सोमवार, 28 सितंबर 2009

ऐ दिल खुदा से बात कर

ऐ दिल खुदा से बात कर!
ऐ दिल खुदा से बात कर!!

जब शाम ही से सीने में
इक खलिश1 सी रह-रह उठे
सिर तौबा-तौबा कह उठे
ऐ दिल खुदा से बात कर,
ऐ दिल खुदा से बात कर!!

तन्हाईयां भरपूर हों
मजबूरियों की घुटन हो
सब तोड़ती-सी टूटन हो
ऐ दिल खुदा से बात कर,
ऐ दिल खुदा से बात कर!!

जब, जब यकीं उठने लगे,
जब रिश्ते अनजाने लगें,
जब अपने बेगाने लगें,
ऐ दिल खुदा से बात कर,
ऐ दिल खुदा से बात कर!!

जब भी भंवर कोई दिखे
जब हौंसले न साथ दें
और कोई भी न हाथ दे
ऐ दिल खुदा से बात कर,
ऐ दिल खुदा से बात कर!!



1 खलिश - दर्द की लहर, चुभन


इस ब्‍लॉग पर रचनाएं मौलिक एवं अन्‍यत्र राजेशा द्वारा ही प्रकाशनीय हैं। प्रेरित होने हेतु स्‍वागत है।
नकल, तोड़ मरोड़ कर प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा होने पर आत्‍मा की आवाज सुनें।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

तेरी चाह में ना कोई राह मिली








तेरी चाह में ना कोई राह मिली
बस कदम कदम पर आह मिली

किसके आगे हम दम भरते
तेरी उल्फत का, तेरी चाहत का
न तेरा इशारा कोई मिला
न ऐसी कोई निगाह मिली

तूने चाहे दुनिया के सुख
दिल के रुख की सुनी नहीं
तूने देखी मेरी तंगहाली
न तुझे रूह की थाह मिली

जो दिल दे उसको दुख देना
जो आस करे, बेरुख रहना
तुझे किस रकीब1 का पास2 मिला,
तुझे किस अजीज3 की पनाह मिली

जिक्र तेरा आता है जहाँ
हम तुझको दुआ ही देते हैं
हम अजनबी चटखे शीशों में
हर सूरत को ही कराह मिली





1 पास - निकटता, सलाह, सम्मान, पर्यवेक्षण    2 अजीज - प्यारा अपना    3 रकी - दुश्मन


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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

हमारा हदय उपवन

हमारा मन
परमात्मा रूपी परमरमणीय
आनन्द स्थली तक
पहुंचने वाला पथ है

हमारा मन, सावन की वह फुहार है
जो अपने भाव-अश्रुओं से
परमात्मा को अंकुरित करती है

परमात्मा के मधुमय अहसास से भरा हमारा मन
वह सुरभित पुष्प है
जिससे सारा उपवन महकता है

अपने मन से शोक का संहार करो
अपने मन को शुद्ध और दृढ़ बनाओ
जहाँ केवल परमात्मा फल फूल सके

अपने ह्रदय उपवन के चहुं ओर
दीवारें मत उठाओ
क्योंकि परमात्मा संकुचितता में
कुम्हला जाता है, मर जाता है

अपने ह्रदय के उपवन के द्वार खोलो
आने दो परमात्मा को भीतर
क्योंकि -
वही परम स्निग्ध छाया है
जिस तले जीवन के अंकुर फूटते हैं
वही हिमालयों से आई वह शीतल उर्वर पवन है
जिसमें उल्लासों की फुन्गियां लहलहाती हैं

अपने ह्रदय उपवन को
परमात्मा ही हो जाने दो
जिसका आदि ओर अंत न मिले

किस्मत हम नाशादों की

एक ही दौलत पास मेरे,
तेरे नाम ओ, तेरी यादों की
जो रस्में निभाने हम तरसे
जो नहीं किये उन वादों की

बस एक कसक सी रहती है
तुझ बिन जिए सावन भादों की
एक शिकायत खुद से है
रही कमी सदा ही इरादों की

जल भरे बादल परदेस गए
थी दिल पे घटा अवसादों की
शेष बचा बस रोना ही
ये किस्मत हम नाशादों की

बुधवार, 23 सितंबर 2009

कुछ भी तेरे बाद नहीं

मैं अभी भी उन राहों पर
सूखे पत्‍तों सा उड्ता हूं
जिन राहों पर आखिर बार
तुम मुझे तोड़ कर फेंक गए

मेरी आंखों में तुम ही तुम
मेरी सांसों में तुम ही तुम
मुझे खबर नहीं ऐ जादूगर
तुम कैसे मुझको देख गए

तेरी याद से मैं आजाद नहीं
दिल शाद नहीं नाशाद नहीं
देख कुछ भी तेरे बाद नहीं
लिख दीवानगी के लेख गए

हथेलियों में तलाशता रहता हूं
तुझसे रिश्तों की लकीरे मैं
थे कैसे गुनाह किए मैंने
कि मिट किस्मत के रेख गए


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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

झुमरी तलैया में।

हममें से बहुत सारे मनुष्य
उड़ना चाहते हैं।

या कम से कम
बचपन में दौड़ते, उछलते, कूदते समय तो
उनकी यह इच्छा
एक बार प्रकट होती ही है
कि काश!
वो भी किसी पक्षी की तरह उड़ पाएं।

