मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

हरदम खुद को खो देता हूँ।

बीते बचपन की यादों में,
मैं ख्वाबों में रो देता हूँ।

मेरे सपने किसी ने पढ़े नहीं,
बस लिखता हूं, धो देता हूँ।

जाने क्या पाना चाहता हूँ,?
हरदम खुद को खो देता हूँ।

उनके ख्वाबों के इंतजार में,
मैं भी इक पहर सो लेता हूँ।

चाहता हूं आम ही लगें मगर,
फिर क्यों बबूल बो लेता हूँ?

मैं मौत की राह तकते-तकते,
सारी जिन्दगी ढो लेता हूँ।

मेरी चाल में कोई खराबी है,
हर मंजिल को खो देता हूँ।

7 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

अच्‍छी रचना है !!

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया रचना है।बधाई।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अच्छी रचना है ... अक्सर ऐसा होता है ......... इंसान अपने आपको ही नहीं ढूंढ पाता ......

ओम आर्य ने कहा…

एक सुर और ताल से भरी कविता!

vandana gupta ने कहा…

waah .........bahut badhiya likha........khud ko hi to khota rahta hai insaan ........khud ko gar paa le to phir vishram na pa jaye.

Mishra Pankaj ने कहा…

जाने क्या पाना चाहता हूँ,?
हरदम खुद को खो देता हूँ।

उनके ख्वाबों के इंतजार में,
मैं भी इक पहर सो लेता हूँ।

बहुत खूब आभार आपका

daanish ने कहा…

jaane kayaa paana chaahta hooN
hardam khud ko kho detaa hooN

mn ki gehraaee se nikli huee
achhee rachnaa ke liye badhaaee

---MUFLIS---

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