Saturday 24 October 2009

हमने जिन्दगी की डगर यूं तय की


हमने जिन्दगी की डगर यूं तय की,
हर सुबह रात सी, हर रात सुबह सी तय की।

आसमान ऊंचे थे और सरचढ़ी थी ख्वाहिशें
परकटी जवानी ने, खामोशी से, जिरह तय की।

धुआँ-धुआँ सी साँसों का हासिल क्या होता
सुलगती-सुलगती शाम से रात, सहर तय की

लौट आये बदहवास उम्रें चेहरे पे लेकर
पूछो न कैसे, दर्द की हर लहर तय की

घूंट दर घूंट जहर की मिठास बढ़ती गई
‘राजेशा’ हमने मौत की अजब तलब तय की. 

इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।



8 comments:

वाणी गीत said...

दिन रात से रात दिन सी तय की ...उलटी पुलती ही की मगर जिंदगी की डगर तय की ....!!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

bahut sundar !

M VERMA said...

बहुत ही सुन्दर अन्दाज और भाव्

Mumukshh Ki Rachanain said...

ग़ज़ल प्रभावशाली रही....
बधाई

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

vandana gupta said...

laut aaye badhawaas umrein chehre pe lekar
pucho na kaise , dard ki ha rlahar tay ki

waah........kya khoob bhav hain............behtreen likha hai

Udan Tashtari said...

बेहतरीन गज़ल.

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया लिखा है !!

Mishra Pankaj said...

सुन्दर गजल और मौलिक भी

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