Wednesday 11 May 2011

ठहरने और चलने के बीच

ठहरने और चलने के बीच
आक्‍टावि‍यो पाज
प्यार में 
अपनी ही पारदर्शिता से
दिनों के जाने और ठहरने की डगमगाहटें
गोलमोल दोपहर 
एक खाड़ी की तरह है
जिसमें खड़ी है शांत चट्टान सी दुनियां

सब कुछ दिख रहा है और सब का सब धुंधला है
सब कुछ निकट ही है और कुछ हाथ नहीं आता

कागज, किताबें, कलम और कांच
अपनी ही नामों की परछाईयों में थमें हैं

वक्त की धड़कने मेरे कानों में दोहराई जा रही हैं
और वही अ.बदले से रक्त के बहने के वाक्यांश

प्रकाश उदासीन दीवारों पर 
उतर उतर कर
प्रतिबिम्बों का 
भुतहा नाट्यगृह बन गया है

मैं अपने आप को किसी आंख के बीचों बीच पाता हूं
खुद को शून्य में एकटक घूरता हुआ
लम्हें बिखर गये हैं।
गतिहीन।
मैं ठहरा हूं और फिर चलता हूं।
मैं यति हूं, मैं विराम हूं।

Between going and 
staying the day wavers
by
Octavio Paz

Between going and staying the day wavers,
in love with its own transparency.
The circular afternoon is now a bay
where the world in stillness rocks.

All is visible and all elusive,
all is near and can't be touched.

Paper, book, pencil, glass,
rest in the shade of their names.

Time throbbing in my temples repeats
the same unchanging syllable of blood.

The light turns the indifferent wall
into a ghostly theater of reflections.

I find myself in the middle of an eye,
watching myself in its blank stare.

The moment scatters. Motionless,
I stay and go: I am a pause.

2 comments:

pragya said...

मैं अपने आप को किसी आंख के बीचों बीच पाता हूं
खुद को शून्य में एकटक घूरता हुआ
लम्हें बिखर गये हैं।
गतिहीन।
मैं ठहरा हूं और फिर चलता हूं।
मैं यति हूं, मैं विराम हूं।...........
रुके समय की चलती कविता...बहुत कुछ ट्रान्स जैसी....

Udan Tashtari said...

बहुत उत्तम..आभार इस प्रस्तुति का.

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