सोमवार, 31 मई 2010

ख्वाबों का हकीकत हो जाना अपशकुन है।

मुझे किसी ने चाँद कहकर पुकारा था।
अब बरसों हो गये है...
बरसों से... हर रोज सवाल रहता है,
मैं आज को कैसे जिऊं?

मुझे नहीं पता,
इतना दिनों तक कौन जिन्दा रहा है,
मुझ में, मेरे सिवा।

मेरी पुरानी होती आंखों में
ख्वाब
वही बरसों पुराने और तरो ताजा हैं
बिना हकीकत में बदले।

लोग कहते हैं मुझसे
”सारे ख्वाबों का हकीकत हो जाना
अपशकुन होता है।“...........

और मैं पूछता हूं उनसे
ख्वाबों का आंखों में रहना,
क्या अच्छा शकुन है?
किसी भी उम्र के लिए?

आज भी
मेरी माँ
मुझे चांद कहती है।
मुझे लगता है
औरत होने का मतलब ही है
मेरी पगली माँ की तरह,
माँ होना।

और मैं पागल हूं
उसके लिए
जिसने मुझे चाँद कहा था
और बरसों तक जो,
अंधेरों में ही है।

मां सच कहती है -
ये भूत, पिशाच, चुड़ैलें, देवदूत और परियां
आदमी की जिन्दगी में ठीक नहीं।
ना सपनों में।

शनिवार, 22 मई 2010

आवाज दूं समन्दर को



अर्थों के किनारों तक
नहीं पहुंचती बहुत सी लहरें।

आंखों की गलियों के
बादल, बारिश से ये रिश्ते थे
उन बूंदों के नाम नहीं थे
इन्हें आंसू कहा,
जो कभी झरते थे,
कभी रिस्ते थे।

क्या कहते हैं उस अन्तर को?
सीने में फैली बाढ़
बहुत सी दीवारें तोड़ती है
मोड़ती है मेरा बर्हिमुखीपन
अन्दर को।
मचल सा जाता हूं कि दोस्ती करूं
आवाज दूं समन्दर को।

शुक्रवार, 21 मई 2010

मौत से निपटने के कई रास्ते हैं।



रेलवे ट्रेक के किनारे
कुछ मजदूर
मशीनों से निकले बड़े बड़े पत्थरों को
छोटे चौकोर अलंगों में तराशते हैं

ये लोग मूर्तिकार जितने पारंगत नहीं होते
इन लोगों को केवल उन चोटों का पता होता है
जिनसे किसी बड़े पत्थर का
एक नियत आकार का हिस्सा
चैकोर हो जाता है।

जबकि मूर्तिकार जानता है
सारे अनुपात।
घुमावदार कोणों पर,
चोटों की हल्की और भारी मात्रा,
उथलेपन, उभारों और गहराई के मायने।

मैंने पढ़ा है निराला की
”तोड़ती पत्थर“
और देखा है
पत्थर तोड़ता हुआ, पत्थर।

सूरज की गर्मी, त्वचा से उठते धुंए के बावजूद
हाथों-भुजाओं में उतरी ऊर्जा।

या ये मेरा भ्रम है
ये सब इंतजाम है
रोटी का नहीं
उस वक्त से बदला लेने का
जिसने उसे पत्थर बनाया है
जिसने उसे चैकोर किया है।

कि कोई पानी नहीं
टूटते हुए बदन पर
अन्दर और बाहर तक
ठर्रे का अभिषेक ही
इतनी राहत पहुंचायेगा
कि
कल तक फिर जिन्दा रहा जा सके!

