एक ही दिन की दीवाली थी, और इक दिन की होली थी,
और बरस में दिन थे सैकड़ों, गमों की हँसी ठिठोली थी
उम्मीद के जुगनुओं की रोशनी में, आसान नहीं उम्रों के सफर
कुछ तो थे दिल, दुनियाँ के अंधेरे, कुछ किस्मत ने अमावस घोली थी
ये मुझको आजादी थी कि, कुछ भी कहूं, किसी से भी कहूं
अंजामों के डर, दहशत से, अपनी जुबां नहीं खोली थी
रोटी, कपड़े और मकान के, इंतजाम में बीती उमर
बेजा टांगे फिरे जन्म भर, जो सपनों की झोली थी
चार कोस की हरियाली थी, हजार कोस के रेगिस्तान
थके पाँव और हारे दिल पर, काल की नीयत डोली थी
”कोई मसीहा आयेगा कभी“, इंतजार मैं कैसे करूँ,
सहम गया था वो सब सुनकर, जो-जो सलीबें बोली थीं
लोग थे कहते - "मैं सुनता और देखता हूं बस दुख ही",
पीड़ा तो थी मेरी सहोदर, वो ही मेरी हमजोली थी
इस ब्लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्वागत है।
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5 टिप्पणियां:
bahut sundar rachana hai..badhaai.
क्या कहूँ...मुग्ध ही कर लिया आपकी इस रचना ने तो.....
प्रत्येक पंक्ति को कई कई बार पढ़ उसके भाव तथा सौन्दर्य पर मोहित होती रही....
बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना....वाह !!!
bahut hi sundar prastuti.............badhayi
Jamini hakikat ko bayan karti aapki rachna bahut achhi lagi. log katrate hai hakikat se lekin mujhe bhi wastawikta achhi lagti hai.
Badhai
Jamini hakikat ko baya karti aapki rachana bahut achhi lagi. Likhte rahiye.
Badhai.
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