उम्र शब्द आते ही लगता है कि कोई कमउम्र या हमउम्र, हमसे असली उम्र का सवाल ही न कर बैठे। आजकल प्रचलित है कि महिलाओं से उम्र और पुरूषों से सेलरी नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि हमारे समाज के किसी महिला और पुरूष संबंधी यही प्राथमिक मापदंड हैं। यानि समाज भी और स्वयं स्त्री भी स्वीकार कर रही है कि प्रथमदृष्टया कोई स्त्री देह (16 वर्षीय या कम या ज्यादा) के अलावा कुछ नहीं और पुरूष पैसे कमाने वाली मशीन है।
समय के मार्ग पर कोई कितना चला है यही उसकी उम्र होती है। देह समय के साथ ढलती है और दिमाग में अनुभव इकट्ठा होते हैं। देह और दिमाग की उम्र की चाल अलग-अलग होती है। सामान्य लोगों का शरीर, दिमाग से ज्यादा तेजी से बढ़ता, फैलता है। कुछ लोगों के दिमाग जल्दी विकसित होते हैं बनिस्बत देह के। देह की उम्र से आदमी के दिमाग की उम्र का अंदाजा लगाना ठीक नहीं। आपने भी देखा होगा कुछ बच्चे ज्यादा समझदार लगते हैं।
आदमी की उम्र को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जाता है, बच्चा, जवान और बूढ़ा। किशोर, प्रौढ़ इनके मध्य की स्पष्टीकरण अवस्थाएं हैं। हर उम्र की अपनी अपेक्षाएं, इच्छाए और विवशताएं होती हैं। ‘‘जनरेशन गेप’’ इन्हीं अपेक्षाओं, इच्छाओं और विवशताओं से उपजता है।
सामान्यतः लोग अपनी उम्र के अनुसार आचरण को ठीक मानते हैं। जैसे एक बच्चा बचकानी हरकतें, एक जवान गलतियां करें या एक बूढ़ा चिढ़चिढ़ाये ये असामान्य नहीं माना जाता। इसके विपरीत यदि कोई बच्चा बूढ़ों सा गंभीर, एक वीतरागी युवा और एक दिलफेंक बूढ़ा दिखे तो सामाजिक लोग इसे अच्छा नहीं समझते। जबकि किसी भी उम्र में कोई व्यक्ति कैसा होगा यह ढर्रा बनाया जाना ही सामाजिक दुराग्रह है। खैर समाज ढर्रे बनाता है और आयु के इन ढर्रों के पार गये संबंधों को चटखारे लगाकर सुनता-सुनाता और कमरे बंद कर नेट, डीवीडी डिस्प्लेयर्स पर देखता है।
पुरूष और महिला के उम्र संबंधी अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं। महिलाओं की आयु को नापने का पैमाना सामान्य से हटकर होता है। 16 वर्ष तक तो उनकी उम्र वर्षों के हिसाब से ही नापी जाती है पर 16 के बाद यह स्थिर हो जाती है। पुरूषों की चाहिए कि किसी महिला की इसके बाद के वर्षों की उम्र को उदाहरणतः 21 वर्ष को 16+5 आदि कहकर दर्शांए। इससे महिलाओं का षोड्षपने से जुड़ाव भी नहीं टूटता और जो बात आगे बढ़ चुकी है वह भी स्पष्ट हो जाती है। पुरूषों को किसी महिला संबंधी कल्पना में भी यह गणित अच्छा सहायक हो सकता है।
हमें यह तो पता है कि वैज्ञानिकों ने मनुष्य की दिमागी उम्र नापने के मानदण्ड विकसित कर लिये हैं पर यह ज्ञात नहीं कि इन मानदण्डों का व्यावहारिक इस्तेमाल कहाँ किया जा रहा है। कल्पना करें कि वह कितना बेहतर कर्मस्थल होगा जहां पर दिमागी उम्र से समान पर शारीरिक आयु से असमान बच्चे, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध सभी एक ही जगह, एक ही मंच पर आयुभेद के दुराग्रहों से रहित होकर सक्रिय रूप से कार्य सम्पन्न करें। इससे निश्चित तौर पर जनरेशन गेप गायब होगा.. बच्चों और युवाओं, युवाओं और बूढ़ों के बीच समझ बनेगी और वृद्धावस्था में अलगाव और अकेलेपन की बीमारी से भी बचा जा सकेगा।
