मंगलवार, 11 मई 2010

रोने गाने की आवाजें भी, कानूनों में ढलवाओगे ?




गहरी-गहरी बातें करना, शगल बड़ा बेरूखा है
पिछले पहर के सन्नाटों में, खुद को तन्हा पाओगे

जख्मी यादें, मीठी छुरियां और रिश्ते अनजाने सब
ढली जवानी के सायों में, तुम भी गुम हो जाओगे

रात अंधेरी, हाथ ना सूझे, लोग नींद में चलते हैं
किससे-किससे बच के चलोगे, कदम-कदम टकराओगे


गहरी सुरंगें, अनगिन रस्ते, सब पर मुर्दे बिखरे हैं
अपनी आसों की सांसों को, कब तक जिन्दा रख पाओगे

शेर गजल नजमों के कायदे, सि‍खलाये क्‍यों कोई हमें
रोने गाने की आवाजें भी, कानूनों में ढलवाओगे ?

1 टिप्पणी:

kunwarji's ने कहा…

एक घुटन जो अन्दर है वो शायद ऐसी ही बातो की है!किसी से कह नहीं पाते,घुटते रहते है अन्दर ही अन्दर!अंतर की भावनाओं को बखूबी शब्दों से प्रस्तुत किया आपने!एक रोष जो है वो दिखाना भी चाहिए एक स्तर तक!बहुत बढ़िया जी!

कुंवर जी,

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