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शनिवार, 26 मई 2012
ये भी बुरा है
अगर मैं
इससे बेखबर रहूं
कि मैं खुद,
और तुम
कब तक साथ रहेंगे?
और
दिन ऐसे बिताऊं
जैसे मैं
या तुम
हमेशा ही साथ रहेंगे,
और तुम्हें
कोई वजह ना होने से भुलाऊं
कभी जरूरी ही
कोई बात करूं
और सारा दिन
काम धंधें में खपाऊं
तो बुरा है।
और अगर मैं
हमेशा
ये ध्यान रखूं
कि क्या पता
कब मैं,
या,
कब तुम,
साथ नहीं रहेंगे
और तुमसे
सारा सारा दिन
चिपका रहूं
बीतते हुए
बरसों-बरस
छोड़ूं ही ना तुम्हें
जीने के लिए
तो ये भी बुरा है
कुछ भी
भला नहीं लगता -
मौत के
लिहाज से।
गुरुवार, 10 मई 2012
एक होना, यानि पूर्ण होना।
जैसे ही दो लोग मिलते हैं,
एका होने से, खुशी होती है।
जब वो कुछ कहने लगते हैं,
वो अपनी-अपनी ”बात“ होती है,
किसी ”बात“ का मतलब ही होता है
दो चीजें।
इस तरह दो चीजों में बंटते ही
खुशी काफूर हो जाती है,
इसलिए
चुप रहो।
जब कुछ महसूस किया जाता है
खो जाता है सबकुछ
वक्त भी।
जब फिर से मांगा जाता है वही महसूसना,
तो वक्त लौट आता है
अतीत, वर्तमान और भविष्य के
तीन सिरों में कटा हुआ।
कटी-फटी-टुकड़ों में बंटी चीजें
अशुभ होती हैं।
इसलिए
महसूस करो और
चुप रहो।
याद करो
उन दिनों हम कितने खुश थे
जब ना कोई बोली थी
ना कोई भाषा
मौजूदगी को महसूसने की
थी
अपनी ही अबूझ परिभाषा।
जब से हमने
अहसासों को बांधने की कोशिश की है-
बोलियों-भाषाओं में,
शब्दों-स्मृतियों में।
हम बेइन्तहा बंट गये हैं।
इतने कि
एक छत और
एक बिस्तर को
एक साथ महसूसने के बाद भी
हम एक नहीं हो पाते।
इसलिए हो सके तो
कुछ ना कहो
चुप रहो।
प्रार्थना
कैसे की जा सकती है?
क्योंकि जैसे ही प्रार्थना की जाती है,
एक खाई बन जाती है
प्रार्थना करने वाले, और
जिससे प्रार्थना की जारी रही
उसमें।
इसलिए चुप रहो।
सहज खामोशी में हम
एक हो सकते हैं।
खामोश होने के लिए
जरूरी है कि हम
वही रहें, जो हैं।
और कुछ होना ना चाहें
उसके सिवा
जो है।
जो हैं,
बस वही भर रह जाने से
हम एक हो जाते हैं।
खामोशी रह जाती है।
एक होना, यानि पूर्ण होना
मृत्यु रहित होना।
सोमवार, 2 जनवरी 2012
पिछली सदी में.. और इस पल
सदी नहीं, बरस महत्वपूर्ण होता है
बरस नहीं, महीना खास होता है
महीना नहीं, हफ्ता विशेष होता है
हफ्ता नहीं, कोई दिन होता है बहुत जरूरी
दिन नहीं, किसी पहर को महसूसना स्पेशल है
बरस नहीं, महीना खास होता है
महीना नहीं, हफ्ता विशेष होता है
हफ्ता नहीं, कोई दिन होता है बहुत जरूरी
दिन नहीं, किसी पहर को महसूसना स्पेशल है
किसी पहर में भी..
कोई पल ही चरम होता है...
