सोमवार, 11 जुलाई 2011

गरीबि‍याँ

तीन लड़कियां थीं, तकरीबन 5, 8 और 10 बरस कीं। सुबह का वक्त था जब बच्चे स्कूल बसों-वैनों में ठुंसे जा रहे होते हैं। वो शहर की पॉश ऐरिये में कचरे की टंकी के पास बरसाती मक्खियों, गाय, कुत्तों के साथ पन्नियां तलाश रहीं थीं। अंकल चिप्स और चाकलेट खाने की बातें करते-करते वो एक अच्छे घर के गेट पर जाकर खड़ीं हो गईं। उनमें से एक जोर-जोर से पुकारने लगीं ... आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो....पता नहीं घर पर कोई सुन रहा था या नहीं, सुनना चाह रहा था या नहीं...सुनकर सोच रहा था या नहीं। वो लड़की निरंतर पुकारती रही .. आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो.... तभी उसकी साथ वाली सबसे बड़ी लड़की उसको समझाते हुए बोली... देख ऐसे बोल.. और उसने धीरे से उसके पास उसने कुछ बोलकर दिखाया.. इस बीच ही उस घर में एक प्रौढ़ व्यक्ति दिखा तो वो छोटी लड़की पुकारने लगी... अंकल खाना दे दो....अंकल खाना दे दो....पर वो व्यक्ति ओझल हो गया और लड़की फिर से टेक लगाकर पुकारने लगी आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो....  
आज कोई दिन त्यौहार नहीं था, ग्रहण नहीं था, दीवाली-दशहरा नहीं था... हो सकता है जिस घर के पास वो बच्चियां खड़ीं थी, उसमें रहने वालों ने कि‍सी न्यूज चैनल पर आज सुबह भविष्यफल सुना, ना सुना हो। उसमें वो दान पुण्य वाले उपाय बताते हैं... जिनसे देने और मांगने वालों के अपेक्षित कर्म पूरे होते हैं।
शहरी गरीबी, गांव की गरीबी से अलग होती है। वो रोटी, कपड़े और रहने के लिए झुग्गियां या किराये के मकान मिलने के बाद जन्म लेती है। शायद सारी दुनियां में दो ही तरह के लोग हैं... अभाव पैदा करने वाले और अभावग्रस्त।

9 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

saar garbhit lekh shubhkamnayen....

Shalini kaushik ने कहा…

शहरी गरीबी, गांव की गरीबी से अलग होती है।
bilkul sahi kaha .ye drishay to lagbhag roz ki bat hain.sarthak aalekh.badhai.

Reetesh Khare ने कहा…

इस लघुकथा ने जो कहना चाह वो तो हम तक पहुँच गया. पर जहाँ ठिठके वो बयाँ किये देते हैं...इस वाक्य में “और उसने धीरे से उसके पास उसने कुछ बोलकर दिखाया...” वो कुछ क्या था ये पता चलता तो शायद एक रंग और भरता.
“भविष्यफल सुना, ना सुना हो। उसमें वो दान पुण्य वाले उपाय बताते हैं...” इसमें यह बात तो बड़ी ख़ूब उपयोग की गयी है पर वही, अगर यही लिखा होता कि “शायद नहीं सुना” तो असर और गहरा होता मेरे ख्याल से..
आखरी वाक्य, शहरों की गरीबियों का संदेस तो पहुँच गया पर अभावग्रस्त लोग तो समझ आते हैं, आभाव पैदा करने वाले लोग जो भी हैं वो इनकी ज़िंदगी में कैसे फर्क डालते हैं..इसपर आप से ही कहूँगा कुछ रौशनी डालने को.
हिम्मत कर के जो लगा वो कह दिया, उम्मीद है छोटा मुँह समझ कर समझायेंगे.

vandana gupta ने कहा…

सारगर्भित आलेख्।

Sunil Kumar ने कहा…

कई सवालों के जबाब मांगता हुआ आलेख .

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

सरकारों के लिए इस तरह के लोग कांच के बने होते हैं

कविता रावत ने कहा…

हम सबके बीच एक बहुत कडुवी सचाई है गरीबी!
सार्थक संवेदनशील प्रस्तुति के लिए आभार!

amrendra "amar" ने कहा…

bahut hi sanvedansheel rachna.......
aabhar......

pragya ने कहा…

"शहरी गरीबी, गांव की गरीबी से अलग होती है।" बिल्कुल सही कहा आपने, और शहरी गरीबी ज़्यादा कष्टदायक होती है..

एक टिप्पणी भेजें