तुम ही प्रेम हो...
बहुत सारी बातें हैं
जिन्हें मेरा अहं
समझ नहीं पाता
जैसे नभ का फैला विस्तार
और समय
जिनका अंत नहीं है।
कई चीजें
अहं
अपने हाथों से पकड़ नहीं पाता
बहती बयार का संगीत,
सुबह की धूप,
पुष्प की सुगंध,
और भिगोकर छोड़ गई लहर
पर इनके बाद भी
हमेशा,
मैंने बहुत कुछ सहेज रखा है
वो सब, जो मुझे भला और प्रिय है
मैंने सहेजा है इन्हें,
संदेहों से भरे सिर में नहीं
जिसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता
पर
दिल में,
जहाँ मुझे सुकून का अहसास होता है
जहाँ अन्तरतम तक भेदती है तुम्हारी नजर
जहाँ तुम्हारी सूरत में
प्रेम रहता है।
दरअसल किताब में कुछ लिखा हो
या किताब कोरी हो
दो मुड़े़ हुए पन्ने
कुछ तो कहते हैं ना
6 टिप्पणियां:
वाह दो मुडे हुये पन्ने तो बहुत कुछ कह देते है………अति सुन्दर
बहुत सारी बातें हैं
जिन्हें मेरा अहं
समझ नहीं पाता
जैसे नभ का फैला विस्तार
और समय
जिनका अंत नहीं है।
.......... prashansa se pare ek vistaar
इस कविता का तो जवाब नहीं !
विचारों के इतनी गहन अनुभूतियों को सटीक शब्द देना सबके बस की बात नहीं है !
हर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
bahut sundar ...wakai..
shubhkamnaye
manjula
बहुत ही ख़ूबसूरत..ख़ासकर अंतिम पंक्तियाँ..
एक टिप्पणी भेजें