मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

सब चलता रहता है


मि‍त्र संतोष श्रीवास नहीं रहा


कोई रहे न रहे
सांसों के संजाल में

कोई रहे न रहे
स्मृतियों की परिधि में
क्षणिक हंसी मुस्कानों की अवधि में
ऐसा जाये कि
अब कभी लौट के न आये
समय की नदी में

स्मृतियों में कथा बन
निवर्तमान-सी व्यथा बन
पलता रहता है

जो जिया संग
अब अतीत हुआ है
बीत गया है
क्या रह गया है मेरे दिल में
छल सा
भरता है सांसों में निर्बलता
इन्द्रियों के अनुभवों के उत्सवों को झुठाता
बन आकुलता रहता है

कोई रहे न रहे
दृष्टि की सृष्टि में
अश्रुओं की वृष्टि में
ह्रदय में
सतत तरलता रहता है

कोई रहे न रहे
सांसों के संजाल में

सब चलता रहता है

1 टिप्पणी:

vandana gupta ने कहा…

bahut hi gahan aur umda rachna.

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