रोज की तरह
हम सुबह उठकर
घर से
बाहर मोहल्ले की ओर देखते हैं
कि आज के सूरज के नयेपन जैसा
कुछ हम में भी उगेगा।
पर हर ढलती शाम को
काम धंधे से लौटते हुए
हमने यही पाया है
कि सवेरा तो सवेरा
हमारी यह शाम भी
कल की शाम की तरह ही
हजारों साल बासी है।
यही बासापन
रोज
सुबह से शाम तक
हमें परेशान करता है।
इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।
हम दिल से नहीं चाहते
कि ये पीलेपन और फफूंद लिये शब्द
किसी को दिखायें।
पर मेरे ख्याल से
अब बचा ही क्या है, इनके सिवा।
6 टिप्पणियां:
इस जीवन की आपाधापी में कितनी ही नये कविताएँ अंधेरे की परछाई से छिप नही पाती ..........
अच्छी रचना है ........
हम दिल से नहीं चाहते
कि ये पीलेपन और फफूंद लिये शब्द
किसी को दिखायें।
पर मेरे ख्याल से
अब बचा ही क्या है, इनके सिवा।
Kya khoob baat kahee !
अच्छा लिखते हैं आप.
रचना पढ़कर अच्छा लगा.
इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।
बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ...सुंदर रचना....
इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।
बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ...सुंदर रचना....
बहुत अच्छी कविता।
आने वाला साल मंगलमय हो।
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