वैसे देखा जाये तो इन्टरनेट पर यह अप्रत्यक्ष रूप से हो ही रहा है। लेकिन ये अप्रत्यक्ष होना बड़ी ही मायावी अवस्था है। प्रोफाईल फोटो में 16 बरस की बाली उम्र को सलाम किया जा रहा होता है और असलियत ये होती है कि रिटायरमेंट के बाद के अपने बेदर्द फुसर्तियापन को अपनी किशोरावस्था के जज्बातों के इजहार द्वारा काटा जा रहा होता है। लड़कों द्वारा लड़की बनकर लड़की से दोस्ती और एक सुन्दर लड़की की फोटो लगी प्रोफाइल में हजारो की संख्या में मित्रों और स्क्रेप या कमेंट्स आम बात है।
इंटरनेट जैसे प्रभावी माध्यम का उपयोग देशी-विदेशी, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, लिंग, आयु, समाज-साम्य-पूंजी जैसे वादों को बढ़ावा देने में हो रहा है। जबकि इंटरनेट पर अप्रत्यक्ष रहकर आयु, लिंग, वर्ग, जाति, धर्म, वाद आदि सभी प्रकार के भेदों का उन्मूलन आसानी से किया जा सकता है। इसके लिए ”वसुधैव कुटुम्बकम“ की समझ होना अपरिहार्य है।
जैसे महिलाओ की उम्र उनकी कमर से जुड़ी है वैसे ही पुरूष की उम्र उनके गंज के परिवेश से। दिमागी मामलों में पुरूषों द्वारा सफलता या किसी बुद्धिमानी की तारीफ होने पर ”बाल धूप में ही सफेद नहीं किये“ .... 60 होने पर भी स्वस्थ और हष्टपुष्ट होने पर ”साठे में पाठा“ .... और अधिक उम्र में भी बचकानी बातों में संलग्न होने पर ”बंदर बूढ़ा हो जाये पर कुलाटी मारना नहीं छोड़ता“ जैसे कहावतों मुहावरों का आश्रय लिया जाता है। ”जो जाके न आये वो जवानी देखी, जो आ के न जाये वो बुढ़ापा देखा“ उम्रों के सत्य को कहने वाली बड़ी ही कीमती कहावत है।
सत्य सनातन होता है, उसका उम्रों से कोई लेना देना नहीं होता। कई महान चरित्र इसी बात का जीता जागता उदाहरण हैं। आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद आदि जैसे कई महापुरूष कम उम्र में ही अपने सारे महान कर्म सम्पन्न कर देह से निवृत्त हो गये। इसलिए धार्मिक उत्कर्षों, सनातन मूल्यों और सिद्धानों के पालन में हमें उम्र का तकाजा नहीं करना चाहिए।
ये उम्रों का अंदाज था
कुछ पहले, तो कुछ बाद था
ये उम्र था या रूह था
सांसों के नद के बहाव को देखता हुआ
प्रवासी पक्षियों का वह समूह था
जो सागरों, पर्वतों, शहरों और देशों की हदों से परे
अपनी पूरी जिन्दगी में
दो-चार सफर करता है।
ये उम्रों का अंदाज था
कुछ... बंध गया था मौत में
कुछ... सारी जिन्दगी आजाद था।
1 टिप्पणी:
उम्र का कोई अंदाज नहीं होता |बच्चा भी बड़ों के समान व्यहार कर सकता है और बड़ा भी बच्चा बन सकता है | लेख बहुत अच्छा लगा |बधाई
आशा
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