Sunday 31 January 2010

बुरा लोग मानेंगे


संभल के चल, जो हुई खता, बुरा लोग मानेंगे
बुरे को भी, जो बुरा कहा, बुरा लोग मानेंगे

‘‘जर्रा-जर्रा यहां खुदाई’’, दुनियां कहती है
तूने खुद को खुदा कहा, बुरा लोग मानेंगे

‘‘कायदे से बात कर’’ सभी लोग कहते थे
तो कहा नहीं मैंने कायदा, बुरा लोग मानेंगे

मिलें कभी तो दुनियां भर की, लोग कहते थे
मैंने न कहा ‘क्या है माजरा?’, बुरा लोग मानेंगे

इश्क, मजहब, ईमान पर तकरीरें होती हैं
सुन लेते हैं हमें है पता, बुरा लोग मानेंगे

जिसके सजदे उम्र भर मैंने किये ‘अजनबी’
क्यों कहूं उसको खुदा, बुरा लोग मानेंगे

Saturday 30 January 2010

सब का सब सच्चे जैसा था


खुद ही दिल में आग लगाई
खुद नैनों की नींद उड़ाई

हम तो सबकुछ भूल गये थे
आप उन्हीं ने बात बताई

बदनाम हमें क्या करती दुनिया
खुद कालिख ले माथे लगाई

सब का सब सच्चे जैसा था
जो भी झूठा दिया दिखाई

सब मेरी ही चुनी हुई थीं
पड़ी जो कड़ियॉं मेरी कलाई

जमाने भर की जलन थी जो भी
आन मेरे जी में ही समाई

Tuesday 26 January 2010

पाकि‍स्‍तान में महि‍लाओं के बुरे हाल,

ये अलग बात है कि‍ हम भारत में हुए ऐसी दुर्घटनाओं अपराधों की तस्‍वीरें नहीं प्राप्‍त कर सके ।



 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 




Friday 22 January 2010

बात नहीं समझानी आयी



पढ़ते पढ़ते हम सोये तो, ख्वाब में वही कहानी आयी
इक पहचाना दिवाना दिखा और सूरत इक बेगानी आई

लाल उजाला, हरा अंधेरा और दूध सा सूरज भी था
जो भी देखा, तुझको पुकारा, हर इक तेरी निशानी आई

सच कहते हैं कब दिखता है, दिल में छुपा हुआ आंखों को
कभी कबीरा मुस्काया और, कभी-कभी मीरा दीवानी आई

कोरी किताब तरसती रह गई, पढ़े जमाना काली चीजें
नींद रही नैनों की चौखट, होश से नहीं निभानी आई

नाम ले तेरा लब मेरे सूखे, हलक में सूखी प्यास रही
मैं गूंगा और सब बहरे थे, बात नहीं समझानी आयी

Monday 18 January 2010

प्रकृति से सम्बन्ध

अकेले हो रहने में ही अनन्‍त शक्‍ि‍त और अनन्‍त मुक्‍त शक्‍ि‍त में ही आनन्‍द नि‍हि‍त है।
प्रकृति‍ और हम अलग नहीं, प्रकृति‍ को नष्‍ट करना स्‍वयं को नष्‍ट करना है।
http://jkrishnamurthyhindi.blogspot.com/

Saturday 16 January 2010

फिर तेरे इशारे___



जीना मुश्किल, और चुप्पा दिल
वक्त का वार है, कैसे सहें?

रोते गीत हैं, जहरीले मीत हैं
छंदों में इन्हें, कैसे कहें?

जिन्दा तो लानत, मरे तो अमानत
इस प्रेम के नद में कैसे बहें?

दोपहर चढ़ी और रात भी बढ़ी
चि‍न्‍ताओं के पर्वत कैसे ढहें?

नैनों के काम, रहे सदा बदनाम
फिर तेरे इशारे, कैसे गहें?

Wednesday 13 January 2010

अपना ईमान बचाकर रखिये




चाहे खूब छिपाकर रखिये
दिल में आग जलाकर रखिये

खुद से दुश्मनी मंहगी पड़ेगी
खुद को दोस्त बनाकर रखिये

इच्छाओं का जोर बहुत है
अपनी जान बचाकर रखिये

उससे सहमत होना मुश्किल
अपना ईमान बचाकर रखिये

रोना धोना बहुत है जग में
मन मुस्कान सजाकर रखिये

झूठ के बाजारों में ना खोना
सच से सदा निभाकर रखिये

Monday 11 January 2010

सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन



कल सा नहीं, कि जाय बीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन

हो सुबह रंगीन सूरज, सूनी सफेद दोपहरें हों
सुनहली सांझ आंमत्रण दे, या चांद तारों के सेहरें हों
पा के सब कुछ रहता रीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन....

