गौरेया, मैना, कौआ, चील गिद्ध, बाज, मोर, तोता ये सारे पक्षी कभी भी इतने दुर्लभ नहीं थे कि इन्हें देखने के लिये चिड़ियाघर जाना पड़े।
वर्षा ऋतु में खिली-फैली हरियाली में तरह तरह के रंग-बिरंगे अजनबी बेनाम फूलों पर मंडराती सतरंगी तितलियाँ खो गई हैं।
गर्मी की छुट्टियों में घर जाते थे तो मिट्टी की दीवारों वाली गौशाला के बाल्लों पर गौरेया के घांेसलों के लिए जगह होती थी। झुण्ड के झुण्ड गौरेया के बच्चों का चिंचियाना अद्भुत आनंद का बायज बनता था।
सांप-सपोलिये बचपन से देखने सुनते आये थे। 25 बरस तक भूतल के आवास में की भी सांप बिच्छू सपोलिये कनखजूरों से पाला नहीं पड़ा। खेतों, जंगलों, खण्डहरों, झुरमुटों में उनका घर होता है ये कुदरती बात थी। इन स्थानों पर जाकर बिलों से बाहर निकले सांपों के सिर, नदी नालों मंे केकड़े, बिच्छु देखना एक नैसर्गिक रोमांचकारी मजा था। पर पिछले दशकों में या और खासकर हाल के सालों में शहर की आब ओ हवा और जमीन को आदमियों ने खतरनाक ढंग से बदल दिया है।
जिंदगी में पहली बार पंजाब के एक कस्बे से हमारे नये फ्लैट के गृहप्रवेश कार्यक्रम मंे आई मौसी ने प्रश्न उठाये - कैसे आप लोग इस छोटी सी दड़बानुमा जगह में रह लोगे, घुटन नहीं होती। पांचवे माले पर पलने वाले बच्चों का बचपन क्या होगा?
हमने कहां घुटन कहां नहीं होती। अब शहर में जमीन बची ही कहां है? खेतों जंगलों मंे इंसान की रिहायशी बस्तियों, औद्योगिक विकास की राह में आए प्रकृति में पलने जंगली जीव जाएं कहाँ? अब घरों-बंगलों में, 6-7 मंजिला फ्लैट्स की ऊंचाईयों पर सांप बिच्छू पकड़े जा रहे हैं तो प्रश्न स्वाभाविक ही है कि वो किस ग्रह पर जाएं?
पढ़े लिखे इंसान ने जानवरों के लिए अभ्यारण्य बनाकर उनकी हदों पर बोर्ड लगा दिये हैं, पर पढ़े लिखे लोगों के आग्येस्त्रों की बंदूकों की नलियों से निकली चिंगारियां गहरी काली अंधेरी गुफाओं का अछूतापन चीर गई हैं।
जंगलों का जीवन पूरी तरह नंगा कर दिया गया है। सेटेलाईट पर सजी इंसान की निगाहों से बचने के लिए जानवर अगर पढ़े लिखे होते और किसी ग्रह की कल्पना कर सकते तो अब उनका नितांत आवश्यक, जीने-मरने का प्रश्न यह होता कि अब किसी भी तरह इंसान से बचकर उस ग्रह पर कैसे पहुँच जाएं।
थलचर, नभचर की तरह जलचर भी इंसान की पहुंच से बाहर नहीं तेल, गैस, इंसान के खोजे रसायन सागरों की अतल गहराईयों में दबे ढंके जीवन के लिए खतरा बन गये हैं।
डोडो, सिंह, शेर, चीते, गेंडे, सोन चिरैया, सफेद कौआ, गिद्ध - और भी अन्य जिनके नाम हमें पता नहीं,, ये सारे उन जीवों के नाम हैं जिन्हें ‘‘इंसान’’ नाम के जानवर ने अपनी खूंखार और अचूक शक्तियों से मिटा डाला है या मिटा डालने को ही है।
हमारे निकट ही रहने वाले एक परिवार की महिला मुखिया एक छोटे से 25-50 ग्राम के पक्षी के अंडे और पक्षी का जिस्म यौन-शक्तिवर्धक मानते हुए समय समय पर उदरस्थ करती रहती है। कब तक हम अपनी शारीरिक हवस के लिए हम कुदरत के सुन्दर जीवों को खाने पीने का सामान बनाते रहेंगे?
उस जमाने में भी जब मानव के पास अचूक हथियार नहीं थे मानवभक्षी शक्तिशाली खूंखार जानवरों ने कभी भी कुछ ऐसा नहीं किया कि वो मनुष्यों का पूरा का पूरा टोला या एक बस्ती ही निगल गये हों। पर इस तरह की उपलब्धि मनुष्य नाम के जानवर के नाम अवश्य है, इसने जल-थल-नभचर जीवों-प्राणियों की प्रजातियाँ की प्रजातियाँ समूल नष्ट कर दी हैं।
एक समय निश्चित ही शिकार करने का मजा रहा होगा। जब किसी जानवर को मारने के लिये आदमी को तीर कमान भाले, तलवारों के साथ टक्कर का मुकाबला करना पड़ता होगा। लेकिन अब क्या मजा? अत्याधुनिक बंदूकें और उनसे भी अचूक वैज्ञानिक तरीके हैं जो किसी भी भयानक,खूंखार और जहरीले शक्तिशाली जीव को मिनटों में झुण्ड के झुण्डों में निर्जीव कर दे।
दाँतों के लिए हाथियों की, हड्डियों खालों के लिये सिंह, बाघों, भालुओं, पांडों की। शारीरिक शक्तिवर्धन के लिये हिरणों, मोर, कई प्रजाति की बत्तखों, खरगोशों को मौत के घाट उतार देना पृथ्वीग्रह पर मानव का ही कुकृत्य है।
निरीह प्राणियों को अपनी जुबान के चटखारों और जिस्मानी हवस का साधन बनाना, चाहे अनचाहे ऐसी गतिविधियाँ जो प्राकृतिक विनाश का कारण हैं, मनुष्य जाति की ये वो शर्मनाक हरकतें हैं जिसके लिये उसके वैज्ञानिक विकास, धर्म, अध्यात्म और सभ्यता जैसे खोखले शब्दों पर लानत भेजी जा सकती है?
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