झूठ है
मूर्तियां
अगले पिछले
ऊपरी या निचले उभार
झूठ हैं छैनी के
हल्के या दबावदार स्पर्श
झूठ हैं
अपने ही भीतर तक पड़ती
उथली और गहरी चोटें।

अधिकतर तो केवल यही सही है
कि आदमी चार कोनों वाला अलंगा है!
उसे किसी मकान की नींव बनना है।
या बंगले की बाउंड्री वाल में पेंट होकर सजना है।

मैं सोचता हूं
उस तोड़ते हुए पत्थर को
क्यों देखता हूं मैं?
क्योंकि मैंने निराला की कविता पढ़ी थी,
और मैं
गहरे भाग की व्यथा ही नहीं
उभरे हुए तल की बेबसी को गढ़ना चाहता था
साफ साफ।

या
अभी बहुत कुछ सीखना है आदमी को
बड़े बड़े पत्थरों को
बिना तराशे ही उपयोग में लेना।

या
मुझे कविता नहीं
उस आदमी के साथ
शाम के बेसुध होने के इंतजाम में
शरीक होना चाहिए।
और उसे समझाना चाहिए
कि यदि वह
मूर्ति बनाने की झंझट में नहीं पड़ना चाहता
तो क्या हुआ,
बेसुध होने के अलावा भी
मौत से निपटने के
कई रास्ते हैं।

शनिवार, 15 मई 2010

जालिम तेरी अंगड़ाई का क्या है



दीवारें-पर्दे-धागे, मंच-दर्शक पराये
कठपुतलियों की खुदाई का क्या है

कर दिखाने-मर दिखाने में, गुंजाइश है
वरना केंचुओं की लड़ाई का क्या है

मुझमें ही कुछ तूफान उठें हैं
जालिम तेरी अंगड़ाई का क्या है

अपनी ही नस चढ़ जाये तो दर्द है
लाख हो पीड़ पराई का क्या है

राधा ही कृष्ण थी, कृष्ण ही राधा थे
मीरा-रूक्मिणी की बड़ाई का क्या है

स्वाद तो है कुछ बनाने वाले में
शकर-पतीला-कढ़ाई का क्या है

अजनबी-परायों से रिश्तों में खींच है
जाने-पहचानों से लड़ाई का क्या है

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दृष्‍टि‍कोण
मैने अपने मनोचिकित्सक से कहा कि पता नहीं क्‍यों सब मुझसे नफरत करते हैं तो वो बोला - मैं उन लोगों से तो नहीं मिला पर तुम वाकई बहुत बेहूदा आदमी हो।

स्त्री होने के कई फायदे हैं वो रो सकती है, सुन्दर कपड़े पहन सकती है और किसी जगह डूब रही हो तो उसे ही लोग पहले बचाते हैं।

स्त्री शब्द के दोनों अर्थ एक समान है वो गर्म होती है, दबाती है और सलवटें निकाल कर अपने हिसाब से सल डाल देती है।

अगर प्यार अंधा होता है तो अंतःवस्त्र इतने प्रसिद्ध, प्रचलन और मांग में क्यों रहते हैं।

अगर आप बहुत आरामतलब हो गये हैं तो निश्चित ही आपको जंग भी लग गया होगा।

उस व्यक्ति की जिन्दगी भयावह और दुर्भाग्यपूर्ण है जिसका जीवन बहुत ही सामान्य बीता।

यदि आप आत्मविश्वास से भरे दिख रहे हैं तो कोई भी आपका फायदा उठा सकता है क्योंकि आपको खुद को ही पता नहीं होता कि आप क्या कर रहे हैं।


उन सब चीजों में से जिन्हें मैने खोया, मैं अपने दिमाग की कमी सबसे ज्यादा महसूस करता हूं।
- मार्क ट्वेन


बुरी याददाश्त, खुशियों की चाबी है, क्योंकि आप एक ही चुटकुले पर कई बार हंस सकते हैं।

कुछ लोग कहीं जाने पर खुश होते हैं और कुछ लोगों के कहीं भी जाने पर सब खुश होते हैं।

दृढ़ता और हठ में ये अन्तर है कि दृढ़ता मजबूत इरादे से आती है और हठ सिरे से किसी चीज को नकारने से।

पोषक आहार का पहला नियम है जो स्वादिष्ट है वो आपके लिए अच्छी चीज नहीं है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि महत्वपूर्ण चीज को कैसे महत्वपूर्ण रखा जाये।
- जर्मन कहावत

