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गुरुवार, 19 अगस्त 2010

हाँ मुझे मोहब्बत है उनसे... पर...

ए मेरी उदासी, ए मेरी बदहवासी
ऐ मेरे दिल की कसक, ऐ मेरी रूह प्यासी
ना उभरो चेहरे पे बेताबियों के नक्शो
हाँ मुझे मोहब्बत है उनसे... पर मुझको बख्शो

ए मेरी आंखों में उतरे पानी,
ए बेजा बरसों गुजरी नादां जवानी
ए मेरे नजरों में बसे, बंजर नजारों
हाँ मुझे मोहब्बत है उनसे... पर मुझको बख्शो

ऐ बदनामियों की हवा, ऐ जुल्मों की घटा
ऐ लानतों की नमी, ऐ जमाने की सजा
ऐ मेरे सीने की घुटन, ख्यालों की टूटन
हाँ मुझे मोहब्बत है उनसे... पर मुझको बख्शो

ऐ मेरी तन्हाई, तेरा फर्द चेहरा
ऐ मेरे शैदाईपन तेरा ताब गहरा
ऐ मेरे ख्वाबों की कालिख, नींदों की दहशत
हाँ मुझे मोहब्बत है उनसे... पर मुझको बख्शो



ha mujhe mohabbat hai unse... par mujhko bak-sho
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ae meri udaasi, ae meri bad-hawasi
ae mere dil ki kasak ae meri rooh pyaasi
naa ubhro chehre pe be-taabi-yo ke nak-sho
ha mujhe mohabbat hai unse... par mujhko bak-sho

ae meri aankhon me utre paani
ae beja barson gujri naadan jawaani
ae meri najro me basae banjar najaaro
ha mujhe mohabbat hai unse... par mujhko bak-sho

ae badnami-yo ki hawa, ae julmo ki ghata
ae laanto'n ki nami ae jamaane ki saza
ae mere sinay ki ghutan, khayalo'n ki tootan
ha~ mujhe mohabbat hai unse... par mujhko bak-sho

ae meri tanhai, tera fard chehra
ae mere shedai~pan, tera taab gahra
ae mere khwabo ki kalikh, neendo ki dahshat
ha~ mujhe mohabbat hai unse... par mujhko bak-sho


सोमवार, 7 जून 2010

अब कोई नहीं लौटेगा वहां


कहीं मिलते कभी, कुछ कही, कुछ सुनी होती
कभी दीवानों की कोई याद ही बुनी होती
यूं तो सबने ही चले जाना है
इस दुनियां से किसी अजनबी सा
किसी के ख्यालों की कोई राह ही चुनी होती

तुम तो बेगाने रहे, बेगाना ही हमको जाना
ना कभी शिकवा किया, ना कभी मारा ताना
ख्वामखा ख्यालों में जवानी का मौसम गुजरा
कुछ एक पल के धागे, हमको भी दिये होते
सासें भी ली हैं, आहें भी जी हैं और हर पल मरें हैं
कि उम्रें गुजरीं, हम भी कभी जिए होते

अफसोस ज्यादा है उस गम से, जो मिला ही नहीं
हमको गिला यही कि, तुमसे कोई गिला ही नहीं
कोई वादा नहीं किया, कोई रिश्ता नहीं बना
ना मुड़के देखा तुमने, कारवां तन्हाईयों का
हम ही अन्जान रातों में उस चांद से बातें करते हैं
उस चांद का जो अपना कभी रहा ही नहीं

उस चांद का तो पता नहीं, किस आसमान में खो गया है
बस काले दिन हैं, और जलन भरी राते हैं
चांदनी डसती है, दीवानाघर की दीवारें तरसती हैं
कि कभी तो आयेगा हकीकत-सा, कोई मिलने वाला
वैसे साये सा नहीं, जो खुद ही कोई बुन लेता है।

मंगलवार, 1 जून 2010

ये ख्याल कब तक


इस सफर से,
मेरी मर्जी ना पूछ।
हवाओं से मजबूर तिनकों की,
क्या कोई मर्जी होती है?

जो भी अपना है,
बस उतना ही अपना है,
जितनी की मेरी गलतफहमी।

पता नहीं वक्त क्या होता है,
मंजिल क्या होती है।
ये ख्याल कब तक पलता है,
ये जिस्म कहां ढलता है।