हर आयी हुई सांस
बस पल भर ठहर कर सीने में
फिर कुछ नया लेने
आकाश में जाती है!
हमारे मशीनी जिस्म का
हमेशा ताजा जिन्दा रहने का
यह अनूठा कुदरती तरीका है
फिर पता नहीं क्यों
मैं
हर शाम
धुंधली रोशनी में
गुजश्ता अहसासों के
जहरीले जंगलों में
क्या ढूंढता हूं
मैंने सांसों को रोका है
आकाश में बिखर जाने से पहले
और
आह की तरह जाहिर किया है
भावनाओं की छोड़िये
मैंने जिस्म की उत्तेजनाओं को भी
किताबों के कहने पर
जब तब कुचला है
उन किताबों के कहने पर
जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा
अतीत से बदला
और वर्तमान पर चढ़ बैठने की खुन्नस में
कभी भी, कहीं भी लिख मारता है
और हद है नासमझी की
लोग
किताबों की टीकाओं पर भी
किताबें लिख मारते हैं।
मैं सपनों में भी रंगीन बादलों को
काला और सफेद बनाकर देखता हूं
पर रूई के फाहों का,
कोई गणित होता है क्या?
शर्म नहीं आती,
लोग आती-जाती गजलों को
अपनी गिनतियों में रखते हैं
कि मरने से पहले
किसी हवस को वाह-वाही का कोई पंखा झलता रहे।
जन्मो-जन्म बेहोशी का इंतजाम चलता रहे।
और उस गणित की परवाह ही नहीं -
कि बेहोशी में
पिछले 54 जन्म निकले हैं
और इस बार भी
उम्र छठवें दशक को पार करती है।
मेरा खुद से बस यही कहना है
कि
आती जाती सांस की तरह ही
हिसाब मत रखो
उन खूब-औ,-बदसूरत ख्यालों का
मत इकट्ठा करो
जहन के शीशे पर
कोई भी रंग
भले ही वो सफेद ही क्यों ना हो
क्योंकि
कोई भी रंग ढंक देता है
पारदर्शिता
और
पारदर्शिता में ही दिख सकता है
शीशे के इधर और
उधर का
हकीकत जहान।
4 टिप्पणियां:
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
वाह!बहुत खूब!अद्भुत!
कुंवर जी,
are vaah..........bahut gahrayi mein utar gaye.........gazab ka likha hai.
gahre arth liye sunder abhivykti..........
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