सोमवार, 5 अप्रैल 2010

लोग चुप नहीं बैठते


लोग चुप नहीं बैठते

उन दिनों भी
जब नर्क की यातनाएं भोगते हैं।

जब मुंह अंधेरे, रोज सुबह शाम
किसी काली पैसेंजर ट्रेन में डेढ़ घंटे तक
अपने ही जिस्म से बलात्कार करते हैं।

और फिर दसियों घंटे
किसी बनिये की दुकान पर
सामान यहां से वहां रखते हुए
गंध छोड़ते हुए बोरों,
मर्तबानों, तेलों के कनस्तरों को ढंकते हुए

किये ही जाते हैं
नजरों, इशारों, मजबूरियों,
जरूरियों और अन्य
तरह तरह के विकट आसनों में
बनिये से, ग्राहक से
और जब कानों से सब चुप हों
तो खुद से ही
बड़ बड़ बड़ बड़

कभी अभाव
कभी महंगाई
कभी मिलन की ऊब
कभी जुदाई
और जब सब सटीक हो
सब ठीक हो
तब भी
... कुछ और भी.... की हवस बयान करते हुए
करे ही जातें हैं
बड़ बड़ बड़ बड़

ग्लोबल वार्मिंग की
एक वजह ये भी है
आदमी के जिस्म से निकली ऊर्जा
कहीं नहीं खप रही
सुखा रही है
धरती का पानी
पिघला रही है ग्लेशियर
खा रही है सारे दृश्य-
आदमी से बाहर के,
आदमी के भीतर के।

क्या आपने नहीं देखा
अकेले होने पर भी
कुर्सी या जहां आप बैठे हैं
वहां से लटके हुए पैर
हिलते रहते हैं
यहां वहां चलते रहते हैं
हाथ
उंगलियां
कभी कान में
कभी नाक में
जुबान से नहीं तो
अन्य अंगों से
बड़ बड़ बड़ बड़

कोई भी उम्र फरेब से नहीं बची है
कभी बचपन का खेल
कभी जवानी की बेहोशी
कभी प्रौढ़ता की पशुता
कभी बुढ़ापे की बेचारगी
हर सांस में
मैंने सब कुछ किया है
मौत की तैयारी के सिवा

बरसों बरस
दिन ब दिन करीब आती मौत का
इश्तहार करते हुए
सारी इंसानि‍यत को बीमार करते हुए
लोग चुप नहीं बैठते
ब्लॉगिंग
बज्जिंग करते हैं।

नहीं नहीं जनाब
हम आपकी बात नहीं कर रहे
आप मुझे ही लो ना।

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

यथार्थ .. सच ... और व्यंग का माध्यम ... कठोर सत्य को बेरहमी से परोस दिया है इंसानों ( मेरे भी ) के सामने ... बहुत अच्छी रचना .....

Amitraghat ने कहा…

"मौन से लोग डरते हैं भय खाते हैं..इसीलिये लोग कुछ न कुछ करना चाहते हैं ....क्या रवानगी है कविता में शुरू से पढ़ी और अंत में खत्म हुई.."

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