रविवार, 13 दिसंबर 2009
जिन्दगी बहुत खास थी हर घड़ी
राह की दुश्वारियों से बचकर, लोग रोज मंजिले बदलते रहे।
जिन्दगी बहुत खास थी हर घड़ी, लोग आम होकर जीते रहे मरते रहे।
पर्वतों के शिखर पर कितने सूरज, रोज उगते रहे और ढलते रहे।
यहाँ शहर की स्याह सड़कों पर, लोग छिलकों पे ही फिसलते रहे।
क्या बुरा कर दिया इंसान ही था, उधार की सांसों का मेहमान ही था,
लोग बेवजह नजरों से गिराते रहे, खुद ही फिर उम्र भर संभलते रहे।
उम्मीदें सांसों संग ही जीती रहीं, दिल में अरमान भी मचलते रहे,
मेरी नजरें तो धुंधली हो चली थीं, ख्वाब आंखों में फिर भी पलते रहे।
अजब नशा था मौत का होना, इस घड़ी पाना, उस घड़ी खोना,
फिर क्यों लोग निशानियां बचाते रहे? हो कर मायूस हाथ मलते रहे।
8 टिप्पणियां:
अजब नशा था मौत का होना, इस घड़ी पाना, उस घड़ी खोना,
फिर क्यों लोग निशानियां बचाते रहे? हो कर मायूस हाथ मलते रहे ....
हक़ीकत से जुड़ा शेर .....बहुत ही कमाल का लिखा है ...........
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
बहुत कमाल का और सुंदर लिखा है....
उम्मीदें सांसों संग ही जीती रहीं, दिल में अरमान भी मचलते रहे,
मेरी नजरें तो धुंधली हो चली थीं, ख्वाब आंखों में फिर भी पलते रहे।
waah, khwaab naa ruke to hakikat door nahi
बहुत उम्दा रचना...बधाई.
Bahut khub likha hai.Badhai.
पर्वतों के शिखर पर कितने सूरज, रोज उगते रहे और ढलते रहे।
यहाँ शहर की स्याह सड़कों पर, लोग छिलकों पे ही फिसलते रहे।
bade hi jivant andaaj
उम्मीदें सांसों संग ही जीती रहीं, दिल में अरमान भी मचलते रहे,
मेरी नजरें तो धुंधली हो चली थीं, ख्वाब आंखों में फिर भी पलते रहे।
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
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