरे मौला कड़ी सजा देना,
    जो बचूं मैं कोई गुनाह कर।

    जो अनन्त को पाना चाहता है,
    तो अपने दिल को अथाह कर।

    ऐ खुदा मुझे रंक या शाह कर,
    पर सदी ही अपनी पनाह कर।।

    शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

    हम जंगलों का कानून भी भूल गये हैं


    सुना है -
    जंगलों का भी कोई कानून होता है।
    सुना है,
    शेर का जब पेट भर जाये,
    वो हमला नहीं करता।

    सुना है -
    हवा के तेज झोंके,
    जब दरख्तों को हिलाते हैं,
    तो मैना अपने घर को भूल कर,
    कौवै के अंडों को,
    परों में थाम लेती है।

    सुना है -
    किसी घोंसले से
    जब किसी चिड़िया का बच्चा गिरे तो
    सारा जंगल जाग जाता है।

    सुना है -
    कोई बाँध टूट जाये,
    बाढ़ सी आये
    तो किसी लकड़ी के तख्ते पर
    गिलहरी, साँप, चीता और बकरी साथ होते हैं

    सुना है जंगलों का भी कोई कानून होता है।

    ओ परम शक्तिवान परमात्मा हमारे देश में भी,
    अब जंगलों का कोई कानून कायम कर।


    (यह कविता हमारी नहीं है, पर बेहतरीन है)

    गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

    अंजामों का डर

    एक ही दिन की दीवाली थी, और इक दिन की होली थी,
    और बरस में दिन थे सैकड़ों, गमों की हँसी ठिठोली थी

    उम्मीद के जुगनुओं की रोशनी में, आसान नहीं उम्रों के सफर
    कुछ तो थे दिल, दुनियाँ के अंधेरे, कुछ किस्मत ने अमावस घोली थी

    ये मुझको आजादी थी कि, कुछ भी कहूं, किसी से भी कहूं
    अंजामों के डर, दहशत से, अपनी जुबां नहीं खोली थी

    रोटी, कपड़े और मकान के, इंतजाम में बीती उमर
    बेजा टांगे फिरे जन्म भर, जो सपनों की झोली थी

    चार कोस की हरियाली थी, हजार कोस के रेगिस्तान
    थके पाँव और हारे दिल पर, काल की नीयत डोली थी

    ”कोई मसीहा आयेगा कभी“, इंतजार मैं कैसे करूँ,
    सहम गया था वो सब सुनकर, जो-जो सलीबें बोली थीं

    लोग थे कहते - "मैं सुनता और देखता हूं बस दुख ही",
    पीड़ा तो थी मेरी सहोदर, वो ही मेरी हमजोली थी


    इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
    नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।

    आ अब तो सामने आकर मिल

    उम्र के पाखी उड़ चले हैं
    कभी किसी डगर तो आकर मिल
    मुझे किसी मंजिल की फिक्र हो क्यों?
    तेरा साथ जहां, है वही मंजिल

    वो तो बचपन की बातें थीं
    कि बरसों तुझको देखा किये
    रगों में बहता लहू कहता है
    कभी मुझसे हाथ मिलाकर मिल

    तेरी जुल्फों के काले जादू से
    मेरे खवाब हुए रोशन रोशन
    हुई बहुत खयालों की बातें
    कभी आमने सामने आकर मिल

    बादल छाए बिजली चमकी
    तेरे साया बोला बातें कई
    कर परवाने पे और यकीं
    इक बार तो आग जगाकर मिल

    बेताब जवानी कहती है
    तुझे मेरी वफा पे शक कैसा
    आ सारे जमाने के सामने आ
    और मुझको गले लगाकर मिल

    बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

    कोई इशारा करो।

    बुझ जाये न आरजू की शमां,
    जब तक बलती है धुंआं-धुंआं,
    धड़कन का साज है रमां-रमां,
    कोई इशारा करो।

    तन्हाई की रातों में,
    खुद से बातों-बातों में,
    ऐसे बहके हालातों में,
    कोई इशारा करो।

    उम्रों की कई सलवटें तय की,
    दीवानगी की कई सरहदें तय की,
    अब वक्त ही यही तलब है कि
    कोई इशारा करो।

