Saturday 3 October 2009

मुझको पता था एक दिन



मुझको पता था एक दिन, मुझसे जुदा हो जायेगा,
तू पंछी था परदेस का, कभी लौट के भी जायेगा।

हर दिन तेरा आगोश था, शाम ओ शब मेरे मदहोश थे,
मालूम था मौसम कभी वो लौट के न आयेगा।

मुझको पता था हर घड़ी, तेरा साथ था आदत बुरी,
मुझको पता था एक दिन तू ‘अजनबी‘ हो जायेगा।

अब बातें करता है तेरी मुझसे जमाना ताने दे,
मैं रंजीदा1 हूं सोचकर, तू कभी नहीं मिल पायेगा

मरते थे जिस पर टूटकर, वो छूटकर फिर न मिला
दिल है बेबस, ये बेचारा, किससे क्या कह पायेगा?


1 रंजीदा - दुखी


इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।

5 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना
ढेर सारी शुभकामनायें.

SANJAY BHASKAR
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

हरकीरत ' हीर' said...

लाजवाब......!!

हर शे'र एक से बढ़ कर एक .....बहुत खूब .....!!

रंजू भाटिया said...

मुझे पता था एक दिन तू अजनबी हो जायेगा ..बहुत खूब ..अच्छा लगा आपका यह ब्लॉग .लिखते रहे

Unknown said...

wah bahut badiya
bichudna to tay hai magar milte samay eska khyal kabhi nahi aata
agar ye bhav sthayi rehe to anmol honge sambhandh anmol hogi humari duniya ...wah

अपूर्व said...

क्या बात है भाई.बहुत उम्दा..
अब बातें करता है तेरी मुझसे जमाना ताने दे,
मैं रंजीदा1 हूं सोचकर, तू कभी नहीं मिल पायेगा
.यानी डबल अत्याचार ;-)
एक अनूठी अभिव्यक्ति

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