बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

अजनबी - 2

नहीं ये मेरा शिकवा नहीं है
नहीं ये मेरा गिला नहीं है
दरअसल अपने में ही
अजनबीयत के सिवा
मुझे कुछ मिला नहीं है।

मैं एक तिनके सा
नदी की धार में बह रहा हूँ
नदी से
खुद से ही
अजनबी

मैंने लोगों से सुना है
आदमीयत की पैदाइश से ही
हमेशा ऐसा ही रहा है
कि कुछ भला है
कुछ बुरा है

ये सबसे आसान बात है
कि किसी चीज को
दो टुकड़ों में काट दो
हमारी नजर
दो आंखों
दो टुकड़ों में बंटी है
सबसे सुविधाजनक है
हर चीज दो टुकड़ों में बांट दो
और अनुप्रस्थ काट में ढूंढते रहो
उस चीज की पहचान

पर आसान तरकीबें
मुश्किल सवालों का हल नहीं होती
न इसका कि
मैं खुद से अजनबी क्यों हूँ

1 टिप्पणी:

Vandana Singh ने कहा…

bahut hi sunder lagi ye kavita ..apke blog par akar accha laga ..jyadatar rachnaye padhi ...jo vakt ki kami k karan nahi padh sako koshis karoongi unhe bhi padh sakoon ...bahut sunder rachnaye hai sabhi ..likhte rahiye ..

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