डूबे सूरज से लाली ले, लब आये कर रंगीन शाम
महीन सुरमई साड़ी में, गालों पे लाली ले जहीन शाम
कहीं ना फिर भी पाये सुभीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन

यादों के खंडहर, बीती राहें और खोई नि‍गाहें
आहें कितनी ठंडी हों, किसे मिलती परायी चाहें
खुश, अतीत में लगा पलीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन 

हमसे हुई जो दि‍ल्‍लगी,  बात उसने दि‍ल पे ली
बेजा पछताते रहे वो,  रात हमने खूब पी
 नींदों में उधड़े ख्‍वाब सीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन  

कल सा नहीं, कि जाय बीता, मेरा अकेलापन
सांस-सांस मेरे संग ही जीता, मेरा अकेलापन

Friday 8 January 2010

तुम ही हमारे सनम ना हुए



तुझको भूल गये हैं लेकिन, जिन्दगी के गम कुछ कम ना हुए
दुनियाँ बड़ी, खो गये तुम कहीं, तुमसे जुदा क्यों हम ना हुए

आंखों में तेरा चेहरा रहा, और रूह में तेरी तमन्ना रही
हम ही शमां, हम ही परवाने, तुम ही हमारे सनम ना हुए

शीशे-मिट्टी से टूटते रहना, छलकना जाम से सीख लिया
रोज ही ली, और रोज ही तोड़ी, कोई पुख्ता कसम ना हुए

मयखाने के दरवाजे, तंग गलियां और गलत घर जान गये
तुम ही बस अनजान रहे कि, कम मेरे रंज ओ अलम न हुए

दुनियां भी संग रोई, रोया जब मेरा दिल कर याद तुझे
तेरी बेरूखी बदलियां उड़ गई, दो फाहे भी नम न हुए

Tuesday 5 January 2010

एक प्‍यारा फि‍ल्‍मी गीत और एक नया अन्‍तरा

खुदाया वे! हाये!!! इश्क है कैसा ये अजीब रे
दिल के करीब लाया, दिल का नसीब रे - 2
खुदाया वे! हाये!!! इश्क है कैसा ये अजीब रे

आखों से ख्वाब रूठे, अपनों के साथ छूटे
तपती हुई राहों में, पैरों के छाले फूटे......
प्यासे तड़प रहें है, साहिल करीब रे - 2
खुदाया वे! हाये!!! इश्क है कैसा ये अजीब रे

आंसू नमक से लागे, रिश्ते हैं कच्चे धागे
रेत पे अपने साये, खुद से क्यों दूर भागे
खींच के हमको लाया, कहां पे रकीब रे - 2
खुदाया वे! हाये!!! इश्क है कैसा ये अजीब रे

जब भी है गाना चाहा, दर्द ही लब पे आया
उम्रें हैं गुजरी लाखों, फिर भी मिला ना साया
जिसको भी माना अपना, लाया सलीब रे - 2
खुदाया वे! हाये!!! इश्क है कैसा ये अजीब रे
यहाँ पर गीत का अंतिम अंतरा ‘‘राजेशा’’ ने गढ़ने की कोशिश की है।
फिल्म - लक, गायक-सलीम मर्चेंट, गीत- शब्बीर अहमद

क्‍या आपने  हि‍न्‍दी युग्‍म पर 36वें यूनि‍कवि‍ के रूप में
 हमारी कवि‍ता "नाराजगी का वृक्ष" पढ़ी ??
नहीं तो ये लि‍न्‍क देखें- http://kavita.hindyugm.com/

Monday 4 January 2010

कुछ पुराना सा नई शक्‍ल में




ऐसा लगता है कि जिन्दगी मुझ पर अहसान कर रही हो और रोज गिन-गिन कर चढ़ती उतरती सांसे दे रही हो-
जिन्दगी के टुकड़ों पे पलते दिखे
अहसान लादे सिर पे हमते चलते दिखे