पृथ्वी के असीम
रंग बिरंगे विस्तार में

सागर के किनारों से
बहुत भीतर तक

दूर आकाश में
पर्वतों की ऊंचाईयों
बादलों की गहराईयों तक

पर,
फिर पता नहीं क्या होता है
आदमी के साथ।

चिड़िया का भी परिवार बनता है
होते हैं-
उसके भी कई बच्चे
निभानी पड़ती है
उसे भी सारी दुनियादारी।
खुद और अपने परिवार को
खाने-पिलाने,
ढंकने सुलाने के लिए।

पर,
फिर पता नहीं क्या होता है
आदमी के साथ।

उलझ जाता है वो
किस चक्कर में
कि सारा दिन रात
नौकरी धंधे के अलावा
सारे सपने मर जाते हैं

न जाने क्यों, वो दो पैरों पर
चलने लायक भी नहीं रह जाता
रेंगने सा लगता है

और रेंगने वाले कीड़े मकोड़ों को
मौत की चील
कहीं भी,
कभी भी झपट ले जाती है।
हार्टअटैक,
दुर्घटना,
हत्या,
किसी भी बहाने से।
दिल्ली में,
बैंकाक में,
झुमरी तलैया में।

सोमवार, 21 सितंबर 2009

खुशी का आंसू, गम का आंसू

खुशी का आंसू, गम का आंसू, कैसे मैं पहचान करूं?
दोनों ही बहुत चमकते हैं, दोनों ही तो खारे हैं

बेबस मैं उम्रों-उम्रों तक, उस दिलबर का अरमान करूं
ख्वाबों में रहें या हकीकत में, मेरे जीने के सहारे हैं

मिले इक बार ही जीवन में, है उनका बहुत अहसान यही
उनकी यादों के भंवर में डूबे, हम तो लगे किनारे हैं

हमने था जिसे खुदा जाना, उसने ही समझा बेगाना
हैरान थे अपनी किस्मत से, कि हम कितने बेचारे हैं

नफरत करें या करें उल्फत, दोनों का अंजाम यही
उनके लिए हम ‘अजनबी’ हैं, वो सदा ही हमको प्यारे हैं

( पुर्नप्रेषि‍त)

शनिवार, 19 सितंबर 2009

बुरे वक्त में

बुरे वक्त में
परमात्मा को कोसा जा सकता है
बेधड़क शिकायतें की जा सकती हैं
तोड़ी जा सकती हैं सारी औपचारिकताएँ

बुरे वक्त में
बरसों तक, बस सुबह या शाम
अगरबत्ती और दिया जलाने से ज्यादा
रिश्ते बढ़ाये जा सकते हैं परमात्मा से

बुरे वक्त में
जब किसी को कुछ भी नहीं सूझता
कि क्या करे? कहाँ जाए?
ईश्वर को एक मौका मिलता है,
जो उचित है वही करने का।


बुरे वक्त में,
जब साया भी साथ छोड़ जाता है।
तब आप पहली बार हम जानते हैं-
काली परछाईयों से आजाद रहकर,
जीने का स्वाद क्या होता है।

बुरे वक्त में
धुलता है मन का दर्पण
जब आपको रह-रह कर याद आते हैं
चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने
लापरवाह हो, जो पाप किये।

बुरे वक्त में
उठते हुए क्रोध के बवंडर
आंसुओं की बारिश में बदल जाते हैं।
खिजां के मौसम, बहार में ढल जाते हैं।

बुरा वक्त, हमेशा नहीं रहता।
बुरा वक्त, आदमी की अकड़ कम करता है।
बुरा वक्त इंसान को, खुदा के करीब ले जाता है।

बुरा कहा जाने वाला वक्त,
शायद उतना बुरा नहीं होता।

बुरे वक्त में इतना कुछ अच्छा होता है,
तो क्या ऐसे वक्त को बुरा कहा जाना चाहिए?

बुधवार, 16 सितंबर 2009

वो बात न कर

जो दिल की जुबां से था बेगाना,
उस पागल की बात न कर।
जो तरसती धरती छोड़ गया,
उस बादल की बात न कर।।

रह-रह के रात गए बजती है,
हाए! उस पायल की बात न कर।
जो गया तो लौट के आया नहीं,
उस संगदिल की बात न कर।।

क्या मिलता है ख्वाबों यादों में,
उस हासिल की बात न कर।
जो निभाई है अपने वादों से,
उस मुश्किल की बात न कर।।

सारे जख्म जिस्म पर दिखते नही,
तू मुझ घायल की बात न कर।
हर्फ हर्फ में उसका तसव्वुर है,
तू शेर-गजल की बात न कर।।

नहीं जाने वीराने, क्या थी घुटन,
तू बस महफिल की बात न कर।
नहीं पूछा हुआ क्या कदम-कदम,
छोड़! ....बस मंजिल की बात न कर।।

जिससे टकरा-टकरा डूबे
तू उस साहिल की बात न कर
न पूछ क्या गुजरी ‘‘अजनबी’’ पे
बस आ गले मिल, कुछ बात न कर