बुधवार, 30 मार्च 2011

तुम्‍हें फुर्सत नहीं है....


कोई बात
कभी भी
इतनी सीधी-साधी नहीं होती
कि
सहमत या
असहमत होकर
ठहर जाया जाये।
और तुम्हें
इससे ज्यादा
फुर्सत नहीं है
मेरे लिये।

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सारा जिस्म
स्खलित हो जाने के बाद भी
बहुत कुछ बचता है
अनुभव करने जैसा।
अगर तुम
मेरी मौत में शामिल होना चाहो।
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चारों तरफ विकिरण फैला है
तुम चाहे सांस लो या ना लो।
मौत सरक ही रही है।
और कुछ है भी नहीं धरती के अलावा।
और तुम कहते हो
कहीं दूर जाकर मरोगे।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

आपके और मेरे जीवन में सूनामी




बहुत सारे
बौद्ध, हिन्दू, ईसाई, मुसलमान, सिख
अपनी सबसे बड़ी किताबें पढ़ रहे थे
मंत्र जप रहे थे, प्रार्थनाएं कर रहे थे
और अचानक सूनामी आ गया
बिना किसी बुद्ध, ईश्वर, अल्लाह की परवाह किये



बहुत सारे लोग
रोजाना के
खुद ही तय किये धंधों में लगे थे।
अक्षर मात्राएं गिन कर
कविताएं गजलें कर रहे थे।
लोग व्यस्त थे-
विचित्र भावों और
अनुभवों के संचारक लेख और
ब्‍लॉग्‍स पर पोस्ट्स लिखने में।
जो नहीं लिख पा रहे थे,
वो कमेंटस करने में।
और सुनामी आ गया
बिना इसकी परवाह किये
कि इंसान नाम की चीज
कितने जरूरी काम कर रही थी




बहुत सारे
आठ दस घंटे दफ्तरों में बिताने वाले लोग
दफ्तरों में बैठे
दुनियां भर की बतौलेबाजी कर रहे थे
और सुनामी आ गया
बिना तर्क दिये।


बहुत बड़ा अमीर और
बहुत बड़ा गरीब भी
झोंपड़ी और महल बनाने में लगे थे
पता नहीं किन उम्रों के लिए।
और सुनामी आ गया
हर झूठी सुविधा और स्थिरता भंग करने।


बहुत सारे वैज्ञानिक
रियेक्टरों को चला रहे थे
कि किसी बिजली से
दुनियां भर की तकनीकी चलती रहे
वो तकनीक
जिसके बल पर
आदमी इस पृथ्वी का सबसे बड़ा पशु है।
और सुनामी आ पहुंचा
आदमी की अपनी ही कुल्हाड़ी से
उसकी जाति काटने के लिए।


बहुत सारे वैज्ञानिक
अत्याधुनिक जल, थल, वायु पर चलने वाले
जहाज बना रहे थे
ऐसी कारें बन रही थी
जिनमें लेटे लेटे
जल थल आकाश भर में घूमते फिरते
ऐय़याशियां की जा सकें।
और सुनामी आ गया
सब कुछ बहा ले जाने के लिए
थल को आकाश में
आकाश को पाताल में
और पाताल को अधर में।


लेकिन आदमी बाज नहीं आयेगा
वो ये सब सहता हुआ, सीखना चाहेगा-
जल थल और आकाश के प्रलय से निपटना।
मिली हुई चीजों को भूल कर
उन सब चीजों को खोजेगा,
जो नहीं मिलीं।


वो कभी नहीं चाहेगा
कि जितनी भी उसकी उम्र है
उसे ही जश्न की तरह मना ले
ये महसूस करते हुए
कि बिना इंटरनेट के भी
सारी धरती पर रहने वाले इंसान
जु़ड़े हुए हैं आपस में
रोटी कपड़े मकान जैसी
निहायत ही बहुतायत से मिलने वाली
चीजों की प्रचुरता में
आकाश पर सूरज चांद के नजारों में
धरती आग हवा पानी की जादूनगरी में
प्रेम-हंसी-खुशी के रसों और
नृत्य-गान सौन्दर्य के अलंकारों के
खजानों के साथ।


क्या इंसान को
किसी सूनामी से निपटने के
उपाय ढूंढने चाहिये
या फिर से जानना चाहिए
कि
जीना किसे कहते हैं?
(पल में परलय होयगी फेर करेगा कब?)



क्योंकि हर आदमी की जिन्दगी में
साठ सौ साल बाद, आती ही है सूनामी
जिसकी हमारे पास पुख्ता पूर्व सूचना है।
जौ हर आदमी को पक्का बहाकर ले ही जायेगी।
जिसका कोई अपवाद नहीं।



जिसे आप और मैं
‘‘मौत’’ के नाम से भी जानते हैं।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

मुजरिम बनोगे?


