Saturday 22 May 2010

आवाज दूं समन्दर को



अर्थों के किनारों तक
नहीं पहुंचती बहुत सी लहरें।

आंखों की गलियों के
बादल, बारिश से ये रिश्ते थे
उन बूंदों के नाम नहीं थे
इन्हें आंसू कहा,
जो कभी झरते थे,
कभी रिस्ते थे।

क्या कहते हैं उस अन्तर को?
सीने में फैली बाढ़
बहुत सी दीवारें तोड़ती है
मोड़ती है मेरा बर्हिमुखीपन
अन्दर को।
मचल सा जाता हूं कि दोस्ती करूं
आवाज दूं समन्दर को।

14 comments:

दिलीप said...

waah bahut khoob sir

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

खूबसूरत शब्दों से संजोयी खूबसूरत रचना.... खूबसूरती से दिल में उतर गई....

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है....बधाई स्वीकारें।

Unknown said...

मुबारक हो,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

बहुत उम्दा रचना !

Unknown said...

अन्तर्मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देती सुन्दर कविता..........

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह चर्चामंच पर ली गयी है.....

http://charchamanch.blogspot.com/2010/05/163.html

रश्मि प्रभा... said...

pukarte hain samandar ko
karte hain dosti uski lahron se
arthon ke kinare tak apni naaw badhate hue chalte rahen

Rajeysha said...

सभी सम्‍मानीयों का हार्दि‍क धन्‍यवाद।

M VERMA said...

सीने की बाढ़ को दीवारों से टकराते सुनना और उसे बयाँ करना, वाह आपका अलग सा अन्दाज

अनामिका की सदायें ...... said...

सीने में फैली बाढ़
बहुत सी दीवारें तोड़ती है
मोड़ती है मेरा बर्हिमुखीपन
अन्दर को।

bahut bahut sunder panktiya...asardaar shabdo ka prayog.

shukriya mere blog par aane k liye.

दिगम्बर नासवा said...

समुंदर को तो वैसे भी शब्दों में नही बाँधा जाता ...
गहरी बात कह दी है आपने यहाँ ...

Apanatva said...

bahut sunder rachana...
badhai.......

कविता रावत said...

मचल सा जाता हूं कि दोस्ती करूं
आवाज दूं समन्दर को।
....samundar se gahre bhav..
saarthak rachna....
Haardik shubhkamnayne

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