गुरुवार, 27 मार्च 2014

प्रेम का गड्ढा


प्रेम का गड्ढा
खींचता लपक—लपक
पुकारता अपनी तरफ
और फतवे देता—
'जीने का मैं ही.. असली अड्डा'

प्रेम का गड्ढा
पत्थर पर है
पानी ने खोदा है
पत्थर पर खुदा है
पानी ही तो खुदा है

प्रेम के गड्ढे के
दबे हुए ऊपरी उभार
और निचले कोने की झील
बहने को बैठी उधार

प्रेम का गड्ढा गहरा है
किनारों पर कुल दुनियां के
कानूनों और उम्रों का पहरा है
पर पानी का बहना
कब ठहरा है

प्रेम के गड्ढे के
'तू— और 'मैं दो मौसम हैं
गर्मियों में पसीने की ठंडक
और सदिर्यों में रजाई की गर्मी

प्रेम की नदी किनारे
कितने ही गड्ढे आबाद हैं
तेरे अन्दर के पुरूष की पुकार से
मेरे अन्दर की स्त्री के इंतजार से

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