    जमाना दुश्मन हो गया है,
    तेरी चाहत ने संगसार किया है,
    मरकर तुमको प्यार किया है,
    कोई इशारा करो।

    मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

    सब चलता रहता है


    मि‍त्र संतोष श्रीवास नहीं रहा


    कोई रहे न रहे
    सांसों के संजाल में

    कोई रहे न रहे
    स्मृतियों की परिधि में
    क्षणिक हंसी मुस्कानों की अवधि में
    ऐसा जाये कि
    अब कभी लौट के न आये
    समय की नदी में

    स्मृतियों में कथा बन
    निवर्तमान-सी व्यथा बन
    पलता रहता है

    जो जिया संग
    अब अतीत हुआ है
    बीत गया है
    क्या रह गया है मेरे दिल में
    छल सा
    भरता है सांसों में निर्बलता
    इन्द्रियों के अनुभवों के उत्सवों को झुठाता
    बन आकुलता रहता है

    कोई रहे न रहे
    दृष्टि की सृष्टि में
    अश्रुओं की वृष्टि में
    ह्रदय में
    सतत तरलता रहता है

    कोई रहे न रहे
    सांसों के संजाल में

    सब चलता रहता है

    सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

    आप न पढ़े तो भी ये काफी बेहतर किस्सा है



    एक पिता अपनी किशोर बेटी के बेडरूम के पास से गुजरा और देखकर हैरान हुआ कि बिस्तर बड़ा साफ सुथरा और सलीके से लगा हुआ है। फिर उसने देखा कि तकिये पर एक खत रखा है, आगे बढ़कर देखा तो वह ‘‘पिता’’ को ही सम्बोधित करते हुए लिखा था। किसी अनहोनी की आशंका में पिता ने जल्दी-जल्दी वह खत खोला और हाथों में फैलाकर पढ़ने लगा:

    आदरणीय पिता जी,
    मुझे यह खत लिखते हुए हार्दिक अफसोस और दुख हो रहा है, पर मैं घर छोड़कर जा रही हूं। चूंकि मैं आप-मम्मी और मोहल्ले वालों के सामने किसी तरह की नौटंकी नहीं करना चाहती इसलिए मैं अपने नये ब्वायफ्रेंड जॉन के साथ घर से भागकर जा रही हूं। मैंने जॉन के साथ कुछ ही दिन जीकर जाना है कि असल जिन्दगी क्या होती है। वो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुझे उम्मीद है कि जब आप उससे मिलेंगे तो अपनी भुजाओं पर गुदवाये टेटूज, छिदे हुए कानों और बेढंगी सी मोटरसाईकिल पर बिना स्लीव वाली शार्ट टीशर्ट में दिखने के बावजूद वो आपको पसंद आयेगा। यह मेरा जुनून ही नहीं मेरी मर्जी भी है क्योंकि मैं गर्भवती हूं और जॉन चाहता है कि हम इस बच्चे के साथ हंसी खुशी जीवन बितायें, जबकि जॉन मुझसे उम्र में काफी बड़ा है (पर आप जानते ही हैं, 42 साल आज की जमाने में कोई ज्यादा उम्र नहीं)। जॉन के पास सीडीज का एक बहुत बड़ा कलेक्शन है, और ये सर्दियाँ काटने के लिए जंगल में उसने काफी लकड़ियाँ इकट्ठी कर रखी हैं।
    ये अलग बात है कि उसकी एक और गर्लफ्रेंड भी है पर मैं जानती हूं कि वो अपने तरीके से मेरे प्रति ही ज्यादा वफादार है। जॉन ने मुझे सिखाया है कि गांजा और अफीम वास्तव में किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाते इसलिए वो खेतों में यही उगा रहा है जिसकी फसल वह अपने मादक द्रव्यों का नियमित सेवन करने वाले दोस्तों में बांटेगा और काफी पैसे भी कमा लेगा। इस बीच जुए में महारथ के कारण हमें खर्चे-पानी की किसी तरह तकलीफ नहीं होगी।
    मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि आने वाले वर्षों में एड्स का सफल इलाज निकल आये ताकि जॉन अपने स्वास्थ्य के बारे में बुरा अनुभव न करे, वह इसके इलाज के लिए पूर्णतया योग्य व्यक्ति है।
    पिता जी आप चिन्ता ना करें, मैं 15 वर्ष की समझदार लड़की हूं और मुझे पता है कि मुझे अपनी देखरेख कैसे करनी है। मुझे उम्मीद है कि आप मुझे माफ कर देंगे और भविष्य में किसी दिन मैं आपसे आपके नाती सहित मिल सकूंगी।
    आपकी ही प्रिय पुत्री
    - सीमा

