रविवार, 6 मार्च 2011

जूझने में मजा है, यही जिन्दगी का कायदा है


अगर सफर की मुश्किलें-थकान नहीं होती
घर क्या है इसकी पहचान नहीं होती

गर सभी का, सुकून से ही, वास्ता होता
दौलतों के पीछे, दुनियां शैतान नहीं होती

मेहनत पसीने ही गर, हर मर्ज की दवा होते
किसानों-मजदूरों की खुदकुशी, यूं आम नहीं होती

आंखे खोलकर कर, अगर इंसाफ होता, सबका
ऊंची ईमारतों से, झोपड़ी परेशान नहीं होती

मिसाइलों-बमों से गर, इंसान खुदा हो जाता
कोई गीता नहीं होती, कोई कुरान नहीं होती

क्या करूं, बेईमानियों की फसलें बहारों पर हैं,
वर्ना ईमानदारी तेरी, मुझ पे अहसान नहीं होती

जिस्मानी लज्जते, जो मुहब्बतों का मकाम होती
रूहानी मोहब्बतें, खुदाबंदों का अरमान नहीं होती

इंसानी रिश्ते, अगर बस सुविधा, या व्यापार नहीं होते
दूल्हे बाजारों में ना बिकते, दुल्हने नीलाम नहीं होती



टीपू कि‍बरि‍या द्वारा खींची गई तस्‍वीर

अजनबी, लोग जिन्दगी का ककहरा सीखे ही नहीं
वर्ना जूझने में मजा होता, मौत आसान नहीं होती

Alone

11 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

Kulwant Happy ने कहा…

असल में जिन्‍दगी यही है पिक्‍चर बहुत स्‍टीक लगाया है गुरू

संध्या शर्मा ने कहा…

अगर सफर की मुश्किलें-थकान नहीं होती
घर क्या है इसकी पहचान नहीं होती
बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति..........

Kailash Sharma ने कहा…

आंखे खोलकर कर, अगर इंसाफ होता, सबका
ऊंची ईमारतों से, झोपड़ी परेशान नहीं होती..

बहुत सुन्दर ...हरेक शेर सार्थक और लाज़वाब..

रश्मि प्रभा... ने कहा…

आंखे खोलकर कर, अगर इंसाफ होता, सबका
ऊंची ईमारतों से, झोपड़ी परेशान नहीं होती
एक बात कहूँ राजे शा जी , आपकी लेखनी में ज़िन्दगी को करीब से देखने जूझने का नज़रिया मिलता है और इसलिए उसमें जीवंत सार्थक एहसास मिलते हैं . जो दर्द की धार को सहता जाता है, उसकी सोच में ही इतनी तीक्ष्णता होती है

नीरज गोस्वामी ने कहा…

मेहनत पसीने ही गर, हर मर्ज की दवा होते
किसानों-मजदूरों की खुदकुशी, यूं आम नहीं होती

बहुत खूब...आपकी रचना बहुत अच्छी है...ग़ज़ल के नियम कायदों पर तो ये खरी नहीं उतर रही लेकिन दिल में सीधे उतर रही है...लिखते रहें...

नीरज

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मिसाइलों-बमों से गर, इंसान खुदा हो जाता
कोई गीता नहीं होती, कोई कुरान नहीं होती

बहुत खूब .. क्या बात कही है .. सच में बारूद से कोई खुदा नहीं बन सकता ..

Rajeysha ने कहा…

माननीय रश्‍ि‍म जी, नीरज जी।


मेरे खयाल से उधार के जज्‍बातों से कवि‍ता में रस, छंद, अलंकार तो पि‍रोये जा सकते हैं पर काव्‍य में आत्‍मा नहीं आमंत्रि‍त की जा सकती। यदि‍ जि‍न्‍दा कवि‍ता चाहि‍ये, काव्‍य में यदि‍ आत्‍मा चाहि‍ये तो आपको अपनी आत्‍मा ही काव्‍य में शेयर करनी पड़ती है।
शेयर करने की वजह यही बनती है कि‍ उसे कुछेक अपने आप जैसी ही आत्‍माएं देख लें, पढ़ लें... और यह अनुभव कर लि‍या जाये कि‍ हम ही सारा संसार है।

pragya ने कहा…

"क्या करूं, बेईमानियों की फसलें बहारों पर हैं,
वर्ना ईमानदारी तेरी, मुझ पे अहसान नहीं होती"


बहुत ही ख़ूबसूरत...

News And Insights ने कहा…

राजेय जी दिल से लिखा है आपने| धन्यवाद

amrendra "amar" ने कहा…

क्या करूं, बेईमानियों की फसलें बहारों पर हैं,
वर्ना ईमानदारी तेरी, मुझ पे अहसान नहीं होती

waah, dil ko chu gaye aapke gahre jajbaat ........

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