शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009
हम जंगलों का कानून भी भूल गये हैं
सुना है -
जंगलों का भी कोई कानून होता है।
सुना है,
शेर का जब पेट भर जाये,
वो हमला नहीं करता।
सुना है -
हवा के तेज झोंके,
जब दरख्तों को हिलाते हैं,
तो मैना अपने घर को भूल कर,
कौवै के अंडों को,
परों में थाम लेती है।
सुना है -
किसी घोंसले से
जब किसी चिड़िया का बच्चा गिरे तो
सारा जंगल जाग जाता है।
सुना है -
कोई बाँध टूट जाये,
बाढ़ सी आये
तो किसी लकड़ी के तख्ते पर
गिलहरी, साँप, चीता और बकरी साथ होते हैं
सुना है जंगलों का भी कोई कानून होता है।
ओ परम शक्तिवान परमात्मा हमारे देश में भी,
अब जंगलों का कोई कानून कायम कर।
(यह कविता हमारी नहीं है, पर बेहतरीन है)
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009
अंजामों का डर
”कोई मसीहा आयेगा कभी“, इंतजार मैं कैसे करूँ,
सहम गया था वो सब सुनकर, जो-जो सलीबें बोली थीं
लोग थे कहते - "मैं सुनता और देखता हूं बस दुख ही",
पीड़ा तो थी मेरी सहोदर, वो ही मेरी हमजोली थी
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नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने की इच्छा होने पर आत्मा की आवाज सुनें।
आ अब तो सामने आकर मिल
कभी किसी डगर तो आकर मिल
मुझे किसी मंजिल की फिक्र हो क्यों?
तेरा साथ जहां, है वही मंजिल
वो तो बचपन की बातें थीं
कि बरसों तुझको देखा किये
रगों में बहता लहू कहता है
कभी मुझसे हाथ मिलाकर मिल
तेरी जुल्फों के काले जादू से
मेरे खवाब हुए रोशन रोशन
हुई बहुत खयालों की बातें
कभी आमने सामने आकर मिल
बादल छाए बिजली चमकी
तेरे साया बोला बातें कई
कर परवाने पे और यकीं
इक बार तो आग जगाकर मिल
बेताब जवानी कहती है
तुझे मेरी वफा पे शक कैसा
आ सारे जमाने के सामने आ
और मुझको गले लगाकर मिल
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
कोई इशारा करो।
जब तक बलती है धुंआं-धुंआं,
धड़कन का साज है रमां-रमां,
कोई इशारा करो।
तन्हाई की रातों में,
खुद से बातों-बातों में,
ऐसे बहके हालातों में,
कोई इशारा करो।
उम्रों की कई सलवटें तय की,
दीवानगी की कई सरहदें तय की,
अब वक्त ही यही तलब है कि
कोई इशारा करो।
जमाना दुश्मन हो गया है,
तेरी चाहत ने संगसार किया है,
मरकर तुमको प्यार किया है,
कोई इशारा करो।
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009
सब चलता रहता है
कोई रहे न रहे
सांसों के संजाल में
कोई रहे न रहे
स्मृतियों की परिधि में
क्षणिक हंसी मुस्कानों की अवधि में
ऐसा जाये कि
अब कभी लौट के न आये
समय की नदी में
स्मृतियों में कथा बन
निवर्तमान-सी व्यथा बन
पलता रहता है
जो जिया संग
अब अतीत हुआ है
बीत गया है
क्या रह गया है मेरे दिल में
छल सा
भरता है सांसों में निर्बलता
इन्द्रियों के अनुभवों के उत्सवों को झुठाता
