Wednesday 12 May 2010

दिल्लगी की मुश्किल


मुझको ये ईनाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से
‘‘दीवाना इक’’ नाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से

डूबा, ये गम लेकर दिल में, कोई किनारा नहीं रहा
सारा नजारा देखा उसने, चुपचाप खड़े हो साहिल से

जिस पर की कुर्बान जान, भूला वही अनजान जान
हँस हँस के बातें करता है, महफिल में वो कातिल से

गली-गली में दिल को लगाया, शहर-शहर में धोखा खाया
अब क्यों नजरें किसी से मिलायें, मिली हैं नजरें मंजिल से

किस से, किसका शिकवा करते, अजनबी वो हमारा नहीं रहा
अब दिल की धड़कन डरती है, हर दिल्लगी की मुश्किल से

8 comments:

Apanatva said...

किस से, किसका शिकवा करते, अजनबी वो हमारा नहीं रहा
अब दिल की धड़कन डरती है, हर दिल्लगी की मुश्किल से

nice.

Apanatva said...

किस से, किसका शिकवा करते, अजनबी वो हमारा नहीं रहा
अब दिल की धड़कन डरती है, हर दिल्लगी की मुश्किल से

nice.

दिलीप said...

waah bahut achcha prayaas...

रश्मि प्रभा... said...

गली-गली में दिल को लगाया, शहर-शहर में धोखा खाया
अब क्यों नजरें किसी से मिलायें, मिली हैं नजरें मंजिल से
manzil ko bas paa lena hai ab

दिगम्बर नासवा said...

मुझको ये ईनाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से
‘‘दीवाना इक’’ नाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से
Bahut khoob ... unki mahfil se mila naam bhi kabool hai ...

Rohit Singh said...

भई अब तो वो हमें अजनबी ही समझेंगे . उन्हें क्या लेना देना हमारी हालत से..हमने भले कांटे चुन लिए थे, राह से उनकी, पर वो कांटे तो शायद हमारे ही भाग्य में थे लिखे..या उन्होंने कांटे हमारे दामन में डाल दिए क्या पता क्या था..

किस से, किसका शिकवा करते, अजनबी वो हमारा नहीं रहा....
अब शिकवा करके फायदा भी क्या, खुद से ही अब शिकवा कर सकते हैं. अपुने भाग्य से भी कितना शिकवा करें...

अच्छी कविता लिखी है आपने शब्द तो जैसे दिल पर वार कर गये....क्या बिरादर गुजरा कल लाकर खड़ा कर दिया आंखों के सामने..क्या मिला त़ड़पा के हमें..

kunwarji's said...

जिस पर की कुर्बान जान, भूला वही अनजान जान
हँस हँस के बातें करता है, महफिल में वो कातिल से
waah!

kunwar ji,

Himanshu Mohan said...

कामयाब बयान।

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