चित्र http://wethepeople-barakvalley.com/ से साभार
मुझे भोपाल से बनारस जाना है। 8 दिन पहले जब रिजर्वेंशन करवाया, 96 वेटिंग थी। आज जब ट्रेन में सवार हुआ तो वेटिंग 76 तक पहुंची थी। जैसे तैसे आरक्षित बोगी में जगह मिली। एक घण्टा हो गया है, एक मानुष ने तरस खाकर मुझे टिकाने की जगह दे दी।
टीटी आया, उसके साथ ट्रेन में घुसते से ही कुछ लोग मानमुनौव्वल करते चल रहे थे। प्लीज... देख लीजिए.... लम्बा सफर है... अकेले होते तो कोई बात नहीं थी फैमिली है.... एक दामादनुमा आदमी बोला-माँजी बीमार है जरा..... बस एक ही सीट दे दीजिए हम दोनों एडजस्ट कर लेंगे... इस तरह के वाक्यों का हुजूम टीटी के प्रभामण्डल के चारों ओर मंडरा रहा था। वो जरा भी कदम आगे-पीछे करता, आगे-पीछे मुड़ता ये वाक्य उसके साथ ही खिसकते...। टीटी इन वाक्यों से निरासक्त श्रवणेन्द्रिय का स्तंभन कर अपनी आंखों की सारी ऊर्जा उन प्राणियों के चेहरे, और भावभंगिमाओं के विवेचन में लगा रहा था जो काम के दिख रहे थे। कुछ ऐसे लोग जो बारगेन-मोलभाव में दिलचस्पी रखते थे वो उन्हें मक्खियों की तरह फटकार रहा था। चारों ओर मांग-ही-मांग सूखी धरती थी और पूर्ति के बादलों के छींटे, कैसे, किस पर डालने हैं यह टीटी की कुशलता थी।
भोपाल से बनारस का सफर न्यूनतम 22 23 घंटे या भारतीय रेल का अपना उन्मुक्त समय लेता है। कई लोग अपने को परखने के लिए संकल्प लेते हैं कि बिना आरक्षण के ही वो लम्बी दूरी, लम्बे समय की यात्रा करके दिखायेंगे पर क्या ये उतना ही आसान होता है, जितना संकल्प लेना? बोगी में मनुष्यों की भौतिक, रासायनिक, मनोवैज्ञानिक गतिविधियां आपके संकल्प का पल पल इम्तिहान लेती हैं।
अब भोपाल से ट्रन में बैठे हुए मुझे ढाई घंटे हो चुके। भीड़ में सीट से उठने का मतलब है आपने सीट पर से अधिकार खो दिया। बोगी का अपना वायुमण्डल होता, दबाव होते हैं है। अगल-बगल सामने पीछे से लोग भिंच जाने, कुचले जाने की हद तक दबाव बनाते हैं। पानगुटखाबीड़ी, पसीने-खाने-पीने, सिर-बदन पर चुपड़े तेल, डियो स्प्रे इत्रफुलेल, मोजों की बदबू... इन सबकी मिश्रित गंध से आपकी नाक को नहीं सूझता कि क्या करे पर चलने पर बोगी के हिलने के साथ ही आपके मूलाधार या नाभि के आस पास से गले की तरफ लावे का ज्वार भाटा सा उठता और गिरता है। मुद्रा कोई भी हो, यदि जगह मिल जाये, आपको पुट्ठों के बल ही बैठना होता है। कभी दाएं पुट्ठे पर पूरे शरीर का भार दिये, कभी बायें पुट्ठे पर, अगर दोनों पर समान भार डालने का विकल्प है तो कमर अकड़ सकती है। लेकिन सर्वाधिक परेशानी कानों और आंखों को होती है... आसपास बैठे सारे यात्रियों के अन्दरूनी-बाहरी किस्से-कहानियां गाने-रोने-धाने, चाहे-अनचाहे सुनने ही पड़ते हैं। इसी तरह आंखों से उन यात्रियों की ठसक झेलनी ही है जिनका रिजर्वेशन कन्फर्म है, जो दिन दहाड़े स्लीपर सीट नहीं बिछाकर आप पर अहसान किये हुए हैं। सीट पर बैठे हुए आपकी लटकती टांगें, पिचके पुट्ठे, अकड़ी कमर, नाक, आंख, कान सब दुविधा में रहते हैं। इसके साथ ही दिमाग में पसरने की गं्रथियां पसरने लगती हैं। कितनी ही भीड़ हो आदमी वो जगहें ढूंढने लगता हैं..जहां सिकुड़ी या एक ही स्थिति में फंसी टांगे घुसेड़नी या टिकानी हैं। मगर इन जगहों के मिल जाने पर... व्यक्ति में वह गं्रथि जिससे पसरने की वृत्ति वाले हार्मोन का स्राव होता है, ये स्राव बड़े ही वेग से होने लगता है। आदमी का सिर पीछे सीट पर टिक जाता है, कमर मुड़ जाती है, टांगे फैलने लगती है... कहने का मतलब ये कि अब वो चाहता है कि किसी तरह शवआसन लगाने का मौका मिले। कई पतले लोगों को मैंने इन लक्षणों के चरम पर लगेज रखने वाले रैक पर पसरा पाया। वो महानतम योगी होते हैं। 8 इंच चैड़ी जगह पर वो दायीं-बायीं-उध्र्व-अधो किसी भी ओर चित कर शरीर को फैला सकते हैं।
