बेईमान इश्क बार-बार सिर उठाता है
लोग कहते हैं, घर बार द्वार उम्र देखो
लोग, घर बार द्वार उम्र में बंधे हैं
मुझे सबके नीचे दिखते चार कंधें हैं
क्या इश्क की जात, उम्र, समाज और लिहाज होते हैं
अजीबोगरीब तरीकों से लोग जिन्दा हैं
कोई किताबों में, कोई चरण पादुकाओं में बिछा है
इन्हें देख कर, मेरा ”होना“ शर्मिन्दा है
इन धुओं का, यूं ही हवाओं में मिलना दिखा है
तय में रहने के, तय भविष्य, रीति-रिवाज होते हैं
ढंके छुपे अंगों की तरह, छुपा लिया है
हर एक ने, खुद को, फलां-फलां घोषित किया है
हर एक तन्हा है, फलां फलां हो जाने से
क्यों सबने, ‘‘जो नहीं है’’, उसे पोषित किया है
सब जानते हैं, सच से भटकन के, जन्मों हिसाब होते हैं
12 टिप्पणियां:
आदरणीय राजे शा जी
नमस्कार !
क्यों सबने, ‘‘जो नहीं है’’, उसे पोषित किया है
सब जानते हैं, सच से भटकन के, जन्मों हिसाब होते हैं
..........सच्चाई से रूबरू कराती शानदार पोस्ट
सच से भटकने के जन्मो हिसाब होते हैं...हल किसी जनम में नहीं निकलता।
सारगर्भित रचना , सोंचने को मजबूर करती हुई प्रस्तुति , आभार
बेईमान इश्क बार-बार सिर उठाता है
लोग कहते हैं, घर बार द्वार उम्र देखो
लोग, घर बार द्वार उम्र में बंधे हैं
मुझे सबके नीचे दिखते चार कंधें हैं
क्या इश्क की जात, उम्र, समाज और लिहाज होते हैं
बहुत सुन्दर अभिव्यक्त किया है आपने हमारे समाज की रीति को .बधाई.
सारगर्भित रचना।
क्या इश्क की जात, उम्र, समाज और लिहाज होते हैं
सुन्दर अभिव्यक्त
bahut sundar rachanaa hai!!
कोई किताबों में, कोई चरण पादुकाओं में बिछा है
इन्हें देख कर, मेरा ”होना“ शर्मिन्दा है
इस सच्ची और अर्थपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
अच्छी रचना...
समाज की रीति और मन में उठी उथल -पुथल सदैव विपरीत दिशा में ही जाती है.....
छुपा लिया है
हर एक ने, खुद को, फलां-फलां घोषित किया है
हर एक तन्हा है, फलां फलां हो जाने से
....इस क्यों का जवाब कोई देना नहीं चाहता..
सारगर्भित रचना
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