पलकों पे अश्कों के चिराग सजा, अंधेरे कमरों में बैठते हैं
कभी देखा नहीं तेरा चेहरा, कोई रोशनी भली नहीं लगती
उम्र के पाखी उड़ते हैं, हम बेबस बैठे देखते हैं
उम्मीद का लटका है सेहरा, क्यों दुल्हन छली-छली लगती
कुछ भी तो समझ नहीं आता, क्यों लोग बेवजह ऐंठते हैं
मेरा रूप तो वैसा ही इकहरा, क्यों जवानी टली नहीं लगती
क्या ऐसी सजा भी मिलती है, कि सब जख्मों को सेकते हैं
जब तक समझें हम ककहरा, ये जिन्दगी चली-चली लगती
अब तक जो देखे भरम ही थे, ऐसे क्यों सच मुंह फेरते हैं?
रस्सी पे बल ठहरा-ठहरा, क्यों अकड़न जली नहीं लगती।
सारे मंजर गुजर गये, मौसम भी कौन ठहरते हैं
बाकी रहा मीलों सहरां, कोई तेरी गली नहीं लगती
* ककहरा - ए बी सी डी
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17 टिप्पणियां:
बातें भली भली लगतीं
आपने सही कहा था कि "नये तरीके से लिखी है पोस्ट "
वाकई नये तरीके से लिखी है आपने पोस्ट.
अच्छा लगा पढ़कर.
उम्र के पाखी उड़ते हैं, हम बेबस बैठे देखते हैं
सही कहा है आपने...यह आजाद पंछी हैं..लौट के दोबारा नही आते...
वाह भाई सुंदर लिखा है आपने.
अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आभार.
जब तक समझें हम ककहरा, ये जिन्दगी चली-चली लगती...
जब तबियत जिंदगी पर आती है ...मौत के दिन करीब होते हैं ...!!
sunadr rachnaa !!
सारे मंजर गुजर गये, मौसम भी कौन ठहरते हैं
बाकी रहा मीलों सहरां, कोई तेरी गली नहीं लगती
BAHUT HI KHOOBSOORAT SHER HAIN SAB KE SAB ..... KAMAAL KA LIKHA HAI ... SHUBHKAAMNAYE.....
bahut hi badhiyaa
भाव और अर्थप्रधान रचना है.
शिल्प कुछ नया नया लगा.
बहुत देर कमेन्ट लिखा हुया देखती रही। चली थी कि नज़र आपका कहमा पर गयी। भाई सीधे सादे लोगों के लोये आसान सा काम रखा करो। गज़ल बहुत अच्छी है। इसे आपने नई गज़ल नाम क्यों दिया? इसका भी खुलासा करं धन्यवाद और शुभकामानायें हाँ तस्वीर बहुत सुन्दर है।
ये गजल लिखते समय लगा कि शिल्प कुछ नया सा बन रहा है (हालांकि गजल के कायदे कानूनों की तमीज हमें नहीं है)तो हमने इस प्रयोग को नई गजल में रखा।
आपको मुम्बई के उन टिफिन वालों की कहानी तो मालूम होगी जो अनपढ़ हैं, पर जिन के "प्रबंधन शिल्प" पर विश्व भर के प्रतिष्िठत मैनेजमेंट संस्थान शोध कर रहे हैं। तो हमने सोचा नई गजल बनाने में ज्यादा मजा है बनिस्बत पुरानी के कायदे कानून सीखे जायें।
खूबसूरत पंक्तियों के साथ ....... खूबसूरत रचना........
अच्छी रचना है.
WAAH !!! BAHUT BAHUT SUNDAR !!!
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना लिये हुये बेहतरीन पंक्तियां बन पड़ी हैं ।
bahut sundar rachanaa hai.
अब तक जो देखे भरम ही थे, ऐसे क्यों सच मुंह फेरते हैं?
रस्सी पे बल ठहरा-ठहरा, क्यों अकड़न जली नहीं लगती।
purani baat naye dhang se|
achchha laga|
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