वो भी घर से यही सोचकर निकला होगा कि सांझ तक 200-400 रूपये मिल जाएंगे। वो भी ये सोचकर ही घर से निकला होगा कि किसी बच्चे की कोई ख्वाहिश पूरी हो जाएगी, बीवी की कोई जरूरत या दाल-रोटी का डर कुछ टल जाएगा। पता नहीं, यह वही मोटा रस्सा था जिससे वह कई दिनों से जिंदगी और मौत का जुआ खेल रहा था या, ये मौत का सामान आज ही उसने किराये पर लिया था। ली-जीन्स का 15 बाई 50 फीट का फ्लैक्स पेस्ट कर रहा था वो, तीन कोने तो टंग गये थे। बस, एक कोना बाकी था... जिसमें मौत छिपी बैठी थी।
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कुछ लोग धीरे-धीरे मरते हैं, लोग उनकी परवाह ही नहीं करते... पहले पहल तो सबको तकलीफ होती है। काॅलेज से निकले किसी ताजा छात्र को 8 घंटे किसी नियत जगह पर बैठाइये, उसकी गर्दन में अकड़न होती है, पैर कसमसाते हैं, बाजूएं... अंगड़ाइयों से भर जाती हैं, सिर फटने लगता है... और सवाल बार-बार उठता है... क्या ऐसा जिंदगी भर करना होगा... और फिर वह खुद को तसल्ली देता है... नहीं बस कुछ दिन की बात, यही तो संघर्ष है जिंदगी का, जीवन इक संघर्ष है... आदि। पर महज 5 दस साल, शादी बच्चे हुए कि सब खत्म। पता ही नहीं चलता यातनाओं का। सब उलट जाता है... किसी तयशुदा जगह पर 8-10 घंटे बिताने की ऐसी लत पड़ती है कि 2-चार साल में, यदि कोई ऐसा दिन आये कि अचानक किसी वजह से कारखाना या कार्यालय बंद हो तो इस कर्मचारी को सूझता ही नहीं कि ऐसे अपवाद वक्त का क्या करना है? पागल हो उठता है, परेशान हो जाता है। इस तरह लोग 60 बरस तक निकाल देते हैं.. सिगरेट की तरह, रोज आठ घंटे.. वक्त फूंकने की आदत। पर कुछ लोगों को जैसे इलेक्ट्रिशियन, ऊंची जगहों पर मजदूरी करने वालों, जोखिम भरे धंधों में लगे लोग... मौत अचानक से कुछ ज्यादा अचानक आती है... 60 साल तक मुर्दानगी घसीटे बगैर।
बेसमेंट में एयरकंडीशंड, साफ सुथरी जगह. कांच के पार्टीशन्स से बने दफ्तर में 20-25 लोग काम में मशगूल थे... सभी लोग अपने जिम्मेदारियों के प्रति सचेत थे कि नौकरी जारी रहनी चाहिए, ऊपर बैठे अधिकारी में कोई शिकायत ना पैदा हो जाए... इस बार की तनख्वाह से इतने खर्च निकल जाएंगे। बस दिन निकालो... ये साल निकल जाए। कहीं दूसरी जगह जुगाड़ भी तो नहीं हो रही। कम्बख्त उसको तो इतनी तनख्वाह मिल रही है, करता क्या है वो साला? साला कमीना है .. करना-धरना कुछ नहीं...बकर करवा लो। और वो मटका तो मटकने के... कम्बख्त ने बाॅस की दुखती रग पकड़ रखी है।
कोई चीज धड़ाम से नीचे गिरने की आवाज आई। यक-ब-यक किसी कर्मचारी का वाॅकी-टाॅकी बजा। कुछ लोग बाहर दौड़े... मैं भी सीट से उठा और बाहर की ओर लपका... । जिस दरवाजे से हम अंदर दफ्तर में घुसते थे उसी दरवाजे के बाहर खुलने की हद में ही एक जिस्म फैला पड़ा था... गले में.. मोटा रस्सा जो टूटा था और 4 मंजिला ऊंचाई से मौत ने उसे लपक लिया था। ठुड्डी के नीचे का हिस्सा कटा सा... जैसे किसी बकरे की गर्दन आधी ही काट छोड़ दिया गया हो.. और बकरा भी मौत को चकमा देने की कोशिश में बेहोश सा हो गया हो। किसी सुरक्षाकर्मी ने नाक के सामने हाथ रखकर उसके जीने के अंदाजे लगाए.. शोर मचाया 108 एम्ब्यूलेंस बुलाओ... जल्दी! जल्दी! पर सामने लाश में बदलता एक जिस्म था.. मौत को देखती पथराई आंखों ने वक्त कुछ पल के लिए रोक दिया था कोई सुनता ही ना था... किसी ने उसकी कलाई पकड़ी... और बोला नब्ज चालू आहे...जल्दी करो आॅटो लाओ... तभी उसका साथी शायद उसने ऊपर रहते हुए रस्सा पकड़ रखा था आया और उसके छूकर रूंआसा सा.. नहीं रोने ही वाला था कि किसी ने उसे झिड़क दिया... एक आॅटो वाला आया...