बन आकुलता रहता है
कोई रहे न रहे
दृष्टि की सृष्टि में
अश्रुओं की वृष्टि में
ह्रदय में
सतत तरलता रहता है
कोई रहे न रहे
सांसों के संजाल में
सब चलता रहता है
सोमवार, 26 अक्टूबर 2009
आप न पढ़े तो भी ये काफी बेहतर किस्सा है
एक पिता अपनी किशोर बेटी के बेडरूम के पास से गुजरा और देखकर हैरान हुआ कि बिस्तर बड़ा साफ सुथरा और सलीके से लगा हुआ है। फिर उसने देखा कि तकिये पर एक खत रखा है, आगे बढ़कर देखा तो वह ‘‘पिता’’ को ही सम्बोधित करते हुए लिखा था। किसी अनहोनी की आशंका में पिता ने जल्दी-जल्दी वह खत खोला और हाथों में फैलाकर पढ़ने लगा:
पिता के पैरों तले से जमीन खिसक गई, काँपते हाथों से जब उसने पत्र के सबसे नीचे जहां कृ.पृ.उ. (कृपया पृष्ठ उलटिये) लिखा रहता है वहाँ पढ़ा, वहाँ छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था -
पिता जी, उपरोक्त सभी कहानी झूठ है। मैं ऊपर वाले शर्मा अंकल के घर में अपनी सहेली पिंकी के साथ हूँ। मैं आपको यह याद दिलाना चाहती थी कि हमारे जीवन में बहुत ही घटिया और बुरी बातें हो सकती हैं... मेज की निचली दराज में पड़े स्कूल के रिपोर्ट कार्ड से भी बुरी, जिसमें मैं फेल हो गई हूँ। कृपया उस पर साईन कर दें और जब भी भला लगे मुझे तुरन्त फोन कर बुला लें।
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यह चुटकुला एक हकीकत के ज्यादा करीब है।
शनिवार, 24 अक्टूबर 2009
हमने जिन्दगी की डगर यूं तय की
हर सुबह रात सी, हर रात सुबह सी तय की।
आसमान ऊंचे थे और सरचढ़ी थी ख्वाहिशें
परकटी जवानी ने, खामोशी से, जिरह तय की।
धुआँ-धुआँ सी साँसों का हासिल क्या होता
सुलगती-सुलगती शाम से रात, सहर तय की
लौट आये बदहवास उम्रें चेहरे पे लेकर
पूछो न कैसे, दर्द की हर लहर तय की
घूंट दर घूंट जहर की मिठास बढ़ती गई
‘राजेशा’ हमने मौत की अजब तलब तय की.
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बुधवार, 21 अक्टूबर 2009
सूरज की राह न तको
सूरज की राह तकोगे तो, मंजिलें दूर हो जायेंगी ।
जमाना बुरा है, दिल की बातें, ना उड़ाते फिरा करो,
यूं तो तुम्हारी मुश्किलें, कुछ और मशहूर हो जायेंगी ।
दिल न माने फिर भी, इस भीड़ में आते-जाते रहो,
जब कभी भी तन्हा होगे, महफिलें दूर हो जायेंगी ।
लम्बी उम्रों की दुआएं, देने वाले नहीं रहे,
दुश्मनों की उम्मीदें अब, सफल जरूर हो जायेंगी ।
कहता था कर नजर गहरी, और फिर चुप हो गया,
नहीं पता था वो नजर, यूं नूर-ए-रूह हो जायेगी ।
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
हरदम खुद को खो देता हूँ।
मैं ख्वाबों में रो देता हूँ।
मेरे सपने किसी ने पढ़े नहीं,
बस लिखता हूं, धो देता हूँ।
जाने क्या पाना चाहता हूँ,?
हरदम खुद को खो देता हूँ।
उनके ख्वाबों के इंतजार में,
मैं भी इक पहर सो लेता हूँ।
चाहता हूं आम ही लगें मगर,
फिर क्यों बबूल बो लेता हूँ?