अतीत उस नाव की तरह है जिससे हम वर्तमान की नदी पार करें ना कि अतीत की नाव को सिर पर उठाकर नदी पार करें।
- राजेशा


आदमी के साथ खुश रहना है तो जरूरी है कि उसे आप समझें और थोड़ा बहुत प्यार दें पर अगर औरत के साथ खुश रहना है तो जरूरी है कि आप उसे ढेर सारा प्यार दें और भूल के भी उसे समझने की कोशिश ना करें।

मैंने खेलना नहीं छोड़ा क्योंकि मैं उम्रदराज हो रहा हूं, मैं उम्रदराज हो रहा हूं क्योंकि मैंने खेलना छोड़ दिया है।

अगर सब एक जैसा ही सोच रहे हैं तो मानिये कोई भी सोचने के मामले में गंभीर और अच्छी तरह नहीं सोच रहा है।

आप एक ही बार जवान होते हैं पर हो सकता है आप हमेशा अपरिपक्व रहें।

बुधवार, 12 मई 2010

दिल्लगी की मुश्किल


मुझको ये ईनाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से
‘‘दीवाना इक’’ नाम मिला है, उस संगदिल की महफिल से

डूबा, ये गम लेकर दिल में, कोई किनारा नहीं रहा
सारा नजारा देखा उसने, चुपचाप खड़े हो साहिल से

जिस पर की कुर्बान जान, भूला वही अनजान जान
हँस हँस के बातें करता है, महफिल में वो कातिल से

गली-गली में दिल को लगाया, शहर-शहर में धोखा खाया
अब क्यों नजरें किसी से मिलायें, मिली हैं नजरें मंजिल से

किस से, किसका शिकवा करते, अजनबी वो हमारा नहीं रहा
अब दिल की धड़कन डरती है, हर दिल्लगी की मुश्किल से

मंगलवार, 11 मई 2010

रोने गाने की आवाजें भी, कानूनों में ढलवाओगे ?




गहरी-गहरी बातें करना, शगल बड़ा बेरूखा है
पिछले पहर के सन्नाटों में, खुद को तन्हा पाओगे

जख्मी यादें, मीठी छुरियां और रिश्ते अनजाने सब
ढली जवानी के सायों में, तुम भी गुम हो जाओगे

रात अंधेरी, हाथ ना सूझे, लोग नींद में चलते हैं
किससे-किससे बच के चलोगे, कदम-कदम टकराओगे


गहरी सुरंगें, अनगिन रस्ते, सब पर मुर्दे बिखरे हैं
अपनी आसों की सांसों को, कब तक जिन्दा रख पाओगे

शेर गजल नजमों के कायदे, सि‍खलाये क्‍यों कोई हमें
रोने गाने की आवाजें भी, कानूनों में ढलवाओगे ?

सोमवार, 10 मई 2010






 



 उमाकांत मालवीय

झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।

जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।

शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।

पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?




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राजेशा 

पता नहीं क्यों लोग
किस लिए जिन्दा रहना चाहते हैं
हमेशा के लिए

पता नहीं लोग
किस उम्मीद में जिये जाते हैं
बरसों-बरस नौकरी, बीवी, बच्चे
ढेरों रिश्ते। ..........

जिनकी चुगलियां
अक्सर वो अपने
बहुत करीबी रिश्तों से करते हैं
जो नितान्त-जिस्मानी-रूहानी-करीबी रिश्ते
मौत के वक्त किसी काम नहीं आते।

पता नहीं लोग
क्या सोचकर अमर होना चाहते हैं
नौकरी करने के लिए?
बीवी बच्चे पालने के लिए?
ब्‍लागि‍न्‍ग करने के लिए?

