Tuesday 18 August 2009

आप और राकेश राहू, केतु और शनि

उम्र के साथ कई बातों पर अंधविश्वास हटता गया जैसे; सभी उम्रदराज लोग समझदार और परिपक्व होते हैं, सभी स्त्रियाँ........... नहीं होतीं, सभी बच्चे बचकानी बातें ही करते हैं, गधे अफगानिस्तान में ही पाए जाते हैं इत्यादि। विज्ञान कहता है कि किसी भी व्यक्ति के दिमाग का विकास 15 वर्ष की आयु तक होता है, शेष सारी उम्र, उस 15 वर्ष तक विकसित दिमाग से काम चलाना पड़ता है।
यानि 15 वर्ष की उम्र में आदमी का दिमाग अपने विकास के चरम पर होता है और देखिये सारी गलतियों की शुरूआत आदमी 15 वर्ष की उम्र से ही करता है। तू सोलह बरस की मैं सत्रह बरस का.... यानि सत्यानाशों की श्रंखला का आरंभ। लेडीज फस्ट तो वो 16 बरस से ही दंगल में कूद जाती है। जो आदमी 15 वर्ष की उम्र मंे सही काम करने लग जाए वह आदमी नहीं होता.... क्या उसे आदमी कहा जाना चाहिए यह शोध का विषय है? खैर मेरे शोध का विषय व्यक्ति की आयु... और दिमाग का विकास न होकर यह है कि ”व्यक्ति वैसा क्यों हो जाता है जैसा वो है” यानि कौन कौन से घटक हैं जो उसे ‘ऐसा‘ बना देते हैं।
बहुत से लोगों की तरह हमारे दिमाग का विकास भी 15 वर्ष के बाद बंद हो गया था, तो हमने कुछ अन्य लोगों से जो 15 वर्ष की आयु में बुद्धिमत्ता के चरम पर थे, यह जानकारी हासिल करनी चाही कि आदमी वैसा क्यों हो जाता है जैसा है। मैं सोचा किया कि जिन्दगी भर औरत घर चलाती है, कपड़े सीती है पर शीर्ष फैशन डिजाइनर पुरुष जे जे वाल्या ही क्यों होता है? जिन्दगी भर खाना बनाती है पर फेमस कुक संजीव कपूर क्यों होता है? कई शीर्ष स्त्री रोग विशेषज्ञ भी नर मनुष्य ही थे। सारे किले महाराणाओं, अकबरों ने जीते। सारे अमेरिकाओं की खोज भी कोलंबसों ने की। मैं ये भी सोचा किया कि दुनियांभर की उपलब्धियों और कीर्तिमानों की स्थापना के बाद 30 से 60 सेकण्ड के खेल में पुरूष अखबारों के सर्वाधिक मँहगे और प्रतिदिन छपने वाले विज्ञापनों का विषय क्यों बन जाता है?
किसी ने आत्मा परमात्मा के फंडे दिये, किसी ने किस्मत बद्किस्मती के, किसी ने आदमी की करनियों को इसकी वजह बताया। पर हमारी समझ में जो बात आई वो ज्योतिष के नौ ग्रहों वाली थी, इस परिकल्पना में बहुत दम नजर आया। इस बात को समझने के बाद हमें भी अपने पर नाज हुआ कि 15 साल तक विकसित मस्तिष्क भी किसी आदमी की जिंदगी के गुजारे के लिए काफी होता है। तो हमने इस परिकल्पना को अपने सारे सह-ब्लाॅगकर्ताओं तक पहुंचाने की कोशिश निम्नानुसार कोशिश की है:
ज्योतिष के अनुसार नौ ग्रह होते हैं और 12 राशियाँ होती हैं, लेकिन घबराएं नहीं हमें कुल जमा 21 बिन्दुओं का विस्तृत अध्ययन नहीं करना है। हमें बस ज्योतिष के मूल यानि शनि, राहू, केतू के बारे में जानना समझना है।
किसी भी व्यक्ति की रोते हुए पैदाइश से लेकर सड़कों पर मुर्दे की रूप में नुमाईश करते हुए विदाई तक यही त्रि-दुर्देव जी जान से सक्रिय रहते हैं। अब आप कहेंगे कि अन्य ग्रहों के बारे में क्यों नहीं जानना चाहिये तो भाई आप ही बतायें जो लोग या जो ग्रह कायदे कानून के अनुसार ही चल रहे हैं उनका चलना न चलना बराबर है, किसी महत्व का नहीं। उसी आदमी की तरह जो बड़े सीधे साधे ढंग से जिंदगी जी रहा है - जहाँ रिश्वत दी जानी चाहिए दे रहा है, जहाँ जूते खाने चाहिए खा रहा है, जहाँ गेला समझा जा रहा है समझा जा रहा है। संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करता हुआ वोट दे रहा है, संवैधानिक रूप से मान्य भ्रष्ट हत्यारों, गंुडे मवालियों, चाटुकारों, बलात्कारियों, अवसरवादियों को नेता चुन रहा है यानि वो सब कर रहा है जो संविधानसम्मत है।
