Wednesday 25 November 2009

तुम हमारे अजनबी, हम तुम्हारे अजनबी

हमने देखे सच के इशारे अजनबी
अपनी ही आंखों के नजारे अजनबी

अपनों की गुजारिशें और राम का भाग्य
सोने के हिरन थे सारे अजनबी

मुश्किल हालात, नहीं बस में बात
शहर अपना है लोग सारे अजनबी

अजनबीयत का रिश्ता अजीब देखा
तुम हमारे अजनबी, हम तुम्हारे अजनबी

अमावस रातों में जिन्दगी का सफर
चांद अजनबी सितारे अजनबी

जिन्दगी ने धीरे - धीरे से सिखलाया
फूल, खुश्बू, रंग, सनम सारे अजनबी


...................................................................................................................................

जीवन की गहराई में


प्रेम क्या है? डेविड लयूक कहते हैं ‘‘अनन्त प्रेम ही सत्य है, शेष तो प्रेम के नाम पर भ्रम ही है’’ हालांकि वैज्ञानिकों द्वारा चिकित्सा अध्ययनों में हमारे जीन्स को आधार मानकर प्रेम की व्याख्याएं करने की कोशिश की गई है। मूलतः उन्होंने पाया है कि हम उस व्यक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं जो आनुवांशिक तौर पर बीमारियों और अन्य कमजोरियों में हमारे ही समान होता है।

हालांकि हमारा प्राचीन ज्ञान हमें एक दूसरे ही दृष्टिकोण से शिक्षित करता है। प्राचीन ज्ञान और पुरानी पवित्र माने जाने वाली अध्ययन सामग्रियों में यह विश्वास व्यक्त किया गया है कि हमारा शरीर (व्यक्तिगत आत्म या स्व) अपने चारों ओर चार ऊर्जाओं (चार या अहं) से मिलकर बना है।

यह चार प्रकार की ऊर्जाएं हैं: 1. भौतिक ऊर्जा अपनी आवश्यकताओं सहित 2. संवेदी अपनी इच्छाओं सहित 3. भावना अपने अहसासों सहित और बौद्धिक ऊर्जा अपनी संकल्पनाओं सहित। हमारे आत्म के उच्च स्व या आत्म तक पहुंचने के लिए ये ऊजाएं संतुलित होनी चाहिए। चूंकि इस बिखरे विक्षेपित संसार में यह बहुत ही कठिन कार्य है इसलिए हम अक्सर किसी उस व्यक्ति (जीवन साथी) की तलाश में रहते हैं जो (जैसे जीन्स का आदान प्रदान होकर संकर जीन्स बनते हैं वैसे ही हमारी और अगले व्यक्ति की अधूरी और रिक्त ऊर्जांए मिलकर) हमें उच्च आत्म स्तर अस्तित्व तक ले जा सके।

प्राच्य विद्याओं की मान्यता थी कि हम आत्मा सहित पैदा नहीं होते, बस आध्यात्मिकता के बीज सहित पैदा होते हैं और इस जन्म लेने का ध्येय आत्मा की खोज होता है अथवा अपनी उच्च आत्मावस्था की खोज। क्या ये वैसी ही कोशिश नहीं होता जैसी कि हम लोहे की धातु को सोना बनाना चाहें।

मुझे यह संकल्पना एकबारगी सही लगी कि वाकई जिन इंसानों को हम अपने आस पास चलते-फिरते देख रहे हैं उनमें से अधिकतर की आत्माएं तो पक्के तौर पर नहीं हैं। फिर बहुतेरे तो ऐसे शरीर हैं जो केवल भौतिक ही हैं, या भावानात्मक ही हैं, या संवेदी ही हैं या फिर केवल बौद्धिक ही हैं। यानि इस संकल्पना के अनुसार तो हम सब लूले लंगड़े और पंगु ही हैं, किसी में किसी अंग तो किसी अन्य में दूसरे अंग का अभाव है, संतुलन नाम की चीज दुर्लभ ही दिखाई देती है।

वैसे ये संकल्पना हमारी उस ‘‘कला’’वादी संकल्पना के काफी निकट है जिसमें ये ख्याल था कि आदमी में कलाएं होती हैं। जितनी कलाएं होंगी वो उतना ही ऐश्वर्यशाली या ईश्वर होगा जैसे राम में कलाएं कम थी और कृष्ण में अधिक, और ऐसे ही अन्य ऐतिहासिक चरित्रों में न्यूनाधिक मात्रा में कलाएं थीं।

