कल परसों ही जब गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुले तो मैंने 5 साल की तोषी से सुना...., उसकी मैडम कह रही थी कि किसी उत्तरखांड नाम के देश में बहुत सारे लोग बादल फट जाने से मर गये, उसने पूछा उत्तरखांड नाम का देश, हमारी सोसायटी से कितनी दूर है? बादल फटना क्या होता है? जब ढेर सारा इकट्ठा पानी गिरता होगा तो नहाने में और मजा आता होगा... बाढ़ में कार बहती होगी तो वो अपने आप ही चलती होगी.. पेट्रोल लगता ही नहीं होगा... आदि-आदि।
इस तरह उत्तराखंड जैसे हादसों के बाद मैंने अक्सर सोचा कि मुझे कितने किलोमीटर तक रहने वाले इंसानों के बारे में सोचना और उनके बारे में चिंतित होना चाहिए। क्योंकि बीवी बच्चों और दो चार रिश्तेदारों के बारे में ही हम कुछ कर सकने की जिम्मेदारी महसूस कर पाते हैं, तो क्या मुझे अपने परिवार के बारे में ही सोचना-समझना-करना चाहिए? इससे ज्यादा मोहल्ले की गतिविधियों में शामिल होना चाहिए? या जिस दिल्ली मुम्बई शहर में काम कर रहे हैं वहां के निवास स्थल के आसपास और स्थानीय गतिविधियों में, जहां शारीरिक उपस्थिति दर्ज कराई जा सके वहां के बारे में चिंतित होना, समझना, करना चाहिए? या फिर दूर 5000 कि.मी. दूर जापान में आये सूनामी में परमाणी विकिरण के खतरों के बारे में, दक्षिण अफ्रीका की भूख के बारे में, अमरीका के ऐश्वर्य-उन्माद-खोखली जीवनशैली से तंग लोगों के बारे में सोचना चाहिए जो आॅटोमैटिक गन से भीड़ पर गोलियां चलाने लगते हैं?
फिर लगा कि समाधान तो सामने ही दिख रहा है.. उत्तराखंड में स्थानीय लोगों ने ही बचाव कार्य किया. जापान में आये भूकंप-सूनामी में भी स्थानीय लोगों ने ही सब कुछ को महीनों में ही पटरी पर ला दिया... इजराइल लेबनान-फिलिस्तीन की समस्या भी स्थानीय लोगों द्वारा ही बनाई रखा जी सकती या सुलझाई जा सकती है... कश्मीर की समस्या भी आर पार के स्थानीय लोगों द्वारा ही बनाई रखी या सुलझाई जा सकती है...
क्योंकि किलोमीटर्स दूर बैठे लोग किसी फेसबुक स्टेटस या पेज को लाइक कर सकते हैं ज्यादा से ज्यादा कमेंट कर देंगे ज्यादा से ज्यादा शेयर कर देंगे.... ज्यादा से ज्यादा किसी चुनाव में किसी पार्टी को वोट कर देंगे... बाद में जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मनमानी करने वाले मनमोहन बैठ गये, तो फिर... वही सालों इंतजार करने वाले बेनाम आम आदमी का रोल आपको ही निभाना पड़ेगा।
इस सारी कवायद का सार यह है कि इंटरनेट पर हजारों नेट मित्रों में सक्रिय रहकर भी कोई परिणाम नहीं निकलता, और मोहल्ले में दो चार लोगों के सक्रिय सहयोग से इतनी समस्याओं का समाधान हो सकता है कि आप किसी इंटरनेट वेबसाईट पर लाखों लाईक्स और कमेंट पा सकें, सो स्थानीय स्तर पर, शारीरिक संपर्कों में ज्यादा-ज्यादा सक्रिय रहिये... शारीरिक स्थानीय स्तर के संपर्क टूट रहे हैं और आत्महत्या के केस बढ़ रहे हैं... । लोग इंटरनेट पर हजारों मित्रों से 24 घंटों जुड़े हैं पर अंदर ही अंदर खोखलापन-बेचैनी... भाई.बहिन.मां.बाप से दिल की बात नहीं कर रहे... रोज दो चार आत्महत्याओं की खबर पढ़ने को मिलती है... इस हिसाब से सप्ताह में 30-40 महीने में 200 लोग मर रहे हैं... क्या ये उत्तराखंड में बादल फटने, जापान में भूकम्प सूनामी, चीनी सीमा पर सेना के खड़े होने, कश्मीर समस्या और दक्षिण अफ्रीका में भुखमरी की समस्या से ज्यादा प्राथमिकता वाली.. जरूरी चीज नहीं है....
आप यहां तुरंत... अभी सक्रिय हो कर इंसानियत को बचा सकते हैं... बिना इंटरनेट कनेक्शन के और प्रतिसाद भी हवाहवाई..ख्वाबख्याली नहीं.. अभी यहीं तुरंत मिलेगा...एक इंटरनेट दोस्त से कहीं ज्यादा जिगरी...कहीं अपना... मां बाप भाई बहिन बुआ मौसी चाचा चाची जैसे मजबूत रिश्ते... जो किसी भी निराशा की गहरा दल दल बनने की संभावना ही खत्म कर दें, जो आपको आत्महत्या के मगर के मुंह में ले जाये।