जन्म के ही संग मिलीं हैं,
इच्छा की विषधर फुफकारें
उम्रों रही सिखाती जिन्दगी
आभावों को कैसे बिसारें
अपना किया ही सबने पाया
फिर लगता बेमजा क्यों है
जुर्म क्या? ये सजा क्यों है?
माई-बाप की अपनी उलझन
बचपन के रहे अपने बन्धन
जवानी ने बेईमानी दिखाई
उम्र गई, राग रहा ना रंजन
लगे अब, सब बेवजा क्यों है?
जुर्म क्या? ये सजा क्यों है?
जितनी भी सुविधायें पाईं
सत्पथ पर बाधायें पाईं,
चुनौतियों से जितना भागे,
उतनी ही मुंह-बाये आईं
दिल दिमाग का द्वंद्व क्षय है
फिर ये क्षय ही बदा क्यों है?
जुर्म क्या? ये सजा क्यों है?
क्या करना है, क्या नहीं करना
लगा रहा उम्रों यही डरना
बीतें जन्म की बिसरी यादें
क्या किया? कि पड़ेगा भरना
सच और झूठ का एक तराजू
सदा सिर पर लदा क्यों है
बेशक़ वो बिरले ही होते होंगे जो अपना गुनाह् क़बूल करने या महसूस करने की ताक़त रखते होंगे....ख़ुद की शर्म से बड़ी ज़िल्लत शायद कुछ ना होती होगी...आपकी क़लम इसी विचार को जन्म देती दिखी इस पोस्ट पर...बेहतरीन रचना.....
5 टिप्पणियां:
बेहतरीन प्रस्तुति...
sundar prastuti.
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
विचारणीय रचना
बेशक़ वो बिरले ही होते होंगे जो अपना गुनाह् क़बूल करने या महसूस करने की ताक़त रखते होंगे....ख़ुद की शर्म से बड़ी ज़िल्लत शायद कुछ ना होती होगी...आपकी क़लम इसी विचार को जन्म देती दिखी इस पोस्ट पर...बेहतरीन रचना.....
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