झूठ के इशारे
झूठ को सामान्यतः इन संकेतों से पहचाना सकता है: अचानक ही मुंह से ‘उं’, ‘आं’ ‘आ’ की आवाजें सामान्य से अधिक बार निकलना, अपने आप ही बचाव की मुद्राएं बनना, नजरें चुराना, नजर ना मिला पाना, तनाव पूर्ण होना, झूठा व्यक्ति अंदर से तो कड़वेपन का अहसास कर रहा होता है पर ऊपर ही ऊपर मुस्कान बिखेरता नजर आता है। वह अपने शरीर को आपसे दूर दूर सा करता है,वह आपसे टलने की कोशिश करता है। उसके शारीरिक हाव भाव असामान्य होते हैं और उसके हाथ मुंह को ढांकने के लिए बार-बार ऊपर को उठते हैं। झूठ बोलने वाले व्यक्ति की धड़कने अनियमित होती हैं।
वैसे आप यह सब जानने के बाद कितनी ही निपुणता से झूठ बोलिये, अंततः ‘‘सत्यमेव जयते’’ ही होता है, नहीं ?


रोचक तथ्य:

  • शुतरमुर्ग की आंखें उसके दिमाग से बढ़ी होती हैं। इससे साबित होता है कि कोई आंखे तरेरे तो उससे डरने की कतई जरूरत नहीं।
  • कछुआ अपने गुदाद्वार से भी सांस ले सकता है।
  • अंगे्रजी में जी ओ ’’गो’’ सबसे सरल और सम्पूर्ण वाक्य है।
  • प्रसिद्ध ‘‘बारबी डॉल’’ का पूरा नाम बारबरा मिलिसेंट राबर्ट्स है।
  • हमारी आंखें जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त एक सी रहती हैं, पर नाक और कान आजीवन बढ़ते रहते हैं।
  • एक घोंघा तीन वर्ष तक सो सकता है।
  • स्त्रियाँ पुरूषों से दुगुनी बार पलके झपकतीं हैं। वैसे ज्यादा पलके झपकने वाले पुरूषों के बारे में यह विश्वास होता है कि वो झूठे और चालबाज हैं।
  • दो अरब लोगों में से एक व्यक्ति ही 116 साल या अधिक की आयु जी पाता है।
  • औसतन प्रतिवर्ष 100 लोग बॉल प्वाइंट पेन मुंह में लेते-लेते, अचानक गले में चले जाने और दम घुट जाने के कारण मर जाते हैं।
  • किसी भी बतक्ख के मुंह से निकली आवाज ‘‘क्वेक क्वेक’’ कभी भी गूंजती नहीं, कोई भी नहीं जानता ऐसा क्यों होता है।

    5 comments:

    अजय कुमार said...

    मुश्किल हालात, नहीं बस में बात
    शहर अपना है लोग सारे अजनबी
    सुन्दर लाईनें और रोचक तथ्य तो निराला है

    रश्मि प्रभा... said...

    अजनबी........बहुत ही गहरे भाव

    दिगम्बर नासवा said...

    जिन्दगी ने धीरे - धीरे से सिखलाया
    फूल, खुश्बू, रंग, सनम सारे अजनबी....

    अच्छी ग़ज़ल है और सब शेर कमाल के ... ये ख़ास पसंद आया ....
    आपकी प्रेम कि व्याख्या भी पढ़ी ..... मुझे नहीं लगता कोई प्रेम को सही अर्थों में परिभाषित कर सकता है .... झूठ के इशारे रोच्कः है ...... आपने सही शोध किया है ......

    हरकीरत ' हीर' said...

    श्किल हालात, नहीं बस में बात
    शहर अपना है लोग सारे अजनबी

    अजनबीयत का रिश्ता अजीब देखा
    तुम हमारे अजनबी, हम तुम्हारे अजनबी

    बहुत खूब .....अजनबी कुछ जाने पहचाने से लगते हैं आप .....और वो भो ' three -in one '.....!!

    Minoo Bhagia said...

    amavas raaton mein , chaand ajnabi , sitare ajnabi , achha sher hai

    Post a Comment