झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?
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राजेशा
पता नहीं क्यों लोग
किस लिए जिन्दा रहना चाहते हैं
हमेशा के लिए
पता नहीं लोग
किस उम्मीद में जिये जाते हैं
बरसों-बरस नौकरी, बीवी, बच्चे
ढेरों रिश्ते। ..........
जिनकी चुगलियां
अक्सर वो अपने
बहुत करीबी रिश्तों से करते हैं
जो नितान्त-जिस्मानी-रूहानी-करीबी रिश्ते
मौत के वक्त किसी काम नहीं आते।
पता नहीं लोग
क्या सोचकर अमर होना चाहते हैं
नौकरी करने के लिए?
बीवी बच्चे पालने के लिए?
ब्लागिन्ग करने के लिए?
और तो और
झोपड़पट्टियों की नालियों
और सफेद कालरों की सजी मैल में
पले रहे कीटाणु भी
हर सुबह दिये और अगरबत्तियां जलाते हैं
पता नहीं
किसी चीज का शुक्रिया अदा करने के लिए
या किस डर से
क्या और भी कुछ निकृष्टतम होता है
कीच में जिन्दा रहने से।
कितनी अफसोसजनक है ये बात कि
बेहद नाकुछ लोग
जो इस बात का जश्न मना सकते हैं,
अफसोस जाहिर करते हैं ...
कि हाय! वो ‘‘कुछ’’ नहीं है।
2 टिप्पणियां:
bahut sashaky rachana..........
Aabhar
यह संकलन जोरदार रहा.
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