शनिवार, 22 मई 2010

आवाज दूं समन्दर को



अर्थों के किनारों तक
नहीं पहुंचती बहुत सी लहरें।

आंखों की गलियों के
बादल, बारिश से ये रिश्ते थे
उन बूंदों के नाम नहीं थे
इन्हें आंसू कहा,
जो कभी झरते थे,
कभी रिस्ते थे।

क्या कहते हैं उस अन्तर को?
सीने में फैली बाढ़
बहुत सी दीवारें तोड़ती है
मोड़ती है मेरा बर्हिमुखीपन
अन्दर को।
मचल सा जाता हूं कि दोस्ती करूं
आवाज दूं समन्दर को।

13 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

waah bahut khoob sir

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

खूबसूरत शब्दों से संजोयी खूबसूरत रचना.... खूबसूरती से दिल में उतर गई....

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है....बधाई स्वीकारें।

Unknown ने कहा…

मुबारक हो,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

बहुत उम्दा रचना !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यह चर्चामंच पर ली गयी है.....

http://charchamanch.blogspot.com/2010/05/163.html

रश्मि प्रभा... ने कहा…

pukarte hain samandar ko
karte hain dosti uski lahron se
arthon ke kinare tak apni naaw badhate hue chalte rahen

Rajeysha ने कहा…

सभी सम्‍मानीयों का हार्दि‍क धन्‍यवाद।

M VERMA ने कहा…

सीने की बाढ़ को दीवारों से टकराते सुनना और उसे बयाँ करना, वाह आपका अलग सा अन्दाज

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

सीने में फैली बाढ़
बहुत सी दीवारें तोड़ती है
मोड़ती है मेरा बर्हिमुखीपन
अन्दर को।

bahut bahut sunder panktiya...asardaar shabdo ka prayog.

shukriya mere blog par aane k liye.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समुंदर को तो वैसे भी शब्दों में नही बाँधा जाता ...
गहरी बात कह दी है आपने यहाँ ...

Apanatva ने कहा…

bahut sunder rachana...
badhai.......

कविता रावत ने कहा…

मचल सा जाता हूं कि दोस्ती करूं
आवाज दूं समन्दर को।
....samundar se gahre bhav..
saarthak rachna....
Haardik shubhkamnayne

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