जल्दी जल्दी! जल्दी... एक ने कंधों की तरफ से, एक ने टांगों की तरफ उसे उठे उठाया। मौत ने भारी कर दिया था... या मौत से अजनबी छुअन बड़ी ताकत नहीं लगाना चाहती थी.. उसे उठाने पर। एक तीसरे की आवाज आई उसकी गर्दन को लटकने मत दो सहारा दो... तीसरे ने पैरों की तरफ से सहारा दिया.. एक मामूली गार्ड, ऊंचे वाले गार्ड से इस अंदाज में बोला... जैसे कह रहा हो पकड़ ले साले बीच से..तू मरेगा तो घसीट कर ले जाउंगा। उसकी टांगे बाहर ही लटक रहीं थीं। लोग ले गये... उस अस्पताल में जहां तक पहुंचने से पहले ही आम तजुर्बाकारों ने उसे मृत घोषित कर दिया था।
उस जिस्म के आॅटो में लोड होते-होते माॅल मैनेजमेंट करने वाली कंपनी में अफरा-तफरी मच गई। पुलिस केस, कौन फंसेगा कौन बचेगा, उससे दस्तखत ले लिये गये थे या नहीं... उतनी ऊंचाई पर काम करने से पहले उससे लिखवा तो लेना था। किस कंपनी का आदमी था? किसने उसे काम पर लगाया? कौन था उसके साथ? उस कंपनी के साथ कोई एमओयू था या नहीं? एमओयू अपडेट है या नहीं? जल्द फाईल निकालो? गार्ड को बोलो जल्दी उन खून के छींटों को साफ करने को? कोई भी दाग पड़ा नहीं दिखना चाहिये? भीड़ में बात नहीं फैलनी चाहिए। भास्कर वालों को तो मौका मिल जाएगा? पुलिस को फोन लगा लेने और नहीं लगाने वाले दो भागों में बंट गये। तीसरा धड़ा कभी फोन लगा लेने वाले के पक्ष में हो जाता कभी फोन ना लगाने के पक्ष में। 5-7 लाख से कम मंे तो क्या बात बनेगी? एक मुर्गे जैसा पला-पलाया जवान कह रहा था, पुलिस वालों का फोन आ गया है, कह रहें आ कर मिल लो,,, बैठ कर बात करो समझे ना... उसने अबूझ स्माइली सी आंख मारी। मैनेजर एमओयू के पेपर्स के पीछे पड़ा था। पेपर निकाले गये एमओयू पुराना हो गया था, उसका नवीनीकरण किया ही नहीं गया था। सारी आवाजें शोर के प्रथम तल से खुसफुसाहट के बेसमेंट तक आ ठहरीं थीं और अब ज्यादा स्प/ट सुनाई दे रहीं थीं। मैंने एक आदमी से पूछा- क्या वो वाकई लाश हो गया? वो बोला-हां पक्का, कन्फर्म। अंग्रेजी में कन्फर्म सुनकर मुझे भी तय हो गया कि मैंने उस जिस्म को वाकई मरने से पहले फड़कता देखा। सारी बीमारी में मां को तड़फता देखा पर मौत के वक्त इधर-उधर हो रहा। पर इसे तो बिल्कुल... हां मैंने देखा ना।
कुछ साल पहले शहर में बन रहे पहले माॅल में एक क्रेन से, एक पुताई करते समय और एक आदमी शीशे लगाते वक्त.. गिर मरे थे। पिछले ही दिनों उसी माॅल के बेसमेंट में में किसी जीजा ने साली की चाकुआंे से गोदकर हत्या कर दी थी। उस माॅल का मालिक भारत के नं 1 अखबार का मालिक था। सारे भारत में वह अखबार निकलता था। इतना फैला था कि दो चार दस मौतें उसमें आसानी से समा जातीं थीं बिना निशान छोड़े। बाहर से आया प्रतिद्वंवी अखबार ही उन मौतों को जूम करके दिखा पाया था। प्रतिद्वंवी अखबार को जनता के सामने नि/पक्ष बनना था। उसका शहर में कोई माॅल नहीं था सो वो सारी दुर्घटनाओं, मौतों को छापता था। शहर के किसी भी माॅल की घटना को... चाहे तो वो विज्ञापन दे...या...?
पुलिस, मीडिया में फोन घुमाते-घुमाते.. मौत के लाल छींटे पोंछते-पोंछते मैनेजमेंट वालों को पसीने आ रहे थे। बाहर शोर सुनाई दिया मजदूर की लाश लिए... मजदूरों का एक जत्था आया था. मैंने महसूसा.. उस शोर को साइलेंसर पी गये। बात कमिश्नर तक पहुंच गई थी। रकम मोटी हुई जा रही थी। मैनेजमेंट को माॅल मालिक को जवाब देना था... मृतक की बीवी, बच्चों की जिंदगी सवाल बनी रहे तो बनी रहे। माॅल साला वैसे ही घाटे में था ऊपर से इस मनहूस को यहीं मरना था?