मैं मौत की राह तकते-तकते,
सारी जिन्दगी ढो लेता हूँ।
मेरी चाल में कोई खराबी है,
हर मंजिल को खो देता हूँ।
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
दीवाली और दिल की बात
दीवाली और मेरा दिलबर हम कैसे मनाएँ दीवाली, सब उजाले उनके साथ हैं, उनका हर दिन पूनम सा, अपनी तो अमावस रात है। हैरान हैं उनके इशारों से, हाँ-ना के बीच ही झूलते हैं, अब दीवाना करके छोड़ेंगे, जो उलझे से जज्बात हैं। रंगीन बल्बों की जो लड़िया, उनकी मुंडेर पर झूलती हैं, उनके जलने बुझने जैसे, अपने दिल के हालात हैं। सुना! आयेगा घर दिवाली पर, दिल में फुलझड़िया छूटती हैं, मेरी दीवाली से पहले ही, जगमग-जगमग हर बात है। वो जब भी मुझसे खेलता है, बस मैं ही हमेशा जीतता हूं, वो है मेरे सामने जीत मेरी, मेरी खुशी कि मेरी मात है। वो खुदा तो हरदम संग मेरे, दीवाली हो या दीवाले वो आंसू में, मुस्कानों में, वो ही सारी कायनात है। | आप सबको दीपावली पर्व की हार्दिक बधाईयाँ।इस श्लोक का अर्थ आधुनिक दीपावली पर्व के रूप में किया जाना चाहिए। सर्वे वे सुखिन: सन्तु का अर्थ है कि सभी सुखी हों। लेकिन यदि दुनियां में पांच अरब तरह के लोग हैं तो सुखों की संख्या उसकी पांच अरब गुना ही होगी। सबके अपनी-अपनी तरह के सुख हैं। जो भूखा है वो सोचता है कि मरा जा रहा हूं, कुछ खाने-पीने को मिले तो शरीर में जान आये और चलफिर फिर पायें। जो पैदल चल रहा है वो सोचता है साईकिल मिल जाये तो किलोमीटर्स का सफर मिनटों में तय कर डालूं। जो साईकिल से सफर करता रहा है, वो मोटरसाईकिल वालों को देखता है कि यार कब तक मैं मोटरसाईकिलों कारों के पीछे धुंआ निगलता हुआ पैडल मारता रहूंगा, मोटरसाईकिल मिले तो मैं भी हवा-हवाई सफर करूं। मोटरसाईकिल वाला ज्यादा मुश्किल में होता है- क्योंकि कार आती है लाख रूपये की, कई लोगों का तो जन्म निकल जाता है लाख रूपये कमाते-कमाते। फिर कार खरीद कर गैरेज में खड़ी करने से तो और भी दुख होगा न, चलाने के लिए 50 रू प्रति 10-15 किमी पेट्रोल का प्रबंधन आसान खर्च थोड़े ही न है। कारधारक हवाई जहाजों के किराये देखता है और यह कि फलां दोस्त कितना अक्सर हवाई यात्राओं का कहां कहां सफर कर चुका है। जो हवाई जहाज से उड़ रहा है वो भी चांद की यात्रा के सपने पाल रहा है। तो कहने का मतलब साफ होता है कि सुख अपनी-अपनी औकात के हिसाब से होते हैं। लेकिन इस श्लोक में शायद उन सुखों की नहीं असली सुख की बात कही गई है असली सुख है, कि सुख को भोगने वाला शरीर, मन निरोग रहें, निरामय रहें। कोई स्वस्थ रहे इससे बड़ी कोई अमीरी नहीं है। अस्वस्थ हैं, कोमा में पड़े हैं, शरीर की गतिविधियां मशीनी हो गई हैं, रोज लाखों- करोड़ों रू फंुक रहे हैं लेकिन कानूनी वैज्ञानिक रूप से से आप जीवित हैं, तो आप इसे जीवित रहना या सुख कहेंगे? इससे भला तो वो बीमार अच्छा है इलाज न करवा पाने के कारण परमात्मा को पुकार ले, देहत्याग दे। तो निरामयता सुख है। साथ ही कहा गया है - सर्वे भद्राणि पश्यंतु। अब आप अकेले स्वस्थ सबल छुट्टे सांड