Monday 21 February 2011

किस्मत में, अनपढ़ फकीरों की, खुदा मिलना


एक अंधा सा कुआं, हर रौशनी से डर
क्यों डराता है, किसी सोचे से, जुदा मिलना

रात भर को सब्र की, रोशन शमा रखिये
जो चाहते हो, नूर की परचम, सुबह मिलना

अपने खयालों-फैसलों की, यही आदत सताती है
तय था कल, अब फिर कोई, शक-ओ-शुबा मिलना

तेरी ही कोशिश पर, नजर उसकी, जो करता तय
कुछ और कर, ये जानकर कि, तयशुदा मिलना

जो जायेगी ही एक दिन, दौलत वो छोड़िये
जन्नते दिखलायेगा, गरीबों की दुआ मिलना

किताबी कीड़ों को, रद्दी के सिवा क्या मिलना
किस्मत में अनपढ़ फकीरों की खुदा मिलना

Friday 18 February 2011

या देवी सर्वभूतेषु दृष्‍टि‍ रूपेण संस्‍थि‍ता


 













इससे पहले कि तुम
मेरे आगे दोस्ती का दाना डालो
फिर प्रेम के रोने रोओ
और फिर
शादी के कागजों पर अंगूठा लगवाओ
तुम्हें जानना चाहिये

मैं तुम्हारी
सुबह की ताजा और गर्मा-गर्म
बेड-टी नहीं हूं
इसी तरह
वक्त पर
दोपहर, और रात का भोजन भी नहीं।

मैं वो कम्प्यूटराईज्ड मशीन नहीं हूं
जिसमें तुमने अपनी पसंद के
सारे शेड्यूल फीड कर रखे हैं
और वो मशीन
तुम्हें कपड़े, जूते, मोजे तुरन्त देगी
टूटे बटन टांक देगी
तुम्हारी मर्दानगी के सुबूत
बच्चे पैदा करेगी
पालेगी उन्हें तुम्हारे हिसाब से

मैं तुम्हारी वो जागीर नहीं हूं
जिसके रूप और समझदारी पर इतराते फिरो
कार में बगल वाली सीट पर सजाते फिरो।
जिसे तुम दोस्तों को दिखाते फिरो

मैं तुम्हारी शाम का रोमांस नहीं हूं।
मैं तुम्हारी रात का बिस्तर नहीं हूं।

मैं तुम्हारे वासनाओं की खूंटी नहीं हूं
कि कभी जींस, कभी स्कर्ट, कभी साड़ी
मुझ पर हर तरह के कपड़े टंगे रहें
जो तुमने फिल्मी हिरोइनों पर देखे हों, पसंद हों।

मैं जिम की वो मशीन नहीं
जिस पर
तुम वात्सयायन की नीली सीडियों में
रक्तचाप और बेहोशी बढ़ाती
उत्तेजक मुद्राएं आजमाओ।

तुम जिसके सपने देखते हो
मैं वो महिला आरक्षण भी नहीं
कि मैं सारे कामों के साथ
नौकरी भी करूं
इंतजाम करूं
तुम्हारे मोबाईल, टीवी, इंटनेट, कार के लिए पेट्रोल का
बच्चों के साथ सैर सपाटों का
मैं वो आधुनिक महिला नहीं
जो तुम्हारा अहसान माने
कि तुमने बिना कुछ किये
उसे आधुनिक होने दिया
और घर के साथ ही किसी दफ्तर और
दुनियां भर की जिम्मेदारियां, मगजमारियां दे दी।

मैंने पढ़ा सुना है
लक्ष्मी, शिवानी, ब्रम्हाणी के बारे में
गार्गी, मैत्रैयी, झांसी की रानी के बारे में
अगर तुमने भी सुना हो....
अगर किसी पूर्णता की तलाश में हो तुम भी
तो दो और
जीती जागती आंखों की सामर्थ्‍य की तरह
मुझे भी साथ ले चलो।

Wednesday 16 February 2011

जमाने की हकीकतें ना आयें रास क्या करें



जमाने की हकीकतें ना आयें रास क्या करें
अजीज भी पराया सा, अब किससे आस, क्या कहें

जब मिला-जो भी मिला, मतलब का ही रोगी मिला
ये किस्सा था हर रिश्ते का, बस और खास क्या कहें

जिससे बड़ी उम्मीदें थीं, वो भी मिला पर शर्तों पर
अब नाउम्मीदी कैसी है?, क्यों दिल उदास क्या कहें?

