Thursday 10 February 2011

तुझमें मुझमें बैर कराये, वो धर्म नहीं है, साजिश है


हर तरह की हैवानियत से टकराना जरूरत है
इंसानियत के लिए हर मजहब, भूल जाना जरूरत है


कब तक हम हिन्दू या मुसलमान रहेंगे
देश की तरक्की के लिए, ये सब छुट जाना जरूरत है

पैगम्बर गये, वो ऋषि गये जिन्होंने एक को जाना
अब हमारा भी किसी दोगलेपन से, हट जाना जरूरत है


कब तक तुम कल की दुहाई दे, अपना आज बिगाड़ोगे
अतीत की काली परछाईंयो से, कट जाना जरूरत है

इन पंडितों और मौलवियों की साजिशें समझों
ये बनें रहें, इनकी ”हमारा बंट जाना“ जरूरत है


तुझमें मुझमें बैर कराये, वो धर्म नहीं है, साजिश है
ऐसे किसी भी नर्क की राह से, पलट जाना जरूरत है

”ना तो जिओ ना जीने दो“, कौन सी किताब कहती है
दिमागों से ऐसी सारी किताबें, छंट जाना जरूरत है

2 comments:

रंजना said...

सही कहा आपने...वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत यही है..

सार्थक ,बहुत ही सुन्दर रचना...

आभार !!!

डॉ टी एस दराल said...

इन पंडितों और मौलवियों की साजिशें समझों
ये बनें रहें, इनकी ”हमारा बंट जाना“ जरूरत है

सारे फसाद की जड़ ?
सच्चाई को बयाँ करती रचना ।

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