की तरह इधर-उधर सींग मारते घूम रहे हों तो इसमें निरामयता का सुख नहीं है। श्लोक के ऋषि कहते हैं - सर्वे भद्राणि पश्यंतु। मैं अकेला ही नहीं सभी लोग स्वस्थ हो जायें। सभी लोग तन मन से यथार्थतः स्वस्थ सुंदर दिखने वाले हो जायें। यह बात ही है जो हर दीवाली पर सबको विचारनी चाहिए। आपके घर पर रंग बिरंगों बल्बांे की लड़ियाँ जगमगा रही हैं, दिये जल रहे हैं, मिठाईयों पकवानों का आदान प्रदान चल रहा है इसी बीच आपके द्वार पर कोई कंगला पुकारता है और आप उसे लक्ष्मी के स्वागत में तैयार द्वार से हट जाने के लिए दुत्कार देते हैं, यह दीवाली का सच्चा भाव नहीं! आज तक का इतिहास और आपकी उम्र भर का होश गवाह रहे हैं कि कभी कोई लक्ष्मी सजधजकर आपके द्वार पर आपको अमीर करने नहीं आ गई। परमात्मा की शक्लें पहचानने में नादानी नहीं करनी चाहिए। श्लोक में तो इससे भी आगे की बात कही गई है कि सब लोग सुखी, स्वस्थ और संुदर ही न हों बल्कि किसी को किसी तरह का कोई दुख न हो। पिछली दीवालियों के पन्ने पलट कर देखिये क्या सारी पिछली दीवालियों पर आपके सम्पर्क में या आपका कोई रिश्तेदार या अन्य, क्या ऐसा हुआ है कि कोई बीमार हो और आप दीवाली के पूजा-पाठ छोड़कर उसकी पूछ परख करने गये हों। दीवाली पर यह श्लोक बांचना ही नहीं, अपनी सामथ्र्य भर किसी छोटे से छोटे रूप में इसे अमल में लाने पर ही दीवाली, दीवाली होगी। --------- जैसे ही गर्मी बीतती है और बारिश का मौसम शुरू होता है या जैसे ही बारिश का मौसम गुजरता है और सर्दियों का आगमन होता है - इस संचरण काल में हमें सांस की तकलीफ होने लगती है। दीवाली की सफाईयाँ-पुताईयाँ शुरू हुईं तो उठे धूल और चूने, पंेट्स, तारपीन के तेल की गंधों से सांस भारी भारी चलने लगी। दवाईयों के नियमित खानपान के बावजूद हमारी, रात की नींद पिछले 7 दिनों से गायब है। दमे, सांस की तकलीफ झेल रहे लोगों के लिए दीवाली एक दर्दभरा त्यौहार है। आज अखबार में पढ़ा कि दीवाली पर लगभग 40 प्रतिशत लोग जलते झुलसते हैं। धूल धुंए, शोर को झेलते नवजात बच्चों, शिशुओं और वृद्धों, अबोले वृक्ष, पशु, पक्षियों की विवशता की भी कल्पना करें। जब फुलझड़ियां, अनार या चकरियां चलती हैं तो उठते धुंए का किस पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ये सोचें। राॅकेटों से परेशान कबूतरों, बम पटाखों की लड़ियों से सताये गये गली के कुत्तों, गायों या अन्य प्राणियों का दुख समझें। पटाखों का शोर कानों के पर्दे फाड़ने के लिए जरूरत से ज्यादा है। पिछली दीवाली पर घर के सामने ही खड़ा, बारह महीनों पानी से भरे नारियल टपकाने वाला हरा-भरा और प्रातः उठकर देखने पर अपनी हरियाली से हिल हिल कर गुडमार्निंग करने वाला नारियल का पेड़, अपने शीर्ष पर जा घुसे राकेट से धू-धू कर जल गया। जब तक फायर बिग्रेड वाले आते कोंपले निकलने वाला स्थान राख हो चुका था। आज वर्ष भर बाद भी कोंपले उठकर संभलती दिखाई नहीं देतीं। माना की दुनियां भर की मंदी में आपकी अमीरी दिन दुगुनी रात चैगुनी बढ़ रही है पर इसका उन्मादपूर्ण