इसलिए मुझे अच्छी नहीं लगती
किसी बीते या आने वाले बरस की बात
तुम अतीत से संचालित हो
तुम मुझसे वैसा ही व्यवहार करोगे
जैसा तुमने मुझे
किसी बीते पल महसूसा।
अभी बीते पल जैसा या
सदियों पहले जैसा।
आता कल तुम देख नहीं सकते
और इस पल के हिसाब से व्यवहारना
सच,
सदियों में कोई 'एक' ही सीख पाता है।
सच,
'एक' होना बहुत मुश्किल है।
कोई पल ही चरम होता है...
इसलिए मुझे अच्छी नहीं लगती
किसी बीते या आने वाले बरस की बात
तुम अतीत से संचालित हो
तुम मुझसे वैसा ही व्यवहार करोगे
जैसा तुमने मुझे
किसी बीते पल महसूसा।
अभी बीते पल जैसा या
सदियों पहले जैसा।
आता कल तुम देख नहीं सकते
और इस पल के हिसाब से व्यवहारना
सच,
सदियों में कोई 'एक' ही सीख पाता है।
सच,
'एक' होना बहुत मुश्किल है।
सोमवार, 19 सितंबर 2011
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
काग़ज की कश्ती, पानी का किनारा था
मन में मस्ती थी , दिल ये आवारा था
आ गये कहां से, ये समझदारी के बादल
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
वो कंचों की खन-खन में दिन का गुजरना
यारों का झुण्डों में, मुहल्लों में टहलना
साईकिल पर मीलों तक, वो शाम की सैरें
उन सुबह और रातों का, मोहब्बत में बहलना
हैं यादें वो शीरीं, वो दिल की अमीरी
जेबों से फक्कड़ था, हिसाब में नाकारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
वो मीनू से यारी, वो सोहन से कुट्टी
वो मोहन से खुन्नस, वो गोलू की पिट्टी
था कौन सा काम? कि ना हो पहला नाम
पतंग उड़ानी हो या गढ़नी हो मिट्टी
अजब थी अदा, थे सबसे जुदा
कहते सब बदमाश, और सबसे न्यारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
फिर कहानियों से यारी,, फिर इश्क की बीमारी
दिन रातें खुमारी,, फिर सपनों की सवारी
नहीं जानते थे कि ऐसा, ना रहेगा हमेशा
बेफिक्री की सुबहें, रातें तारों वाली
लगता वहीं तक बस, जीवन सारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
मन में मस्ती थी , दिल ये आवारा था
आ गये कहां से, ये समझदारी के बादल
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
वो कंचों की खन-खन में दिन का गुजरना
यारों का झुण्डों में, मुहल्लों में टहलना
साईकिल पर मीलों तक, वो शाम की सैरें
उन सुबह और रातों का, मोहब्बत में बहलना
हैं यादें वो शीरीं, वो दिल की अमीरी
जेबों से फक्कड़ था, हिसाब में नाकारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
वो मीनू से यारी, वो सोहन से कुट्टी
वो मोहन से खुन्नस, वो गोलू की पिट्टी
था कौन सा काम? कि ना हो पहला नाम
पतंग उड़ानी हो या गढ़नी हो मिट्टी
अजब थी अदा, थे सबसे जुदा
कहते सब बदमाश, और सबसे न्यारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
फिर कहानियों से यारी,, फिर इश्क की बीमारी
दिन रातें खुमारी,, फिर सपनों की सवारी
नहीं जानते थे कि ऐसा, ना रहेगा हमेशा
बेफिक्री की सुबहें, रातें तारों वाली
लगता वहीं तक बस, जीवन सारा था
वो नादान बचपन, कितना ही प्यारा था
- राजेशा
मूल पंक्तियाँ-
कागज की कश्ती थी पानी का किनारा था, खेलने की मस्ती थी दिल ये आवारा था
कहां आ गए इस समझदारी के बादल में, वो नादान बचपन ही कितना प्यारा था- यश लखेरा, मण्डला, मप्र
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