Monday 2 November 2009

कुछ मिला न तुझको चाह कर।

न मन्दिर न दरगाह पर,
कुछ मिला न तुझको चाह कर।

ऐ मेरे जख्मों चुप करो
क्या मिलेगा तुमको आह कर?

अब मुझे भी चैन कैसे आये,
वे तड़पा मुझे मनाह कर।

वो मुझको अजनबी कहता है,
मेरे दिल में गहरे थाह कर।

वो नमाजें कैसे पड़ता है?
किसी मन्दिर को ढाह कर?

चाँद न जाने कहाँ गया,
रात के मुँह को स्याह कर।

इन्सान क्यों उनको कहते हो,
जो जिएं एक दूजे को तबाह कर।

ऐ दिल जल मत तू काबिल बन,
नहीं मिलता कुछ भी डाह कर।

मेरी महबूबा कहाँ खो गई,
जब लाया उसे निकाह कर।

छुरियाँ छुपा के गले लगा,
मेरा दोस्त मुझे आगाह कर।

उस रात से राख सा उड़ता हूँ,
जब लौटा यादें दाह कर।

मेरे मौला कड़ी सजा देना,
जो बचूं मैं कोई गुनाह कर।

जो अनन्त को पाना चाहता है,
तो अपने दिल को अथाह कर।

ऐ खुदा मुझे रंक या शाह कर,
पर सदी ही अपनी पनाह कर।।

6 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन रचना!!

हरकीरत ' हीर' said...

ए मेरे ज़ख्मों चुप करो
क्या मिलेगा तुम्हें आह कर ....!!

सुभानाल्लाह......!!

उस रात से रख सा उड़ता हूँ
जब लौटा यादें डाह कर

बहुत खूब .....राये जी लाजवाब लिखते हैं आप.....!!

vandana gupta said...

bahut hi badhiya..........badhayi.

Science Bloggers Association said...

अपने दिल के जज्बातों को आपने बहुत ही सलीके से बयां किया है। बधाई स्वीकारें।
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हाजिर है एक आसान सी पक्षी पहेली।
भारतीय न्यूक्लिय प्रोग्राम के जनक डा0 भाभा।

shraddha said...

really that's a mind blowing composition and very deep from inside even too gud
thanks
regards
shraddha

नीरज गोस्वामी said...

वो नमाजें कैसे पड़ता है?
किसी मन्दिर को ढाह कर?

बहुत अच्छा सवाल पूछा है आपने...बेहतरीन रचना...
नीरज

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