प्रदर्शन क्या जरूरी है? गरीब तो वैसे ही परेशान है कि पटाखे खरीदेगा या खुद एक पटाखे, फुस्सीबम सा बिना चले झुंझलाया सा खत्म हो जायेगा। वृद्धगृहों, विवश महिला सरंक्षणगृहों, अनाथालयों, अस्पतालों, जेलों, सीमा पर विषम परिस्थितियों में तैनात सैनिकों की परिस्थितियों को याद करें, फिर दीवाली मनायें। पटाखे फुलझड़ियां चलाने के लिए घर, संकरे स्थानों कि प्रयोग से बचें, खुले मैदानों का प्रयोग करें। इंटरनेट अखबारों पत्रिकाओं के इस संबंधी ज्ञानवर्धक लेखों को पड़े होश में आयें। क्योंकि होश से बड़ा कोई पुण्य, त्यौहार नहीं है। बेहोश होकर बम पटाखों से हिंसाभाव, रोमांचपूर्ण पागलपन फैलाने से बड़ा कोई पाप नहीं। |
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
तुझसे मिलने का असर
तुझे हर साँस, सुबह- शाम ओ‘ सहर, देख रहा हूँ।
खूब गुजरी थी मेरी रात, तेरे तसव्वुर की फिजां में,
फिर हुआ जो मेरा अंजाम-ए-सहर, देख रहा हूँ।
तू मुझसे मेरे माजी के दुख दुश्वारियां न पूछ,
हर कदम तय किया जो दर्द-ए-सफर, देख रहा हूँ।
तू मुझे खूब मिला ऐ सादा-हुस्न, ऐ सीरत-ए-जहीन,
तेरी सूरत में, किसी दुआ का अमल, देख रहा हूँ।
मैंने देखी हैं शहर की काली रातें, सुनसान दोपहरें,
बेवजह दहशत ओ डर से दूर कहीं घर, देख रहा हूँ।
खुदा है एक जिसके जलवे दिखते हैं दो जहां में,
काम हो कोई नेक, इक उसकी मेहर, देख रहा हूँ।
है फानी दुनियां, उम्रें लकीर-ए-पानी की तरह हैं,
क्या है तिनका, क्या समन्दर की लहर, देख रहा हूँ।
तसव्वुर-कल्पना, सहर-ब्रह्रम मुर्हूत, फिजां or फजां-वातावरण, दुश्वारियाँ-मुश्किलें
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बुधवार, 7 अक्टूबर 2009
अजनबी - 2
नहीं ये मेरा गिला नहीं है
दरअसल अपने में ही
अजनबीयत के सिवा
मुझे कुछ मिला नहीं है।
मैं एक तिनके सा
नदी की धार में बह रहा हूँ
नदी से
खुद से ही
अजनबी
मैंने लोगों से सुना है
आदमीयत की पैदाइश से ही
हमेशा ऐसा ही रहा है
कि कुछ भला है
कुछ बुरा है
ये सबसे आसान बात है
कि किसी चीज को
दो टुकड़ों में काट दो
हमारी नजर
दो आंखों
दो टुकड़ों में बंटी है
सबसे सुविधाजनक है
हर चीज दो टुकड़ों में बांट दो
और अनुप्रस्थ काट में ढूंढते रहो
उस चीज की पहचान
पर आसान तरकीबें
मुश्किल सवालों का हल नहीं होती
न इसका कि
मैं खुद से अजनबी क्यों हूँ
अजनबी कौन हो तुम.....
सारी दुनिया मेरी आंखों में सिमट आयी है
तुम तो हर गीत में शामिल थे तरन्नुम बनके
तुम मिले हो मुझे फूलों का तबस्सुम बनके
ऐसा लगता है कि बरसों से शनासाई है
अजनबी कौन हो तुम...............................................
ख्वाब का रंग हकीकत में नजर आया है
दिल में धड़कन की तरह कोई उतर आया है
आज हर साज में शहनाई सी लहराई है
अजनबी कौन हो तुम...............................................
कोई आहट सी अंधेरों में चमक जाती है
रात आती है तो तन्हाई महक जाती है
तुम मिले हो या मोहब्बत ने गजल गाई है
अजनबी कौन हो तुम...............................................
