Thursday 8 October 2009

तुझसे मि‍लने का असर

तुझसे मिलने का जो अंजाम असर देख रहा हूँ।
तुझे हर साँस, सुबह- शाम ओ‘ सहर, देख रहा हूँ।

खूब गुजरी थी मेरी रात, तेरे तसव्वुर की फिजां में,
फिर हुआ जो मेरा अंजाम-ए-सहर, देख रहा हूँ।

तू मुझसे मेरे माजी के दुख दुश्वारियां न पूछ,
हर कदम तय किया जो दर्द-ए-सफर, देख रहा हूँ।

तू मुझे खूब मिला ऐ सादा-हुस्न, ऐ सीरत-ए-जहीन,
तेरी सूरत में, किसी दुआ का अमल, देख रहा हूँ।

मैंने देखी हैं शहर की काली रातें, सुनसान दोपहरें,
बेवजह दहशत ओ डर से दूर कहीं घर, देख रहा हूँ।

खुदा है एक जिसके जलवे दिखते हैं दो जहां में,
काम हो कोई नेक, इक उसकी मेहर, देख रहा हूँ।

है फानी दुनियां, उम्रें लकीर-ए-पानी की तरह हैं,
क्या है तिनका, क्या समन्दर की लहर, देख रहा हूँ।



तसव्वुर-कल्पना, सहर-ब्रह्रम मुर्हूत, फिजां or फजां-वातावरण, दुश्वारियाँ-मुश्किलें


इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।

14 comments:

Mishra Pankaj said...

sundar!!!

अजय कुमार said...

बहुत खूब

सदा said...

काम हो कोई नेक, इक उसकी मेहर, देख रहा हूं
हर शब्‍द बहुत गहराई लिये हुये, बेहतरीन प्रस्‍तुति, बधाई ।

Mumukshh Ki Rachanain said...

बहुत गहराई
बेहतरीन प्रस्‍तुति
बधाई
chandra mohan gupta
jaipur
www.cmgupta.blogspot.com

रश्मि प्रभा... said...

खुदा है एक जिसके जलवे दिखते हैं दो जहां में,
काम हो कोई नेक, इक उसकी मेहर, देख रहा हूँ।
......bahut hi badhiyaa

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया !!

Rajeysha said...

सभी आदरणीय टि‍प्‍पणीकारों को बहुत-बहुत धन्‍यवाद। भला हो यदि‍ यदि‍ लि‍खने में हुई कि‍सी कमी-पेशी से अवगत करायें।

हरकीरत ' हीर' said...

मैंने देखी हैं शहर की कलि रातें सुनसान दोपहरें
बेवजह दहशत ओ डर से दूर कहीं घर देख रहा हूँ .....

बहुत खूब .....!!

Udan Tashtari said...

अजी, डूब गये गज़ल पढ़्ते पढ़्ते. कमी बेसी कुछ दिखे तो बतायें..अभी तो बस वाह!! निकलती है. बहुत खूब!!

अजित वडनेरकर said...

उम्दा ग़ज़ल।
एक अनुरोध।
मास्टहैड में जो अज़नबी लिखा है उसे अजनबी कर लें। इसमें नुक्ता नहीं लगता।
यूं भी आप हिन्दी लिख रहे हैं न कि उर्दू। हिन्दी में नुक्तों का काम नहीं है।

अपूर्व said...

है फ़ानी दुनिया, उम्रें लकीर-ए-पानी की तरह हैं

क्या बात है इतनी लम्बी बात एक पंक्ति मे कह डाली..अच्छी ग़ज़ल की बधाई स्वीकारें.

Designer said...

bahut khub bhaiya kiya likha hai wah!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उम्दा!!

Mumukshh Ki Rachanain said...

उम्दा ग़ज़ल
बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

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