हजारों सालों से आदमी और अन्य ग्रह वही कर रहे हैं जो लकीरों में लिखा है। ये सारे लकीर के फकीर हैं इनके किये मनुष्य जाति की कोई प्रगति नहीं हो रही। पर कुछ हटकर किया जा रहा है तो वो मात्र इन तीन ग्रहों द्वारा। शनि, राहु और केतु जी-जान से प्रत्येक चर अचर प्राणी की जिंदगी में भरपूर उंगली कर उसकी जिंदगी को जीने लायक बना रहे हैं। अगर सब कुछ अच्छा ही अच्छा होता तो भारत में कश्मीर को ही स्वर्ग क्यों कहते। कहने का मतलब ये कि अन्य प्रदेशों से प्रत्येक व्यक्ति को परेशान कर एक ही जगह की ओर खदेड़ा जाता है जहाँ पहुंचकर उसे लगता है कि यह स्वर्ग है। यह कोई दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह हो सकती है जैसे; अमेरिका। जहाँ की समुन्नत इमारत को शनि-राहु -केतू के एैक्य सफल प्रयास ने एक स्मारक के रूप में बदल दिया। अन्य आश्रय स्थलियों में पूंजीवाद, अलगाववाद, समाजवाद, लोकतंत्र, धर्म, कोई गुरू भी हो सकता है, पर कौन इन त्रिदुर्दैवों की माया से परे रह पाया है। जो नहीं है उसकी बात क्यों करें, पर दुनिया में जो भी है वो संक्षेप में राहू-केतु-शनि रा.के.श. (राकेश) से ही है।
कांग्रेस, बीजेपी या अन्य किसी दल के नेता की ही तरह रा के श अलग होते भी एक ही तरह के कारगुजारियो में निरंतर संलग्न रहते हुए जन का ता... धिन... धिन.. जन ता करते हैं। ये निराकार रूप हैं और साकार भी हैं। इनकी माया को समझने वाला भी इनसे नहीं बचता - क्योंकि वही बात, ऊँट की करवट की तरह इनका भी कुछ पक्का पता नहीं होता पिछली बार अटल बिहारी के साथ, इस बार संता जी के साथ, मायावती की मूर्ति देह ग्रहण कर लेती तो उस करवट भी बैठ सकते थे।
राजनीतिक दलों के दलदलों से अखबारों में छपे व्यक्ति की अंदरूनी (सेक्) जिंदगी के विज्ञापनों तक रा के श ही व्याप्त हैं। इनकी महिमा भी हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता की तरह है, मेरे खयाल से ‘हरि’ की जगह ‘रा के श’ शब्द ज्यादा उचित है। क्योंकि जब रा के श कथा को मोड़ देते हैं तो हरि अपने ही तारणहार स्वरूप का स्मरण करते हुए, आदमी को अपने हाल पर छोड़ निहाल कर देते हैं।
रा के श की माया की सक्रियता के कारण यह पाठ्य सामग्री निश्चित ही आपके 15 वर्ष तक विकसित उध्र्व अंग मस्तिष्क की पहुंच से छिटक रही होगी इसलिए मैं सोचता हूं आपको इस कड़ी के बाद वाली कड़ी में रा के श का पूर्ण परिचय दे ही दूं।
इस बीच जो पूर्वानुमान, अंदाजे, गालियाँ, साधुवाद, मजा, उपेक्षा, अपेक्षा आदि जो भी अंकुरित होता है उसे रा के श की ही व्याप्तता जानें। सारी तल्खियों, उंगली करने की इच्छा और उंगली करने के बाद हुई हानि का प्रतिशोध रा के श प्रभाव है। किसी को बिना वजह भाव मिलता है और कोई भाव पाने के लिए जिन्दगी बिता देता है पर फूटी कौड़ी की औकात हासिल नहीं कर पाता सब रा के श का किया धरा है। सब कुछ मनचाहा मिलने के बाद भी आप बेचैन रहते हैं और यह गाना गाते हैं “सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है...”, ”कभी किसी को मुक्कम्मल जहाँ नहीं मिलता, कभी जमीं कभी आसमां नहीं मिलता“। सारे तेल और गोलियां इस्तेमाल करने के बाद भी अपेक्षित परिणाम न निकलना, घु-टनों मंे दर्द बना ही रहना रा के शा का ही आवेश है। सारे धुंधलके, सारे उजाले, सारी खिसियाहटें, सारे नाले (रोने), आपके तन, मन और जो भी आप अपने आप में सोचते हैं रा के श के अलावा कुछ भी नहीं। ब्लाॅग सामग्री जारी आ........हे......

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