Audio Video : http://www.youtube.com/watch?v=ZRI3CSpc4v4 |
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सोमवार, 5 अक्टूबर 2009
उम्र के तकाजे
उम्र शब्द आते ही लगता है कि कोई कमउम्र या हमउम्र, हमसे असली उम्र का सवाल ही न कर बैठे। आजकल प्रचलित है कि महिलाओं से उम्र और पुरूषों से सेलरी नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि हमारे समाज के किसी महिला और पुरूष संबंधी यही प्राथमिक मापदंड हैं। यानि समाज भी और स्वयं स्त्री भी स्वीकार कर रही है कि प्रथमदृष्टया कोई स्त्री देह (16 वर्षीय या कम या ज्यादा) के अलावा कुछ नहीं और पुरूष पैसे कमाने वाली मशीन है।
समय के मार्ग पर कोई कितना चला है यही उसकी उम्र होती है। देह समय के साथ ढलती है और दिमाग में अनुभव इकट्ठा होते हैं। देह और दिमाग की उम्र की चाल अलग-अलग होती है। सामान्य लोगों का शरीर, दिमाग से ज्यादा तेजी से बढ़ता, फैलता है। कुछ लोगों के दिमाग जल्दी विकसित होते हैं बनिस्बत देह के। देह की उम्र से आदमी के दिमाग की उम्र का अंदाजा लगाना ठीक नहीं। आपने भी देखा होगा कुछ बच्चे ज्यादा समझदार लगते हैं।
आदमी की उम्र को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जाता है, बच्चा, जवान और बूढ़ा। किशोर, प्रौढ़ इनके मध्य की स्पष्टीकरण अवस्थाएं हैं। हर उम्र की अपनी अपेक्षाएं, इच्छाए और विवशताएं होती हैं। ‘‘जनरेशन गेप’’ इन्हीं अपेक्षाओं, इच्छाओं और विवशताओं से उपजता है।
सामान्यतः लोग अपनी उम्र के अनुसार आचरण को ठीक मानते हैं। जैसे एक बच्चा बचकानी हरकतें, एक जवान गलतियां करें या एक बूढ़ा चिढ़चिढ़ाये ये असामान्य नहीं माना जाता। इसके विपरीत यदि कोई बच्चा बूढ़ों सा गंभीर, एक वीतरागी युवा और एक दिलफेंक बूढ़ा दिखे तो सामाजिक लोग इसे अच्छा नहीं समझते। जबकि किसी भी उम्र में कोई व्यक्ति कैसा होगा यह ढर्रा बनाया जाना ही सामाजिक दुराग्रह है। खैर समाज ढर्रे बनाता है और आयु के इन ढर्रों के पार गये संबंधों को चटखारे लगाकर सुनता-सुनाता और कमरे बंद कर नेट, डीवीडी डिस्प्लेयर्स पर देखता है।
पुरूष और महिला के उम्र संबंधी अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं। महिलाओं की आयु को नापने का पैमाना सामान्य से हटकर होता है। 16 वर्ष तक तो उनकी उम्र वर्षों के हिसाब से ही नापी जाती है पर 16 के बाद यह स्थिर हो जाती है। पुरूषों की चाहिए कि किसी महिला की इसके बाद के वर्षों की उम्र को उदाहरणतः 21 वर्ष को 16+5 आदि कहकर दर्शांए। इससे महिलाओं का षोड्षपने से जुड़ाव भी नहीं टूटता और जो बात आगे बढ़ चुकी है वह भी स्पष्ट हो जाती है। पुरूषों को किसी महिला संबंधी कल्पना में भी यह गणित अच्छा सहायक हो सकता है।
हमें यह तो पता है कि वैज्ञानिकों ने मनुष्य की दिमागी उम्र नापने के मानदण्ड विकसित कर लिये हैं पर यह ज्ञात नहीं कि इन मानदण्डों का व्यावहारिक इस्तेमाल कहाँ किया जा रहा है। कल्पना करें कि वह कितना बेहतर कर्मस्थल होगा जहां पर दिमागी उम्र से समान पर शारीरिक आयु से असमान बच्चे, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध सभी एक ही जगह, एक ही मंच पर आयुभेद के दुराग्रहों से रहित होकर सक्रिय रूप से कार्य सम्पन्न करें। इससे निश्चित तौर पर जनरेशन गेप गायब होगा.. बच्चों और युवाओं, युवाओं और बूढ़ों के बीच समझ बनेगी और वृद्धावस्था में अलगाव और अकेलेपन की बीमारी से भी बचा जा सकेगा।