मुझे अब पौने चार घंटे हो चले और अब मस्तिष्क में उस हार्मोन के स्राव का वेग बहुत बढ़ गया जिससे शरीर में फैलने-पसरने की वृत्ति गतिवान होती है। मुझे भी सफेद पेंटशर्ट, काले कोट, पीतल के बिल्ले वाले टीटी की याद आई। इकलौता ट्राॅलीबेग उठाकर टीटी की तलाश में निकले तो वो अगले स्टेशन पर एक डिब्बे के बाहर निकला दिखा। मैंने वहां पहुंचकर कुछ भी नहीं किया। फैलने पसरने वाले हार्मोन ने मेरे चेहरे पर सीट की मांग के सारे भाव ला दिये थे। मेरा पर्स निकल-निकल कर हाथों में खेलने लगा, टीटी ने मुझे उपकृत करने के लिए सर्वथा उपयुक्त पाया। अभी तो मात्र चार घंटे हुए थे और मेरी हालत कितनी पतली थी ये मैं ही जानता हूं या बस मैं। 400 रू में वेटिंग टिकिट खरीदा था, टीटी ने हजार रू. कहा, मैंने कहा कि आप ही पसारनहार हैं... कलियुग है पर हे कलिराज कृपा.. 800 रू में कृपा की गई। टीटी ने कहा थर्ड एसी में सीट नं. 23 पर टिक जाओ, वो व्यक्ति आधे घंटे बाद आने वाले स्टेशन पर उतर जायेगा। मैंने प्रभु के वचन का तथास्तु भाव से तुरन्त पालन किया। आज तक ऐसी में यात्रा नहीं की थी... पहले तो ए.सी. यान का इंटीरियर देखा, साधारण स्लीपर कोच की सीटें थीं... बस परदे और लगे थे... आध घंटे बैठने के बाद ही दम घुटता सा लगा.. लगा कि एक बंद जगह पर सैकड़ों लोगों की सांसें हवा में तैर रही हैं... उनमें तरह तरह के कीटाणु थे, गैसें थीं, वायु दाब थे.. कुछ देर बाद ही 23 नं. सीट खाली हो गई और मैंने जीवन की पहली सर्वाधिक महंगी यात्रा का पहला सुविधाभरा खालिस्थान देखा। एसी बोगी में घुसते ही सांझ हो गई थी, ऊंघ भरे खयाल आने लगे। मैं बैठा, फिर लेट कर देखा.. और टीटी को आता देख फिर अधलेटा सा हो गया...टीटी ने जैसे लाड लडाते हुए कहा - आराम से लेट जाओ। मैंने खुद से कहा देखा 800 का कमाल, लोरी भी सुनने को मिलेगी। लाड में आते हुए मैं लेट गया। यात्रा में वैसे ही उपवास का मन करता है। गाड़ी रूकी तो शीशे से देखा कुछ जवान लड़के लड़कियां, ”मेरी भी वही तमन्ना है, जो सब कहता अन्ना है।“, अन्ना हजारे संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं... नारों के साथ ट्रेन में चढ़े। पता नहीं चला, वो चढ़े कहां होंगे? जनरल बोगी ठसाठस भरी थी। आरक्षित शयनयानों में भी पर्याप्त भीड़ थी। कुछ और करना था नहीं, पर क्या ”सोचना“ कुछ करना होता है, तो मैं ऊंघते हुए 5 घंटे की असुविधापूर्ण यात्रा की ताजी-ताजी यादों में झपकी में झूलने लगा।
मैंने देखा, एक लड़की मेरे सामने वाली सीट पर आकर लेट गई। उसने कोई अंग्रेजी मैगजीन निकाली और उसे चेहरे पर लेकर फैल सी गई, उसने करवट ली और मैग्जीन नीचे जा गिरी। पता नहीं मेरी बाहें इतनी लंबी कैसे हो गईं, मैंने मैगजीन उठाकर उस लड़की को दे दी। वो लड़की धन्यवाद बोली। उसने पानी की बोतल उठाई और ढक्कन खोलने को ही थी कि पाया घूंट भर ही पानी है। ट्रेन अपनी ही रफ्तार से चली जा रही थी, ए.सी. में ट्रेन की रफ्तार का भी पता नहीं चलता। मैंने उसकी प्यास को महसूस किया और उसकी ओर अपनी बोतल बढ़ा दी। उसने फिर थेंक्स कहा। उसने जिस तरह अपनी मैग्जीन को उल्टा पलटा, लगा वो उसे 7 बार पढ़ चुकी है। उसे नींद नहीं आ रही थी। उसने अबकी मेरी तरफ करवट ली और बोली - क्या आप मुझे वो जे कृष्णमूर्ति की बुक दे सकते हैं? मैं ज्यादा बातचीत के मूड में नहीं था मैंने किताब उठाकर उसे दे दी। उसने किताब को फिर मुंह पर फैला लिया और शायद वो डूब गई।
वो फिर पलटी और बोली - आपको नहीं लगता जनलोकपाल बिल से जैसा कि अन्ना कह रहे हैं 65-75 प्रतिशत अन्तर आयेगा व्यवस्था में?
