मंगलवार, 29 सितंबर 2015

सैर पर विचारों के पर


हालांकि आज भी सुबह सुबह जागना अनायास नहीं होता. आज भी नाक बंद सी लगी, छींकें आईं और आंखें भींचकर सोते रहने की वजह ना दिखी तो उठ गये। सुबह सैर पर निकले अधिकतर मनुष्य अपनी ही तरह बकवादी, बड़बड़ाते और सपने में चलते से नज़र आते हैं। क्यों.... क्या जब आप सैर पर जाते हैं तो निर्विचार होते हैं? तो आंखें, कान, नाक, मन यदि स​क्रिय है तो सैरगाह में यत्र तत्र विषय होते हैं और मन में विचारों की रेलमपेल.

शाहपुरा झील पर कल—परसों विसर्जित किये गये गणेशों की सैकड़ों छोटी—बड़ी मूर्तियां थीं। जिस दिन मैं गणेश जी की स्थापना के लिए गणेश जी की छोटी सी मूर्ति खरीदने स्थानीय बाजार पहुंचा तो छोटा सा मिट्टी का लोंदा 50 रू से कम ना था. वह आकार जिसमें गणेश जी स्पष्ट नज़र आते थे उस आकार की मूर्तियां 100- 200 से कम की ना थीं। आज झील किनारे कूड़े कर्कट में सैकड़ों ऐसी मूर्तियां थी जो उस दिन 500 हजार और हजारों रूपये की बिकी होंगी।

दस दिन इन गणेशों मूर्तियों ने फूलों के हार पहने, हरी—हरी दूर्वा, मोदक, देसी घी के लड्डुओं के भोग—भोगे, एल..डी. के प्रकाश में नहाये, स्तुतियां और आरतियां सुनीं और फिर मनुष्य के अबूझ मन ने उन्हें आम समझ सम्मत वो जल समाधि दी जिसमें देवता की देह को पलट कर, देखा भी नहीं जाता। मुर्दे को भी हम भलीभांति दफनाते या जलाते हैं... उसकी राख का भी उचित इंतजाम करते हैं कि किसी के पैरों में ना आए, दूषित जगह ना जाये पर इस स्थापित देवता का वो हाल होता है कि बस..

पानी कम है स्थापित किये जाने वाले देवता की मूर्तियां ज्यादा... प्लास्टर आॅफ पेरिस की मूर्तियां बने...किसी शास्त्रग्रंथ में नहीं लिखा, पर बनती हैं, सुंदर साफ सजीली दिखती हैं महंगे दाम देकर खरीदी, स्थापित और विसर्जित की जाती हैं पर ढेर सारा कचरा बनाती हैं। सारी झील के किनारों पर प्लास्टिक की पन्नियों, शाम को लगाये जाने वाले चाउमिन, चाट, पेटिस के ठेलों से निकले कागजप्लास्टिक के दोने प्लेटों जूठन के बीच मंडराते कुत्ते सुअरों के सानिध्य में गौरी पुत्र गणेशकी औंधी आड़ी तिरछी उघड़ी मू​र्तियां... कुछ ही दिनों बाद उनकी माता गौरी की मूर्तियां भी स्थापित की जाएंगी... और उनका भी यही हश्र होगा। पता नहीं हम मूर्तिपूजक हिंदुओं की श्रद्धा का सिरपैर क्या है?

एक दिन इसी ​मूर्ति चिंतन के बीच मैंने सोचा क्यों ना कागज के कैलेण्डर पोस्टर ही लगाकर 10 दिन की गणेश पूजा कर ली जाये या लुगदी की बनी मूर्तियां स्थापित की जायें— जो मिनटों में जल में लीन हो जायें, प्रदू​​षण ना फैलायें और जाते जाते आदमी की आत्मा को देह से मुक्ति की सुगमता का भान कराकर शांति दे जाएं।

कायदा तो कुछ और ही कहता है कि मूर्ति् खरीदी ना जाये, जैसी भी बनें, खुद बनाईं जाये। यही वजह है कि हमारे प्राचीन मंदिरों में अनगढ़ पत्थरों की पिण्डियां, और आड़ी तिरछे देव विग्रह मिलते हैं... पर पूजने वाले द्वारा गढ़े गये। मूर्तिपूजा बचपन के खेल खिलौने वाले गृहस्थिी के सेट जैसी है घर की सारी चीजें होना जरूरी हैं... पर खेल है कुछ दिनों का, जिंदगी भी चार दिन की। रामकृष्ण परमहंस ने मां को मूर्ति में पूजा, ख​​ंडित को भी जोड़जाड़ कर जुगाड़ कर काम चलाया। किसने कहा कि वो परमब्रह्म से परिचित ना थे? पर देह, संसार स्वप्न है और जो ना जागे, अच्छी नींद के लिए, सपने में सुख के लिए... देह के कायदों में रहना पड़ता है...

