हम सच को
विभाजनों की खिड़कियों में बैठे हुए,
आंखों पर रंग बिरंगे चश्मे (पूर्वाग्रहों) चढ़ाए
अतीत के अहसासों,
मधुर जहरीली संवेदनाओं की
असंख्य परतों के पीछे से देखते हैं
और फिर शिकायत करते हैं कि
सब धुंधला और विकृत है
हम सच को
प्रतिष्ठित विचारधाराओं
ठोस सिद्धांतों
अतीत, भविष्य की कल्पनाओं में
उच्च मानवीय मूल्यों में
पढ़ते पढ़ाते आए हैं
पर रोज पैदा हो जाती हैं
असंख्य नई समस्याएँ
और हमारे पास
कई करोड़ पुरानियों का ही हल नहीं है।
हम क्यों नहीं समझते
रोज हर क्षण
उगता रहता है अनवरत नया सच।
क्यों हम
केवल आंख ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
आंख के देखे में....
क्यों हम कान ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
कान के सुने में ....
क्यों हम गंध ही नहीं हो जाते
क्यों जोड़ते घटाते हैं
नाक के सूंघे में
क्यों आदत पड़ गई है हमें
पानी जैसी
जिसमें विकृत नजर आता है
सब डूबा हुआ
क्यों चाहते हैं हम रोज़
सब तरफ से सुरक्षित रहें
जिएं बहुत पुरानी और सुविधाजनक सांसें
जिन्हें लेने पर आवाज भी नहीं आए
ऐसा तो कब्रों में होता है न!
6 टिप्पणियां:
क्यों चाहते हैं हम रोज़
सब तरफ से सुरक्षित रहें
जिएं बहुत पुरानी और सुविधाजनक सांसें
जिन्हें लेने पर आवाज भी नहीं आए
ऐसा तो कब्रों में होता है न!
बहुत सुंदर पंक्तियाँ..... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट .....
वाह........यह विचार प्रशंसनीय ही नहीं , विचारणीय भी है
sHASHAKT, BAHUT HI PRABHAAVI LIKHA HAI .... SACH KO SACH KI AANKH SE DEKHNA JAANE KAB SEEKHENGE HUM ...
यह कोंचने वाली कविता है ।
राजे जी
सच को सच की तरह देखा जाए तो कितनी ही समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी . यह तब संभव है जब हम रंगीन चश्में उतार दें .यह अलग बात है कि फिर कुछ अलग तरह की समस्याओं से वास्ता पड़ेगा .
वाह........यह विचार प्रशंसनीय
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