मैंने कहा - लोग 65 वर्ष बाद फिर जागे हैं।
वो- क्या रिश्वत लेना ही भ्रष्टाचार है, या देना भी?
मैं- मैंने तो अभी 800/- देकर टिकिट खरीदा है।
वो- अगर आप ईमानदार होते तो शयनयान में ही भीड़ के बीच सफर करते।
मैं- कैसे? सिकुड़ी टांगों, पिचके पुट्ठों, अवसाद-विशाद से भरे लोगों की अपानवायु, शौचालय की बदबू, उबकाईयों के साथ, वहां तो उल्टी करने की जगह भी नहीं थी? सफर ना करता तो 7वीं नौकरी की तलाश में चौथा इंटरव्यू छूट जाता। वैसे भी अगर टीटी ना लेता, तो मैं उसे कैसे देता? ठीक है, मैं अपनी धुली चादर बिछाकर भिखारियों के बीच ही बिछाकर शौचालय के पास ही लेट जाता, पर अगर आप होतीं...
वो लड़की थोड़ी देर चुप रही।
वो- तो क्या जनलोकपाल भ्रष्टाचार के बाद की बीमारियों के समाधान की कोशिश है?
मैं- हां, जरूर। ”भ्रष्टाचार के पहले“ के बारे में भी तय होना चाहिए। वेटिंग नहीं होनी चाहिए, या तो टिकिट रिजर्वेशन होना चाहिए या गाड़ी में बैठने ही ना दिया जाय। वेटिंग ही भ्रष्टाचार है। अंधेर करने की जरूरत नहीं... बस जितनी हो सके देर कीजिए, आदमी खत्म हो जाता है। वेटिंग में धंुधलापन है, अनिश्चितता है...असुविधा है, डर है। ”तय होना“ ही नियम और कानून है, व्यवस्था है। संविधान व्यवस्था की एक कोशिश है। मनुष्य रोज बदलता है, व्यवस्था भी व्यक्ति के साथ ही रोज बदलनी चाहिए, संविधान नदी की तरह होना चाहिए.... कुंए या तालाब की तरह नहीं। अंधों के लिए वेद कुरान ही काफी हैं... संविधान को एक धार्मिक ग्रंथ बनाने की क्या जरूरत है। संविधान बदलना वैसे ही होना चाहिए जैसे हम दूसरे दिन कपड़े बदलते हैं, क्योंकि वो गंदे हो जाते हैं। नये अपराधियों के लिए पुराने कानूनों की क्या जरूरत? कसाब नया आदमी है।
मैं प्रलाप सा करने लगा था - 200 रूपये चुराये वो चोर, 5 साल का इंतजार, एक साल की सजा। जो 2000 करोड़ चुराये उसके लिए जेल में महल के इंतजाम, और बरस दो बरस में जनता सब भूल जाती है। एनडीतिवारी, कई सारे कातिल मुसलमानगुंडे, कई सारे हत्यारे हिन्दू साधु संसद में बैठते हैं... स्वर्णमन्दिर परिसर में आतंकवादियों को शहीद बताती तस्वीरें, कश्मीरी अलगाववादियों से पाकिस्तानी मंत्री को मिलाना, इन्हें क्यो रखा है? संविधान अपडेट करने के लिए? ये कानून बाद में बनायेंगे, उनके तोड़ पहले निकालेंगे।
अचानक टीटी ने झिंझोड़ा, मुझे अचकचाकर उठ बैठना पड़ा। मैंने सेलफोन देखा, रात के 2 बज रहे थे। टीटी बोला - आप एस3 में 37 पर चले जाईये। मैंने बोझिल तनमन से अपना ट्राली बैग उठाया और एस3, 37 तलाशने लगा। वहां एक मोटा सा आदमी घर्राटे मारते हुए सो रहा था, मुझे बुल्लेशाह की काफी याद आयी... जागो... घुर्राटे मार कर मत सोओ, मौत सर पर खड़ी है।
मैंने फिर एयरपिलो सिर के नीचे रखा, ट्रालीबैग में चेन बांधी, और पिछली झपकी की दृश्यावली को याद करते हुए, ऊंघने लगा... मैंने पिछले 18 घंटे से कुछ भी नहीं खाया था.... मुझे लगा मैं अन्ना के साथ हूं। मुझे वो नारा साफ-साफ याद आया ”मेरी भी वही तमन्ना है, जो सब कहता अन्ना है।“ मैंने खुद से कहा- ”सब“ क्या होता है, कुछ दिन और देखते हैं। संसार तो हमेशा ही अधूरा होता है, उसमें सुधार की गंुजाईश बनी रहती है, या नदी बहती है। कभी भी ठहरे पानी की सड़ाध झेलने की क्या जरूरत है।