सेहत तो भली दिखती है, सूरत पे भी मुस्कुराहटें
पर दिल के हैं अहसास क्या, होश-ओ-हवास क्या कहें,

यही हर घड़ी सवाल था, हो जिन्दगी का हश्र क्या?
इक मौत "अजनबी" तय लगी, बाकी कयास क्या कहें

Thursday 10 February 2011

तुझमें मुझमें बैर कराये, वो धर्म नहीं है, साजिश है


हर तरह की हैवानियत से टकराना जरूरत है
इंसानियत के लिए हर मजहब, भूल जाना जरूरत है


कब तक हम हिन्दू या मुसलमान रहेंगे
देश की तरक्की के लिए, ये सब छुट जाना जरूरत है

पैगम्बर गये, वो ऋषि गये जिन्होंने एक को जाना
अब हमारा भी किसी दोगलेपन से, हट जाना जरूरत है


कब तक तुम कल की दुहाई दे, अपना आज बिगाड़ोगे
अतीत की काली परछाईंयो से, कट जाना जरूरत है

इन पंडितों और मौलवियों की साजिशें समझों
ये बनें रहें, इनकी ”हमारा बंट जाना“ जरूरत है


तुझमें मुझमें बैर कराये, वो धर्म नहीं है, साजिश है
ऐसे किसी भी नर्क की राह से, पलट जाना जरूरत है

”ना तो जिओ ना जीने दो“, कौन सी किताब कहती है
दिमागों से ऐसी सारी किताबें, छंट जाना जरूरत है

Wednesday 9 February 2011

जिन्दगी एक वीडि‍यो गेम है


जिन्दगी एक कम्प्यूटर गेम की तरह है
आपको मिलता है एक तयशुदा वक्त
इस तयशुदा वक्त में
तय करने होते हैं अनगिनत रास्ते
और अनगिनत मंजिलें

कुछ रास्ते जैसे दिखते से हैं
पर भूलभुलैया होते हैं
कुछ मंजिलों जैसे दिखते हैं
पर वो पड़ाव होते हैं

लाईफ कम हो जाती है
किन्हीं पड़ावों पर ठहर जाने पर
लाईफ कम हो जाती है
निषिद्ध चीजों को स्पर्श करने पर

कुछ ऐसी चीजें होती है
जो किन्हीं खास पड़ावों पर ही काम आती हैं
कुछ ऐसी चीजें होती हैं
जिन्हें ना लें तो कोई फर्क नहीं पड़ता
पर जिन्हें धारण कर लें तो लाईफ बढ़ जाती है

इस गेम में हर लेवल पर
कुछ मुश्किलें मिलती हैं,
और इनका सामना ही
असली खेल है।

खेल के प्रमुख नियम हैं
लाईफ को सुदृढ़ करते/रखते हुए
मंजिल दर मंजिल तय की जाये।

प्राथमिकता अनुसार
सही वक्त पर सही काम किया जाये
सही वक्त पर सही चीज ली जाये
हर लेवल पर हर वो चीज ली जाये
जिनसे लाईफ बढ़ती हो
क्योंकि ये लाईफ वहां खर्च होनी है
जहां हमें कुछ निषिद्ध चीजों को भी छूना होगा

कहीं चलना होगा दबे पांव
कहीं संभलकर तेज चलना होगा
कहीं सर्वोच्च कुशलता से छलांग मारनी होगी

और वहां तो अक्सर लोग चूक कर जाते हैं
जिस बिन्दु पर इस गेम में
कुछ भी नहीं करना होता
सिवा कुछ पलों के इंतजार के।
कुछ धैर्य रखने के।

पर जैसे कि आप गेम के चरम पर हों,
कभी कभी ऐसा भी होता है,
कि अचानक बिजली गुल हो जाये।
आपको मौका होता है,
कम्प्यूटर/गेम को कभी फिर से शुरू करने का।
पुरानी कुशलताओं को और तीखेपन से दोहराने,
और गलतियों से सीख लेने का।

लेकिन जिन्दगी के खेल में
हमें, बस एक ही बारी मिलती है।
और पता नहीं क्या होता है,
बिजली गुल हो जाने पर
मौत आने पर।

Sunday 6 February 2011

क्या फैसला करते?


सांसों की ही फिक्र की और बिक गई सब जिन्दगी
सांसे थीं या थी बला, क्या फैसला करते?
उलझे-क्या करें, ना करें? हमेशा अंजामों से डरे,
मौत तक बस यही चला, क्या फैसला करते?

शराफतें पाले सीने में, बस घिरे रहे कमीनों में
आस्तीनों में विष पला, क्या फैसला करते?
दूसरों को क्यों दोष दें, गर हिम्मत ना अपना होश दे
अपनी ही हसरतों ने छला, क्या फैसला करते?

डर बसा रोम-रोम में, ध्यान हर घड़ी था विलोम में
धड़कनें थीं कि जलजला, क्या फैसला करते?
हर बार धोखा, हर बार गम, हर बार इक संगदिल सनम
अपने दिल बस ना चला, क्या फैसला करते?