    पिता के पैरों तले से जमीन खिसक गई, काँपते हाथों से जब उसने पत्र के सबसे नीचे जहां कृ.पृ.उ. (कृपया पृष्‍ठ उलटि‍ये) लिखा रहता है वहाँ पढ़ा, वहाँ छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था -

    पिता जी, उपरोक्त सभी कहानी झूठ है। मैं ऊपर वाले शर्मा अंकल के घर में अपनी सहेली पिंकी के साथ हूँ। मैं आपको यह याद दिलाना चाहती थी कि हमारे जीवन में बहुत ही घटि‍या और बुरी बातें हो सकती हैं... मेज की निचली दराज में पड़े स्कूल के रिपोर्ट कार्ड से भी बुरी, जिसमें मैं फेल हो गई हूँ। कृपया उस पर साईन कर दें और जब भी भला लगे मुझे तुरन्त फोन कर बुला लें।
    -----
    यह चुटकुला एक हकीकत के ज्‍यादा करीब है।

    शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

    हमने जिन्दगी की डगर यूं तय की


    हमने जिन्दगी की डगर यूं तय की,
    हर सुबह रात सी, हर रात सुबह सी तय की।

    आसमान ऊंचे थे और सरचढ़ी थी ख्वाहिशें
    परकटी जवानी ने, खामोशी से, जिरह तय की।

    धुआँ-धुआँ सी साँसों का हासिल क्या होता
    सुलगती-सुलगती शाम से रात, सहर तय की

    लौट आये बदहवास उम्रें चेहरे पे लेकर
    पूछो न कैसे, दर्द की हर लहर तय की

    घूंट दर घूंट जहर की मिठास बढ़ती गई
    ‘राजेशा’ हमने मौत की अजब तलब तय की. 

    इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
    नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।



    बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

    सूरज की राह न तको

    जुगनुओं की रोशनी में, रास्ते तय कीजिये,
    सूरज की राह तकोगे तो, मंजिलें दूर हो जायेंगी ।

    जमाना बुरा है, दिल की बातें, ना उड़ाते फिरा करो,
    यूं तो तुम्हारी मुश्किलें, कुछ और मशहूर हो जायेंगी ।

    दिल न माने फिर भी, इस भीड़ में आते-जाते रहो,
    जब कभी भी तन्हा होगे, महफिलें दूर हो जायेंगी ।

    लम्बी उम्रों की दुआएं, देने वाले नहीं रहे,
    दुश्‍मनों की उम्मीदें अब, सफल जरूर हो जायेंगी ।

    कहता था कर नजर गहरी, और फिर चुप हो गया,
    नहीं पता था वो नजर, यूं नूर-ए-रूह हो जायेगी ।

    मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

    हरदम खुद को खो देता हूँ।

    बीते बचपन की यादों में,
    मैं ख्वाबों में रो देता हूँ।

    मेरे सपने किसी ने पढ़े नहीं,
    बस लिखता हूं, धो देता हूँ।

    जाने क्या पाना चाहता हूँ,?
    हरदम खुद को खो देता हूँ।

    उनके ख्वाबों के इंतजार में,
    मैं भी इक पहर सो लेता हूँ।

    चाहता हूं आम ही लगें मगर,
    फिर क्यों बबूल बो लेता हूँ?

