Saturday 5 December 2009

पलकों पे अश्कों के चिराग सजा




पलकों पे अश्कों के चिराग सजा, अंधेरे कमरों में बैठते हैं
कभी देखा नहीं तेरा चेहरा, कोई रोशनी भली नहीं लगती


उम्र के पाखी उड़ते हैं, हम बेबस बैठे देखते हैं
उम्मीद का लटका है सेहरा, क्यों दुल्हन छली-छली लगती


कुछ भी तो समझ नहीं आता, क्यों लोग बेवजह ऐंठते हैं
मेरा रूप तो वैसा ही इकहरा, क्यों जवानी टली नहीं लगती


क्या ऐसी सजा भी मिलती है, कि सब जख्मों को सेकते हैं
जब तक समझें हम ककहरा, ये जिन्दगी चली-चली लगती


अब तक जो देखे भरम ही थे, ऐसे क्यों सच मुंह फेरते हैं?
रस्सी पे बल ठहरा-ठहरा, क्यों अकड़न जली नहीं लगती।

सारे मंजर गुजर गये, मौसम भी कौन ठहरते हैं
बाकी रहा मीलों सहरां, कोई तेरी गली नहीं लगती 


* ककहरा - ए बी सी डी

इस नवगजल का ऑडि‍यो लि‍न्‍क इस पंक्‍ि‍त को क्‍ि‍लक करें


17 comments:

अजित वडनेरकर said...

बातें भली भली लगतीं

अनिल कान्त said...

आपने सही कहा था कि "नये तरीके से लिखी है पोस्ट "
वाकई नये तरीके से लिखी है आपने पोस्ट.
अच्छा लगा पढ़कर.

अपूर्व said...

उम्र के पाखी उड़ते हैं, हम बेबस बैठे देखते हैं

सही कहा है आपने...यह आजाद पंछी हैं..लौट के दोबारा नही आते...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

वाह भाई सुंदर लिखा है आपने.
अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आभार.

वाणी गीत said...

जब तक समझें हम ककहरा, ये जिन्दगी चली-चली लगती...
जब तबियत जिंदगी पर आती है ...मौत के दिन करीब होते हैं ...!!

Murari Ki Kocktail said...

sunadr rachnaa !!

दिगम्बर नासवा said...

सारे मंजर गुजर गये, मौसम भी कौन ठहरते हैं
बाकी रहा मीलों सहरां, कोई तेरी गली नहीं लगती

BAHUT HI KHOOBSOORAT SHER HAIN SAB KE SAB ..... KAMAAL KA LIKHA HAI ... SHUBHKAAMNAYE.....

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi badhiyaa

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

भाव और अर्थप्रधान रचना है.
शिल्प कुछ नया नया लगा.

निर्मला कपिला said...

बहुत देर कमेन्ट लिखा हुया देखती रही। चली थी कि नज़र आपका कहमा पर गयी। भाई सीधे सादे लोगों के लोये आसान सा काम रखा करो। गज़ल बहुत अच्छी है। इसे आपने नई गज़ल नाम क्यों दिया? इसका भी खुलासा करं धन्यवाद और शुभकामानायें हाँ तस्वीर बहुत सुन्दर है।

Rajeysha said...

ये गजल लि‍खते समय लगा कि‍ शि‍ल्‍प कुछ नया सा बन रहा है (हालांकि‍ गजल के कायदे कानूनों की तमीज हमें नहीं है)तो हमने इस प्रयोग को नई गजल में रखा।
आपको मुम्‍बई के उन टि‍फि‍न वालों की कहानी तो मालूम होगी जो अनपढ़ हैं, पर जि‍न के "प्रबंधन शि‍ल्‍प" पर वि‍श्‍व भर के प्रति‍ष्‍ि‍ठत मैनेजमेंट संस्‍थान शोध कर रहे हैं। तो हमने सोचा नई गजल बनाने में ज्‍यादा मजा है बनि‍स्‍बत पुरानी के कायदे कानून सीखे जायें।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

खूबसूरत पंक्तियों के साथ ....... खूबसूरत रचना........

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अच्छी रचना है.

रंजना said...

WAAH !!! BAHUT BAHUT SUNDAR !!!

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना लिये हुये बेहतरीन पंक्तियां बन पड़ी हैं ।

परमजीत सिहँ बाली said...

bahut sundar rachanaa hai.

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ said...

अब तक जो देखे भरम ही थे, ऐसे क्यों सच मुंह फेरते हैं?
रस्सी पे बल ठहरा-ठहरा, क्यों अकड़न जली नहीं लगती।
purani baat naye dhang se|
achchha laga|

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