जब कभी भी दुनियां के जलवे देखे, एक आह सी उठती रही कि काश ऐसा ही नजारा अपने साथ भी होता, काश ऐसा करारा अहसास, मजेदार अनुभव हमें भी होता,  पर-
दिल में दल-दल थे कई इच्छाओं के
जहर के कई बुलबुले उबलते दिखे

कई मगजसमृद्ध लोग जो जवानी में... अपने उफान में कहते थे कि ‘‘वो ये कर देंगे वो कर देंगे’’, आखिरी समय में बड़े ही दीन-हीन अवस्था में, लाचारी व्यक्त करते मिले, दुनि‍यां को समझा-समझा कर हार गये और -
दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे

कई लोग देखे जो सारा दिन की पाप कर्मों की यात्रा पर निकलने से पहले रोज नियम से सुबह 5.30 बजे हनुमान जी के मन्दिर में अगरबत्ती दिया लगाते थे, कई नियम से रविवार के रविवार सत्संग भजन में जाते थे, कुछ नमाज पढ़ते थे, कुछ रोज सुबह सुबह मंत्र पढ़कर पड़ोसियों को जगाते थे या डराते थे पता नहीं? पर ये भी पता नहीं वह दुनियां को धोखा दे रहे थे या अपने आप को -
दान-पुण्य, सत्संग-भजन, जप-तप, नमाज
आदमी तो आदमी, खुद को छलते दिखे

रिश्तों में भी कोई गहराई नहीं देखी, बहुत ही उथलापन आ गया है, संवेदनाओं-भावनाओं अपनेपन की नदी सूख चुकी है और इस नदी की यात्रा में इसके सीने में छुपे तीखे धारदार पत्थर पांवों को छालों से भर देते हैं। कौन सा रिश्ता निःस्वार्थ रह गया है? सारे जमाने में ढूंढो... सच्चे दोस्त छोड़ो, दोस्ती का नाटक करने वाले दोस्त भी नहीं मिलते। आदमी रोता-गाता ही रह जाता है ‘‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले झूठा ही सही’’ -
दोस्त-प्रेमी, माँ-बाप-भाई, मामा-मौसी के चोंचले
रिश्तों की विषबेल लपटों में क्या नहीं जलते दिखे

गांव में सोचा की गंवार लोग होते हैं चलो शहर में रहते हैं पर छोटे शहर महानगरों की संस्कृति को पछाड़ रहे थे। सारी चालाकियां, धोखे सीधे आयात कर लिये गये थे, और दिल्ली ही नहीं हमारे कस्बे की गलियों में भी हर तरह का डुप्लीकेट माल मिल रहा था। कस्बों के लोग ज्यादा तेज, चतुर और घाघ हो गये थे -
जंगलों से बहुत डर कर शहर का जो रूख किया
सांप, बिच्छू भेड़िये, आस्तीनों में पलते दिखे

ईमानदारी, धर्म और सिद्धांतों की बातों किताबों में दफ्न हो गई हैं। लोग सब कुछ कहते हैं धर्म के नाम पर, इंसानियत के नाम पर, धरती को बचाने जैसी बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, प्रेम इंसानियत की दुहाई दी जाती है पर कार, गीजर, ऐ.सी.  से लेकर गर्म गोश्त तक किस चीज का लालच कौन छोड़ पाया है। महात्मा गांधी, मजबूरी का नाम हैं।
ये वफा का शोरबा, बीमार दिल का स्वाद है
आजकल के मजनू रोज, नई उत्तेजना तलते दिखे

और अब समग्र -

जिन्दगी के टुकड़ों पे पलते दिखे
अहसान लादे सिर पे हम चलते दिखे
दिल में दल-दल थे कई इच्छाओं के
जहर के कई बुलबुले उबलते दिखे
दुनियां बदलने की सनक जिन पे दिखी
ढलती उम्र में हाथों को मलते दिखे
दान-पुण्य, सत्संग-भजन, जप-तप, नमाज
आदमी तो आदमी, खुद को छलते दिखे
दोस्त-प्रेमी, माँ-बाप-भाई, मामा-मौसी के चोंचले
रिश्तों की विषबेल लपटों में क्या नहीं जलते दिखे
जंगलों से बहुत डर कर शहर का जो रूख किया
सांप, बिच्छू भेड़िये, आस्तीनों में पलते दिखे
ये वफा का शोरबा, बीमार दिल का स्वाद है
आजकल के मजनू रोज, नई उत्तेजना तलते दिखे