    मैं मौत की राह तकते-तकते,
    सारी जिन्दगी ढो लेता हूँ।

    मेरी चाल में कोई खराबी है,
    हर मंजिल को खो देता हूँ।

    शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

    दीवाली और दि‍ल की बात












    दीवाली और मेरा दिलबर

    हम कैसे मनाएँ दीवाली,

    सब उजाले उनके साथ हैं,
    उनका हर दिन पूनम सा,
    अपनी तो अमावस रात है।

    हैरान हैं उनके इशारों से,
    हाँ-ना के बीच ही झूलते हैं,
    अब दीवाना करके छोड़ेंगे,
    जो उलझे से जज्बात हैं।

    रंगीन बल्बों की जो लड़िया,
    उनकी मुंडेर पर झूलती हैं,
    उनके जलने बुझने जैसे,
    अपने दिल के हालात हैं।

    सुना! आयेगा घर दिवाली पर,
    दिल में फुलझड़िया छूटती हैं,
    मेरी दीवाली से पहले ही,
    जगमग-जगमग हर बात है।

    वो जब भी मुझसे खेलता है,
    बस मैं ही हमेशा जीतता हूं,
    वो है मेरे सामने जीत मेरी,
    मेरी खुशी कि मेरी मात है।

    वो खुदा तो हरदम संग मेरे,
    दीवाली हो या दीवाले
    वो आंसू में, मुस्कानों में,
    वो ही सारी कायनात है।






    आदरणीय मित्रजनों,
    आप सबको दीपावली पर्व की हार्दिक बधाईयाँ।
    सर्वे वे सुखिनः सन्तु , सर्वे सन्तु निरामयः
    सर्वे भद्राणि पश्यंतु , मा कश्चितदुखभागभवेत
    इस श्लोक का अर्थ आधुनिक दीपावली पर्व के रूप में किया जाना चाहिए।
    सर्वे वे सुखिन: सन्तु का अर्थ है कि सभी सुखी हों। लेकिन यदि दुनियां में पांच अरब तरह के लोग हैं तो सुखों की संख्या उसकी पांच अरब गुना ही होगी। सबके अपनी-अपनी तरह के सुख हैं।
    जो भूखा है वो सोचता है कि मरा जा रहा हूं, कुछ खाने-पीने को मिले तो शरीर में जान आये और चलफिर फिर पायें।
    जो पैदल चल रहा है वो सोचता है साईकिल मिल जाये तो किलोमीटर्स का सफर मिनटों में तय कर डालूं।
    जो साईकिल से सफर करता रहा है, वो मोटरसाईकिल वालों को देखता है कि यार कब तक मैं मोटरसाईकिलों कारों के पीछे धुंआ निगलता हुआ पैडल मारता रहूंगा, मोटरसाईकिल मिले तो मैं भी हवा-हवाई सफर करूं।
    मोटरसाईकिल वाला ज्यादा मुश्किल में होता है- क्योंकि कार आती है लाख रूपये की, कई लोगों का तो जन्म निकल जाता है लाख रूपये कमाते-कमाते। फिर कार खरीद कर गैरेज में खड़ी करने से तो और भी दुख होगा न, चलाने के लिए 50 रू प्रति 10-15 किमी पेट्रोल का प्रबंधन आसान खर्च थोड़े ही न है।
    कारधारक हवाई जहाजों के किराये देखता है और यह कि फलां दोस्त कितना अक्सर हवाई यात्राओं का कहां कहां सफर कर चुका है।
    जो हवाई जहाज से उड़ रहा है वो भी चांद की यात्रा के सपने पाल रहा है।
    तो कहने का मतलब साफ होता है कि सुख अपनी-अपनी औकात के हिसाब से होते हैं।
    लेकिन इस श्लोक में शायद उन सुखों की नहीं असली सुख की बात कही गई है असली सुख है, कि सुख को भोगने वाला शरीर, मन निरोग रहें, निरामय रहें।
    कोई स्वस्थ रहे इससे बड़ी कोई अमीरी नहीं है।
    अस्वस्थ हैं, कोमा में पड़े हैं, शरीर की गतिविधियां मशीनी हो गई हैं, रोज लाखों- करोड़ों रू फंुक रहे हैं लेकिन कानूनी वैज्ञानिक रूप से से आप जीवित हैं, तो आप इसे जीवित रहना या सुख कहेंगे?
    इससे भला तो वो बीमार अच्छा है इलाज न करवा पाने के कारण परमात्मा को पुकार ले, देहत्याग दे।
    तो निरामयता सुख है।
    साथ ही कहा गया है - सर्वे भद्राणि पश्यंतु। अब आप अकेले स्वस्थ सबल छुट्टे सांड की तरह इधर-उधर सींग मारते घूम रहे हों तो इसमें निरामयता का सुख नहीं है।
    श्लोक के ऋषि कहते हैं - सर्वे भद्राणि पश्यंतु। मैं अकेला ही नहीं सभी लोग स्वस्थ हो जायें। सभी लोग तन मन से यथार्थतः स्वस्थ सुंदर दिखने वाले हो जायें।
    यह बात ही है जो हर दीवाली पर सबको विचारनी चाहिए।
    आपके घर पर रंग बिरंगों बल्बांे की लड़ियाँ जगमगा रही हैं, दिये जल रहे हैं, मिठाईयों पकवानों का आदान प्रदान चल रहा है इसी बीच आपके द्वार पर कोई कंगला पुकारता है और आप उसे लक्ष्मी के स्वागत में तैयार द्वार से हट जाने के लिए दुत्कार देते हैं, यह दीवाली का सच्चा भाव नहीं!
    आज तक का इतिहास और आपकी उम्र भर का होश गवाह रहे हैं कि कभी कोई लक्ष्मी सजधजकर आपके द्वार पर आपको अमीर करने नहीं आ गई। परमात्मा की शक्लें पहचानने में नादानी नहीं करनी चाहिए।
    श्लोक में तो इससे भी आगे की बात कही गई है कि सब लोग सुखी, स्वस्थ और संुदर ही न हों बल्कि किसी को किसी तरह का कोई दुख न हो।
    पिछली दीवालियों के पन्ने पलट कर देखिये क्या सारी पिछली दीवालियों पर आपके सम्पर्क में या आपका कोई रिश्तेदार या अन्य, क्या ऐसा हुआ है कि कोई बीमार हो और आप दीवाली के पूजा-पाठ छोड़कर उसकी पूछ परख करने गये हों।
    दीवाली पर यह श्लोक बांचना ही नहीं, अपनी सामथ्र्य भर किसी छोटे से छोटे रूप में इसे अमल में लाने पर ही दीवाली, दीवाली होगी।
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    जैसे ही गर्मी बीतती है और बारिश का मौसम शुरू होता है या जैसे ही बारिश का मौसम गुजरता है और सर्दियों का आगमन होता है - इस संचरण काल में हमें सांस की तकलीफ होने लगती है।