वैसे देखा जाये तो इन्टरनेट पर यह अप्रत्यक्ष रूप से हो ही रहा है। लेकिन ये अप्रत्यक्ष होना बड़ी ही मायावी अवस्था है। प्रोफाईल फोटो में 16 बरस की बाली उम्र को सलाम किया जा रहा होता है और असलियत ये होती है कि रिटायरमेंट के बाद के अपने बेदर्द फुसर्तियापन को अपनी किशोरावस्था के जज्बातों के इजहार द्वारा काटा जा रहा होता है। लड़कों द्वारा लड़की बनकर लड़की से दोस्ती और एक सुन्दर लड़की की फोटो लगी प्रोफाइल में हजारो की संख्या में मित्रों और स्क्रेप या कमेंट्स आम बात है।
इंटरनेट जैसे प्रभावी माध्यम का उपयोग देशी-विदेशी, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, लिंग, आयु, समाज-साम्य-पूंजी जैसे वादों को बढ़ावा देने में हो रहा है। जबकि इंटरनेट पर अप्रत्यक्ष रहकर आयु, लिंग, वर्ग, जाति, धर्म, वाद आदि सभी प्रकार के भेदों का उन्मूलन आसानी से किया जा सकता है। इसके लिए ”वसुधैव कुटुम्बकम“ की समझ होना अपरिहार्य है।
जैसे महिलाओ की उम्र उनकी कमर से जुड़ी है वैसे ही पुरूष की उम्र उनके गंज के परिवेश से। दिमागी मामलों में पुरूषों द्वारा सफलता या किसी बुद्धिमानी की तारीफ होने पर ”बाल धूप में ही सफेद नहीं किये“ .... 60 होने पर भी स्वस्थ और हष्टपुष्ट होने पर ”साठे में पाठा“ .... और अधिक उम्र में भी बचकानी बातों में संलग्न होने पर ”बंदर बूढ़ा हो जाये पर कुलाटी मारना नहीं छोड़ता“ जैसे कहावतों मुहावरों का आश्रय लिया जाता है। ”जो जाके न आये वो जवानी देखी, जो आ के न जाये वो बुढ़ापा देखा“ उम्रों के सत्य को कहने वाली बड़ी ही कीमती कहावत है।
सत्य सनातन होता है, उसका उम्रों से कोई लेना देना नहीं होता। कई महान चरित्र इसी बात का जीता जागता उदाहरण हैं। आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद आदि जैसे कई महापुरूष कम उम्र में ही अपने सारे महान कर्म सम्पन्न कर देह से निवृत्त हो गये। इसलिए धार्मिक उत्कर्षों, सनातन मूल्यों और सिद्धानों के पालन में हमें उम्र का तकाजा नहीं करना चाहिए।
ये उम्रों का अंदाज था
कुछ पहले, तो कुछ बाद था
ये उम्र था या रूह था
सांसों के नद के बहाव को देखता हुआ
प्रवासी पक्षियों का वह समूह था
जो सागरों, पर्वतों, शहरों और देशों की हदों से परे
अपनी पूरी जिन्दगी में
दो-चार सफर करता है।
ये उम्रों का अंदाज था
कुछ... बंध गया था मौत में
कुछ... सारी जिन्दगी आजाद था।
शनिवार, 3 अक्टूबर 2009
मुझको पता था एक दिन
मुझको पता था एक दिन, मुझसे जुदा हो जायेगा,
तू पंछी था परदेस का, कभी लौट के भी जायेगा।
हर दिन तेरा आगोश था, शाम ओ शब मेरे मदहोश थे,
मालूम था मौसम कभी वो लौट के न आयेगा।
मुझको पता था हर घड़ी, तेरा साथ था आदत बुरी,
मुझको पता था एक दिन तू ‘अजनबी‘ हो जायेगा।
अब बातें करता है तेरी मुझसे जमाना ताने दे,
मैं रंजीदा1 हूं सोचकर, तू कभी नहीं मिल पायेगा
मरते थे जिस पर टूटकर, वो छूटकर फिर न मिला
दिल है बेबस, ये बेचारा, किससे क्या कह पायेगा?
1 रंजीदा - दुखी
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नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने की इच्छा होने पर आत्मा की आवाज सुनें।
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
.... अच्छी बात नहीं है।
इंसानियत को गर्क करना, अच्छी बात नहीं है।
देश, धर्म और समाज, सब करते हैं फसाद
स्वर्गिक बातों में, जिन्दगी नर्क करना, अच्छी बात नहीं है।
दिलों में बनीं गठाने, दुखें और लगें सताने
इन पर मुलम्मे, वर्क जड़ना, अच्छी बात नहीं है।
युद्धों से बचने को, युद्धों की तैयारी
बमों से इंसानियत जर्क करना, अच्छी बात नहीं है।
वही क्यों मुझे पसंद, उस पर मरूं सानंद
प्रेम के विषय में तर्क करना, अच्छी बात नहीं है।
‘सत्यं-शिवं-सुन्दरम’, इसमें मनाओ आनन्दम्
ये हैं खुदा के हर्फ, इनसे अच्छी बात नहीं है।