नहीं देते, मत दो दिखाई, मुजरिम बनोगे?
बेवजह न दो सफाई, मुजरिम बनोगे?

देखो-सुनो-कहो, सच की तारीफ करो
सच के लिए न करो लड़ाई, मुजरिम बनोगे?

दिलासे दो, दिलासे लो, मुर्दे विदा करो
न सोचो, कब, किसकी आई, मुजरिम बनोगे?

कर गुलामी, इच्छाएं पालो, झूठे अहं पालो
सिर कफन बांधा, होगी हंसाई, मुजरिम बनोगे?

दुनियां है नक्कारखाना अपनी ही रौ में
तुमने जो, अपनी तूती बजाई, मुजरिम बनोगे

रविवार, 6 मार्च 2011

जूझने में मजा है, यही जिन्दगी का कायदा है


अगर सफर की मुश्किलें-थकान नहीं होती
घर क्या है इसकी पहचान नहीं होती

गर सभी का, सुकून से ही, वास्ता होता
दौलतों के पीछे, दुनियां शैतान नहीं होती

मेहनत पसीने ही गर, हर मर्ज की दवा होते
किसानों-मजदूरों की खुदकुशी, यूं आम नहीं होती

आंखे खोलकर कर, अगर इंसाफ होता, सबका
ऊंची ईमारतों से, झोपड़ी परेशान नहीं होती

मिसाइलों-बमों से गर, इंसान खुदा हो जाता
कोई गीता नहीं होती, कोई कुरान नहीं होती

क्या करूं, बेईमानियों की फसलें बहारों पर हैं,
वर्ना ईमानदारी तेरी, मुझ पे अहसान नहीं होती

जिस्मानी लज्जते, जो मुहब्बतों का मकाम होती
रूहानी मोहब्बतें, खुदाबंदों का अरमान नहीं होती

इंसानी रिश्ते, अगर बस सुविधा, या व्यापार नहीं होते
दूल्हे बाजारों में ना बिकते, दुल्हने नीलाम नहीं होती



टीपू कि‍बरि‍या द्वारा खींची गई तस्‍वीर

अजनबी, लोग जिन्दगी का ककहरा सीखे ही नहीं
वर्ना जूझने में मजा होता, मौत आसान नहीं होती

Alone

बुधवार, 2 मार्च 2011

हमें पता है- आपकी इच्‍छा क्‍या है?


इच्छा
उस फिल्मी नायिका का
स्वर्गिक सौन्दर्य होती है
जिसे हमने अपनी जिन्दगी में
किसी अंधेरे एयरकंडीशंड सिनेमाघर में
पहली बार फिल्म देखते वक्त देखा हो


इच्छा
सुर्ख होंठों, सुराहीदार गले
काली, तर्रार आंखों वाली
वह नवयौवना होती है
जो इतनी ढंकी छुपी होती है
कि हमें बाकी सब कल्पना करनी पड़े
और
बस कुछ दिन बाद ही पता चले
कि उस कैंसरग्रस्त नवयौवना के
कुछ ही दिन शेष हैं।


इच्छा
उस नवयुवा कवि की
दर्द, प्रेम और अद्भुत जीवंत अर्थों वाली
वो दो चार पंक्तियां होती हैं
जिसे
हर जवान होता शख्स
कभी ना कभी गुनगुनाता है
और बाद में पता चलता है
यही युवा कवि
अपनी गुनगुनाहट में असफल होकर
प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है


इच्छा
पहली नजर में
इतनी मादक होती है
कि इस दौरान ही
हर कोई मौत चाहने लगता है
लेकिन
इस खुमार के तुरन्त बाद
हर रोज, हर पल
ना चाहकर भी मरता है


इच्छा
दीवाली की कल्पना सी होती है
धन-दौलत-रौशनी और पटाखे
सारे साल में,
बस एक रात,
बस एक पहर।


इच्छा उस चांदनी रात सी है
जिसके बाद हर रात
चांद खत्म होते-होते
काली अमावस में बदल जाता है
पता नहीं किस मृत इच्छा में।
इच्छा को
आदमी भोगना चाहता है
पर इच्छा
आदमी को भोग लेती है


इच्छा की उम्र तो देखो
कि
अभी जेहन में आये और
बिना चेहरा दिखाये ही
बदल लेती है चेहरा।


इच्छा
दुनियांदारों की
सदियों बाद आबादी है
और तुरन्त बर्बादी है।


इच्छा
गुफाओं में बैठे हुए
तपस्वियों की उम्र है।


इच्छा
ताना-बाना है
‘नया’, ‘कुछ और’, ‘चरम’
‘सर्वश्रेष्ठ’, ‘अमरत्व’ ‘अनूठा’
आदि शब्दों का।