    दीवाली की सफाईयाँ-पुताईयाँ शुरू हुईं तो उठे धूल और चूने, पंेट्स, तारपीन के तेल की गंधों से सांस भारी भारी चलने लगी। दवाईयों के नियमित खानपान के बावजूद हमारी, रात की नींद पिछले 7 दिनों से गायब है। दमे, सांस की तकलीफ झेल रहे लोगों के लिए दीवाली एक दर्दभरा त्यौहार है।

    आज अखबार में पढ़ा कि दीवाली पर लगभग 40 प्रतिशत लोग जलते झुलसते हैं। धूल धुंए, शोर को झेलते नवजात बच्चों, शिशुओं और वृद्धों, अबोले वृक्ष, पशु, पक्षियों की विवशता की भी कल्पना करें।

    जब फुलझड़ियां, अनार या चकरियां चलती हैं तो उठते धुंए का किस पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ये सोचें। राॅकेटों से परेशान कबूतरों, बम पटाखों की लड़ियों से सताये गये गली के कुत्तों, गायों या अन्य प्राणियों का दुख समझें। पटाखों का शोर कानों के पर्दे फाड़ने के लिए जरूरत से ज्यादा है।

    पिछली दीवाली पर घर के सामने ही खड़ा, बारह महीनों पानी से भरे नारियल टपकाने वाला हरा-भरा और प्रातः उठकर देखने पर अपनी हरियाली से हिल हिल कर गुडमार्निंग करने वाला नारियल का पेड़, अपने शीर्ष पर जा घुसे राकेट से धू-धू कर जल गया। जब तक फायर बिग्रेड वाले आते कोंपले निकलने वाला स्थान राख हो चुका था। आज वर्ष भर बाद भी कोंपले उठकर संभलती दिखाई नहीं देतीं।