और तो और
झोपड़पट्टियों की नालियों
और सफेद कालरों की सजी मैल में
पले रहे कीटाणु भी
हर सुबह दिये और अगरबत्तियां जलाते हैं
पता नहीं
किसी चीज का शुक्रिया अदा करने के लिए
या किस डर से
क्या और भी कुछ निकृष्टतम होता है
कीच में जिन्दा रहने से।

कितनी अफसोसजनक है ये बात कि
बेहद नाकुछ लोग
जो इस बात का जश्न मना सकते हैं,
अफसोस जाहिर करते हैं ...
कि हाय! वो ‘‘कुछ’’ नहीं है।

शनिवार, 8 मई 2010

शार्टकट कहीं नहीं ले जाता


सभी शार्टकट पर हैं


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो 
मैकाले सम्मत पढ़ाई करो
वैज्ञानि‍क, नेता, इंजीनियर, अभिनेता, विक्रेता बनो
बेच दो
आत्मा तक।
ये आत्मा ही तो सबसे बड़ी परेशानी है।




एक अजनबी बीवी ले आओ
अजनबी बच्चे पैदा करो
    अजनबी रहो ताउम्र बहुत अपनों से
    यहां तक कि अपने ही माँ बाप से


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
शादी कर लो
एक बुलाआगो
करोड़ जिम्मेदारियां पाओगे
सारे जन्मों के मक्सद भूल जाओगे।


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
सुख ढूंढो देह में।
सुख मिले ना मिले
सारी ऊर्जा चुक जायेगी
जो शायद जिन्दगी का मक्सद ढूंढने में काम आती।


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
60 साल तक अंधाधुंध नौकरी करो।


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
सैकड़ों चैनल्स वाला एलसीडी टीवी देखो
पहाड़ों, झीलों, जाग्रत ज्वालामुखियों वाले देशों के टूर करो
खुद को सांबा नृत्यों के नशे में चूर करो।


जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
ब्लागिंग करो।
ना तुम्हारा कुछ बनना बिगड़ना है टिप्पणियों से,
ना टिप्पणीकार का।




जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
समाज सेवा करो।
दान पुण्य करो!
राहू केतु शनि के मन्दिरों में
तेल, उड़द, मूंग दाल चढ़ाओ।
जिसके स्वाद से अनभिज्ञ
इथियोपिया में कई रूहें
जिस्म से अलग हो रहती हैं।




जिन्दगी का मक्सद समझ ना आये तो
कोई हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या सिक्ख ईश्वर पकड़ लो।
पकड़ लो करोड़ों में से कोई देवता।
पीर फकीर!


मरों में विश्वास ना कर पाओ तो
जिन्दा गुरू पकड़ लो।
जिसे अन्दर ही अन्दर अपने पर अटूट विश्वास हो
कि हजारों हैं मुझे मानने वाले
मुझमें कुछ तो होगा, मैं कहीं तो पहुंचूंगा।




मगर गुरू
जिन्दगी का मक्सद समझने के
इतने शार्टकट अपनाने के बाद भी
चैन ना पाया,
तो कहां जाओगे?
लौट कर
अपने तक ही आओगे।


तो क्‍यों ना 
सबसे पहले अपने को ही समझ लो ।
शायद यही
जिन्दगी का मक्सद समझने का रास्ता भी हो
और मन्जिल भी।


नहीं?

सोमवार, 3 मई 2010

रूठ गये गर तुम ही मुझसे, कहो फिर मेरी ठौर कहां है



चि‍त्रांकन : राजेशा

रूठ गये गर तुम ही मुझसे, कहो फिर मेरी ठौर कहां है

गले लगाया तुमने ही तो, मेरे जलन भरे सीने को
तेरे ही तो होंठ हैं प्यासे, मेरे सारे गम पीने को
दर्द भरी धड़कने मैं जी लूं, मुझमें इतना जोर कहां है।
रूठ गये गर तुम ही मुझसे, कहो फिर मेरी ठौर कहां है

इन रेशम केशों की छाया, जीवन की हर धूप भुलाती
इस चेहर की चंद्रप्रभा ही, दुनियां की हर रात सजाती
ये मुस्कान तेरी है सब कुछ, वर्ना कोई भोर कहां है
रूठ गये गर तुम ही मुझसे, कहो फिर मेरी ठौर कहां है