मैं मूर्ति विसर्जन के बारे में नहीं, असल में... सुबह की सैर पर निकलने पर आये विचारों के बारे में बात करता था। ये सब विचार में चलता है कि लोगों की पूजा पाठ कैसा है... चैनल पर आने वाले ज्योतिषी पंडितों बाबाओं द्वारा संचालित, अपनी और से ईश्वर द्वारा दी गई कुछ ग्राम की बुद्धि का रत्ती तोला माशा भर भी उपयोग नहीं। मछलियों को ब्रेड कुतर कुतर डाल रहे हैं, मछलियां मरें या जिएं पर हमें मछली को दाना डालने का पुण्य मिल जाये। कुत्तों को ग्लूकोज के बिस्किट डाल रहे हैं, कुत्ता खुजा खुजा कर मर जाये हमारी बला से... काले कुत्ते मरेंगे हमारे शनि कटेंगे। खुद तो अंटशंट अंडशंड खा रहे हैं, बाहर भी फेंक रहे हैं... गिलहरियां खा रहीं हैं..मर रहीं हैं... वही गिलहरियां जिनकी देह पर रघुपति राघव राजाराम के हाथ फेरने पर बनी धारियां हैं।

मुंडेर से गौरेया और कौए कब गायब हो गये पता नहीं चला, अब महीनों सालों में शहर से कहीं इधर होने पर ही इनके दर्शन नसीब होते हैं। खुद के ही होश नहीं...पर्यावरण का ध्यान खाक रखेंगे। सुबह ही फट​फटियों और चौपाया कारों से सारी ​सड़कें काली धुएं और धूल से पट जाती हैं। आप सुबह की सैर को शहर में किस ओर जाएंगे ? या तो उन छोटे छोटे मैदानों में कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटिये जो नगर विकास संस्थाओं ने आपके मोहल्लों में रहम कर बना दिये हैं, जहां कुत्ते घुमाने वाले कुत्ते घुमाते हैं उन्हें सुबह सुबह निवृत्त कराते हैं। जो दोपहर और रात को शराबियों जुआरियों के अडडे बन जाते हैं, असामाजिक गतिविधियों की योजनाएं बनाने के एकांत के रूप में काम आते हैं। मोहल्ले के बाहर जाती स्कूल कॉलेज जाने वाली सड़कों पर भारी भरकम बसें, और अन्य तेजरफ्तार वैन, दूध बांटने वाले तिपहिया अलसुबह सुबह ही निकल पड़ते हैं। किसी तालाब या नदी किनारे जाएंगे तो मन और खराब होगा जब आप पाएंगे कि यहीं से आपके घर पानी की आपूर्ति होती है और इन तालनदियों के किनारों पर कस्बों-शहर के गटरों के मुहाने भी खुलते हैं

फिर बड़े क्रांतिकारी विचार आये कि ये होना चाहिए, ऐसे होना चाहिए.. डू द न्यू, डू द न्यू नाउ, एक नयी वेबसाईट, एक नया कैंपेन.. जिसमें सारी चीजें व्यस्थित करने के लिए जो करना है तुरंत करें. कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत अस्तित्व से कुछ बहुत ज्यादा होता है... कहीं भी 5 व्यक्ति मिलें और शुरू हो जाएं मोहल्ले की नियमित सफाई के लिए... गांधी की तरह. नालियों, सड़कों गलियों की सफाई के लिए ताकि मन की गलियां और रास्ते भी साफ हों। और जब सुबह सुबह सैर को निकलें तो मन में  कूड़ा कर्कट विचारों और विर्सर्जित श्रद्धा का जमावड़ा ना हो, उस पर कुत्ते निवृत्त ना हो रहे हों, सुअर ना लोट रहे हों। सुबह सुबह की सैर के दौरान जो औरतें बड़बड़ाती दिखें वो भजन गा रही हों ना कि बेटेबहूपोतेपोतियों को कोस रही हों। आदमी परेशान ना दिखे, क्योंकि अव्यवस्था ही सारी परेशानियों की जड़ है। आदमी सुबह सुबह मंत्र बड़बड़ाते दिखें... सर्वे सन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:... सभी सुन्दर सुखी दिखें और ​दुख किसी के हिस्से में भी ना आए..

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