    माना की दुनियां भर की मंदी में आपकी अमीरी दिन दुगुनी रात चैगुनी बढ़ रही है पर इसका उन्मादपूर्ण प्रदर्शन क्या जरूरी है? गरीब तो वैसे ही परेशान है कि पटाखे खरीदेगा या खुद एक पटाखे, फुस्सीबम सा बिना चले झुंझलाया सा खत्म हो जायेगा।
    वृद्धगृहों, विवश महिला सरंक्षणगृहों, अनाथालयों, अस्पतालों, जेलों, सीमा पर विषम परिस्थितियों में तैनात सैनिकों की परिस्थितियों को याद करें, फिर दीवाली मनायें।
    पटाखे फुलझड़ियां चलाने के लिए घर, संकरे स्थानों कि प्रयोग से बचें, खुले मैदानों का प्रयोग करें। इंटरनेट अखबारों पत्रिकाओं के इस संबंधी ज्ञानवर्धक लेखों को पड़े होश में आयें। क्योंकि होश से बड़ा कोई पुण्य, त्यौहार नहीं है। बेहोश होकर बम पटाखों से हिंसाभाव, रोमांचपूर्ण पागलपन फैलाने से बड़ा कोई पाप नहीं।



    गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

    तुझसे मि‍लने का असर

    तुझसे मिलने का जो अंजाम असर देख रहा हूँ।
    तुझे हर साँस, सुबह- शाम ओ‘ सहर, देख रहा हूँ।

    खूब गुजरी थी मेरी रात, तेरे तसव्वुर की फिजां में,
    फिर हुआ जो मेरा अंजाम-ए-सहर, देख रहा हूँ।

    तू मुझसे मेरे माजी के दुख दुश्वारियां न पूछ,
    हर कदम तय किया जो दर्द-ए-सफर, देख रहा हूँ।

    तू मुझे खूब मिला ऐ सादा-हुस्न, ऐ सीरत-ए-जहीन,
    तेरी सूरत में, किसी दुआ का अमल, देख रहा हूँ।

    मैंने देखी हैं शहर की काली रातें, सुनसान दोपहरें,
    बेवजह दहशत ओ डर से दूर कहीं घर, देख रहा हूँ।

    खुदा है एक जिसके जलवे दिखते हैं दो जहां में,
    काम हो कोई नेक, इक उसकी मेहर, देख रहा हूँ।

    है फानी दुनियां, उम्रें लकीर-ए-पानी की तरह हैं,
    क्या है तिनका, क्या समन्दर की लहर, देख रहा हूँ।



    तसव्वुर-कल्पना, सहर-ब्रह्रम मुर्हूत, फिजां or फजां-वातावरण, दुश्वारियाँ-मुश्किलें


    इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
    नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।

    बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

    अजनबी - 2

    नहीं ये मेरा शिकवा नहीं है
    नहीं ये मेरा गिला नहीं है
    दरअसल अपने में ही
    अजनबीयत के सिवा
    मुझे कुछ मिला नहीं है।

    मैं एक तिनके सा
    नदी की धार में बह रहा हूँ
    नदी से
    खुद से ही
    अजनबी

    मैंने लोगों से सुना है
    आदमीयत की पैदाइश से ही
    हमेशा ऐसा ही रहा है
    कि कुछ भला है
    कुछ बुरा है

    ये सबसे आसान बात है
    कि किसी चीज को
    दो टुकड़ों में काट दो
    हमारी नजर
    दो आंखों
    दो टुकड़ों में बंटी है
    सबसे सुविधाजनक है
    हर चीज दो टुकड़ों में बांट दो
    और अनुप्रस्थ काट में ढूंढते रहो
    उस चीज की पहचान

    पर आसान तरकीबें
    मुश्किल सवालों का हल नहीं होती
    न इसका कि
    मैं खुद से अजनबी क्यों हूँ