केवल एक तुम्हीं तो मेरे, जीवन का आधार प्रिये
केवल एक तुम्हीं तो मेरे, सपनों का संसार प्रिये
तुम ही मौन हुए तो मेरी, इन सांसों का शोर कहां है
रूठ गये गर तुम ही मुझसे, कहो फिर मेरी ठौर कहां है

शनिवार, 1 मई 2010

फिर से सोचिये।



देश, धर्म, लोक-परलोक कुछ नहीं बस सोच है,
इन सोचों में बंटा-बंटा क्या है? फिर से सोचिये।

दुख आयेगा, डर लायेगा, दर्द के बादल छायेंगे
हर सुख के बाद घटा क्या है? फिर से सोचिये।

दुश्मन रोज मिला करता है, रखता खोज-खबर अपनी,
दोस्त के दिल में घटा क्या है? फिर से सोचिये।

बचकाना बचपन, जली जवानी, बेकार बुढ़ापा आ ठहरा
उन उम्रों में कटा क्या है? फिर से सोचिये।

ताजा बचपन, जोशीली जवानी, घाघ बुढ़ापा मजे करो
हर उम्र की अपनी छटा क्या है? फिर से सोचिये।

रोबोट गढ़े हैं, देह में अंग जड़े हैं, कई ग्रहों पे चढ़ाई की,
सिर पर अतीत की जटा क्या है? फिर से सोचिये।


दृष्‍टि‍कोण

आंखों से ना दिखने के लिए उनका पूरा खराब होना जरूरी नहीं। आंख में एक तिनका भी चला जाये तो सारा संसार लुप्त हो जाता है।
- महात्मा गांधी

‘‘हमेशा’’ और ‘‘कभी नहीं’’ ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें हमेशा याद रखें कि कभी भी इस्तेमाल नहीं करना है।

हमेशा अपने दुश्मनों को माफ करें क्योंकि इसके सिवा कुछ नहीं जो उन्हें सर्वाधिक गुस्से से भर दे।
- आस्कर वाइल्ड

हमेशा याद रखें आप दुनियां में वैसे ही अकेले और अनूठे हैं जैसे आपके सिवा हर कोई।

सुन्दरता वो नहीं जो आप सोचते हैं। महत्वपूर्ण यह बात है कि आपका मन कैसा अहसास कर रहा है। एक सामान्य नाई की दुकान पर 20 रू में उतनी ही सुन्दर कटिंग कराने में कोई मजा नहीं जो 1000 रूपये देकर ब्यूटी पार्लर में कराई जाये।

जब आप 80 वर्ष के हो जायेंगे तब आप सब कुछ सीख चुके होंगे, अगर आप उसे (जो सीखा है) याद रख सकें।

आप 8 घंटे नौकरी करके भी वो सब पा सकते हैं जो आपका बॉस 12 घंटे काम करके पाता है।

कपड़े समाज को बनाते हैं। नंगे लोगों का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
- मार्क टवेन


सुझाव वो चीज होती है जिसे हम तब किसी को देते हैं जब हम खुद उसका उत्तर जानते हैं, पर हम चाहते हैं कि हम उसे ना समझें।
- एरिका जान्ग

 
स्टाम्प टिकिट का महत्व जानिये जनाब, ये तब तक उस चीज से चिपका रहता है जब तक कि ये चीज वहां पहुंच ना जाये।

गलतियां वो चीज हैं जिन्हें हर आदमी अनुभव का नाम दे देता है।
- आस्कर वाइल्ड


वो जो सबसे आखिर में हंसता है, शायद चुटकुले का अर्थ नहीं समझा होता।

दूरदर्शन वाकई बहुत शिक्षाप्रद चैनल है। मैं जब भी इसे चालू करता हूं कोई किताब लेकर दूसरे कमरे में पढ़ने के लिए चला जाता हूं।