Monday 10 August 2009

तुम कहाँ हो?

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
बस एक बार फिर सुनो!
मेरी आंखों की जुबां
देखो, मेरे खामोश लबों की दास्तां
मुझे महसूस करो,
दूर खड़ी... कहीं छत पर

काश! तुम मिलो, बस एक बार फिर
इतने बरसों बाद
फिर से जानो
कि बरसों बाद तक
अभी भी मेरे खयालों में
अभी तक सांसों के सवालों में
तुम्हारा वही बरसों पुराना चेहरा
अभी भी ताजा है

अभी भी मेरे हाथों से
यकायक बनी तस्वीर में
वही पुरानी
तुम्हारी शक्ल होती है

अभी भी तुम्हारा नाम लेते-लेते
बरसों पुरानी यादें
चमकती सी कविता बन जाती हैं

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
तुम्हारा अपना भूला हुआ चेहरा
मेरी पुतलियों में अभी भी ठहरा है
बरसों से सजल मेरी आंखें
जिंदा हैं इसी उम्मीद में
काश तुम मिलो बस एक बार फिर


काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
वक्त की बंदिशों और
कायनात की हदों से आगे
जब तुम पूरी घुल गईं थीं
मेरे सपनीले दिन रातों में

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.

जबकि पिछली बार भी तुम
बस ख्वाब में मिलीं थीं।

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
ख्वाब में ही सही।

4 comments:

Udan Tashtari said...

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
ख्वाब में ही सही।

-बहुत उम्दा!!

महेन्द्र मिश्र said...

जबकि पिछली बार भी तुम
बस ख्वाब में मिलीं थीं।

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
ख्वाब में ही सही।

ख्वाब में ही सही.....बहुत उम्दा सोच

mehek said...

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
ख्वाब में ही सही।
waah behtarin,ehssas dil ke kalam se utare hai sunder

दिगम्बर नासवा said...

पिछली बार भी तुम
बस ख्वाब में मिलीं थीं।

काश! तुम मिलो, एक बार फिर.
ख्वाब में ही सही।

वाह.. क्या चाह है............. मिलन की चाह चाहे ख्वाब में ही सही............ लाजवाब रचना है

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