रस्सा उसकी उम्र थी...वो वहीं से टूटा जब उसकी उम्र खत्म हो गई थी। किसी का रस्सा कितना ही मोटा क्यों ना हो... भाग्य की सिल से रगड़ खाता हुआ, कभी भी टूट सकता है... या ऊपर खड़े दोनों में से जिसने पकड़ रखा है वो लापरवाह हो सकता है? या आपकी बेहोशी दारू में दिखी लहरों को सच कर सकती हैं... सारा शहर तो डोलता है। आप भी मानेंगे.. यह खयाली प्रेमिका के लिए लिखने वाली लाईनों से बहुत ज्यादा बेहतर विषय है। प्रेमिका अगर निवस्त्र हो पुकारे तो भी बेवफा है, धोखा है... मौत सच है। अगर जवान होने का मौका मिले तो मौत को प्रेमिका से पहले जानना चाहिए। वही तो उम्र होती है... जब जिस्म में फट पड़ने को तैयार हो जिंदगी... और हमें मौत के हिंडोलों में बैठने का स्वाद चखना चाहिए । इंसान की प्रजाति की उन्नत किस्में जवानी में ही मौत को जान पाईं। कई तो जवानी में ही जिंदगी को निर्वस्त्र विलाप करता छोड़ गईं। मौत की खूबसूरती से किस बला की तुलना... जो जिस्म बीस का हुआ है...50 का भी होगा। और 50 के लक्षण बड़े डरावने हैं... आप बोटोक्स से चेहरे कि कितनी लकीरें छिपा लेंगे, किस-किस जगह के बाल सफेद होने से बचा लेंगे। ये बाल इच्छाओं की तरह हैं, अनचाही जगहों पर आते हैं.. घने काले, लम्बे-लम्बे। और जहां चाहो, वहीं धूसर, सफेद हो जाते हैं... उड़ जाते हैं।
मैंने तुम्हें बताया क्योंकि मुझे लगा कि उसके साथ ही कुछ हिस्सा मैं भी मरा। ‘मैं’ जो मानता ही नहीं...। लगभग हर दिन ही दूर, पास और सामने ही... कई हकीकते गुजरती हैं पर जागता ही नहीं। गलतफहमियों के कीचड़ में कमल की तलाश। कि दीपिका पादुकोण/प्रिंयका चोपड़ा ने आज सेक्टर का नंबर पूछा है, कल मेरे घर का पता पूछेगी... परसों फोन नं... और.... रोज एक नया ख्वाब। एक बेचैनी जो जिस्म में पैदा होते हार्मोन्स पर विवेक की हुकूमत खो बैठती है। आदतों में जीते-जीते हम रोबोट बनाने लगते हैं और रोबोट्स के साथ रहते-रहते हम रोबोट्स हुए जाते हैं। हमें अपने पतन पर गर्व है। हम चाहते हैं कि इस ओर के 125 करोड़ लोगों पर अंग्रेज आज भी राज करते तो बेहतर होता। कई सौ साल की गुलामी की यंत्रणा के अनुभव, हमारे जीन्स से बस 100 सालों में गायब हो चले हैं।
शायद किसी संवेदनहीनता की कमी थी। नजफ भट्ट 4 दिन की छुट्टी के बाद काम पर लौटा था। उसके भाई की शादी थी। बरफी लाया था..दरवाजे पर साफ—सफाई के बाद बर्फी बांटी गई। लोग नई लाश, अभी-अभी देखी सुनी मौत को.. बरफी के स्वाद के साथ पचाने की कोशिश कर रहे थे।
माॅल प्रबंधन खुश है ... बस इतने से ही बात बन गई। अब सीख मिली कि ऐसा हादसा होने से पहले क्या होने देना है और बाद में क्या करना है। पुलिस खुश है कि माॅल तरक्की कर रहा है वो अब 10 लाख तक निवेश कर सकता है पुलिस कल्याण के लिए। वो जरा सी चूक के लिए अब पहले से कहीं ज्यादा तैयार है। निकम्मे झोंपडि़ये शहर को गंदा करने वाले निरोध का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? साले बद-बेक्ल अपनी शुक्राणुओं को फैलाये ही चले जाते हैं...जैसे ये इतने कीमती हों कि इनकी मां को इब्नेबतूता आंइस्टीन ने...।
नहीं भाई... सब जुड़ा हुआ है। यह प्रलाप नहीं... जरा ऊंचे से देखिये. चींटी जैसे लोग... 2डी स्क्रीन पर रंेगता हुआ सारा एक ही शहर। उसी शहर का एक महीन सा काला बिंदु ... सभ्यता के ऊंचे माॅल पर 15 बाई 50 फिट का फ्लैक्स टांगता हुआ... वक्त के उच्च तापमान से पिघल कर गिर पड़ा था। फ्लैक्स का तीसरा सिरा हवा में है... उससे लाल रंग के छींटे बरस रहे हैं, मुझे आज रात नींद नहीं आई... क्या आपको ये छींटे महसूस नहीं होते?