सावधानी प्रत्येक उपचार की माँ है परन्तु आज के आदमी की सबसे बड़ी तकलीफ - वो इतना व्यस्त है कि सावधान या होश में रहने में उसे बड़ी तकलीफ होती है। वो चाहता है कि सारे समाधान पके-पकाये उसकी जद में आ जायें। लेकिन यदि आप चाहते हैं कि आप स्वस्थ, सकुशल जिन्दा रहें तो आपका सावधान रहना ही किसी भी युग या काल में आपकी हर समस्या का समाधान हो सकता है।
क्या आपको कभी सिरदर्द हुआ तो आपने झट उस प्रचलित ब्रांड की गोली नहीं ले ली जो बचपन से दिन में कई बार रेडियो, टीवी, अखबारों में गूंजती रही है। पेट, दांत, बदन दर्द, जुकाम-बुखार, खांसी जैसे आम रोगों पर हम झट अपने आत्मविश्वासपूर्ण ज्ञान के हिसाब से एलोपैथिक गोलियां या कैप्सूल्स गटक जाते हैं। ऐसा भी होता है कि पिछली बार जिस बीमारी के लिए डॉक्टर ने जो दवाईयां लिखीं थी हफ्तों, महीनों या साल बाद पुनः उसी बीमारी की चपेट में आने पर हम डॉक्टर के पर्चे में लिखी वही दवाईयां लेने कैमिस्ट की दुकान पर पहुंच जाते हैं। ये समझदारी है या नादानी?
कभी कभी हम डॉक्टर के मुंह से ये भी सुन लेते हैं कि खुद ही डॉक्टर ना बनें, पर इसमें क्या बुरा मानने जैसी बात है? हम अपनी ही एक भूतपूर्व सहकर्मी को जानते हैं जो केवल साक्षर थीं, उनको उनके ही किसी संबंधी ने एक पुस्तक भेंट दी थी जिसमें सामान्य रोगों की जानकारी और उनके एलोपैथिक उपचार स्वरूप ली जाने वाली औषधियों का वर्णन था। वो हिन्दी-साक्षर महिला जिसे अंग्रेजी की दवाईयों के लिखे हुए नाम भी पढ़ने नहीं आते थे वो अपने सिर, पेट, बदन दर्द का इलाज उसी किताब में लिखी दवाईयों से कर रही थी। मैंने उन्हें इसकी गंभीरता और भयावहता को समझाने की कोशिश की परन्तु... असर तो वही होता है जिसकी इजाजत हम स्वयं खुद को दें।
आजकल इंटरनेट पर दवाइयों की जानकारियां देने वाली साईटों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनमें कुछ साईट्स दवा कंपनियों की होती हैं, कुछ चिकित्सा संस्थानों की... और आप जानते हैं कि कोई भी दवा निर्माता कंपनी दवा विशेष के उपयोग के 36 कारण गिना सकती है, इनमें आप किस वजह से ये दवा खायेंगे और आपके शरीर के इतिहास के हिसाब क्या असर होगा यह कहीं नहीं लिखा, इस बारे में एक जिन्दा और योग्य चिकित्सक ही कुछ समाधान दे सकता है। जब आप दवा खाने जा रहे हैं तो यह इन सवालों के बारे में सोचें -
- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आपको बुखार, दस्त या पेट, बदनदर्द तो हो पर उसकी वजह वो ना हो जो पहले कभी थी?
- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस बार हुआ रोग या जुकाम बहुत ही साधारण हो और आप जुकाम की दवाई की भारी खुराक ले रहे हों?
- सीने में उठ रहे दर्द की वजह गैस का बनना है, सीने में कफ जमना है, दिल की धमनियों में अवरोध है, या दमें के कारण.... क्या ये सब आप ही तय कर ले रहे हैं?
- एक ही समय में उभरे दो रोगों के लक्षणों में से किसका प्राथमिक रूप से निदान करना है ये कौन तय करेगा?
- हो सकता है कोई दवाई तत्कालिक रूप से आपको आराम दे पर बाद में बुरे साइड इफेक्टस।
ये सारे प्रश्न इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अपनी किसी बीमारी के बारे में हम पूर्वधारणा बनाकर, खुद अपनी तीमारदारी के चक्कर में खुद को किसी रोग की गंभीर अवस्था में तो नहीं डाल रहे?
किसी रोग के बारे में हमारी सोच सकारात्मक हो या नकारात्मक .... हमें कई तरह के जैसे आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक दुष्परिणाम दे सकती है। ये भी हो सकता है कि रोग छोटा सा हो पर आप उसे पढ़ी-सुनी बातों के आधार पर बड़ा कर डालें। जैसा कि मेरे एक मित्र के साथ हुआ। मामूली सिरदर्द था जो कि नियमित नहीं था। पर किसी फिल्म का प्रभाव था या किसी निकट संबंधी से प्राप्त किसी बीमारी की जानकारी। मेरे मित्र ने अपने सिर को तीन बार स्केन करवाया। एक डॉक्टर ने कहा कि कुछ नहीं है तो उस पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ, दूसरी बार लेब टेक्नीशियन ने उन्हें कन्फर्म किया कि परिणाम कुछ अनियमित हैं (जो कि प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से अलग अलग हो सकते हैं) तीसरी बार डाॅक्टर ने भी मित्र की हां में हां मिलाई। कुछ दिन दवाईयां खाईं फिर लगा कि कोई पाजीटिव या निगेटिव असर नहीं है तो खुद ही छोड़ छाड़ दीं। पर इस बीच ही उन्होंने अपने दिमाग का रोना रो रोकर लोगों के मन में शक पैदा किया, जांचों डॉक्टरों की फीसों में हजारों के नोट गंवाए अपने जिस्म में जो रसायन डाले उनका असर क्या हुआ ये भगवान ही जाने। तो ये मुद्दा बड़ा ही संवेदनशील है।
एक बार हमें पेट में दर्द रहने लगा, हफ्ते दस दिन की निगरानी के बाद भी सामान्यीकरण के आसार ना देख घर के ही निकट रहने वाले एक अविख्यात से डॉक्टर वर्मा जी के पास गये। पर क्लीनिक के अंदर जाने पर दिखा कि नजारा कुछ और ही था। बरसों पहले के अनाम से डॉक्टर वर्मा जी तो वी सुमित वर्मा जी निकले जिनका शहर के बीचों बीच बड़ा उदररोग अस्पताल है। क्लीनिक पर सामान्य 100-150 के स्थान पर फीस 400 रू. की फीस से झटका लगा, वर्मा जी ने कि कहा कि हम उनको अस्पताल में मिलें वो जांच वगैरह करेंगे। अस्पताल में लम्बी लाईने लगीं थी। पूरा दफ्तरी माहौल था। जब डॉक्टर का पर्चा हमने वहां मौजूद एक अधिकारीनुमा व्यक्ति को दिखाया तो वो बोला कि आपको कुल जमा 5000 रू कि जांचे करवानी हैं उसके बाद ही डॉक्टर के पास जाना/मिलना हो पायेगा क्योंकि तभी वे कुछ बता पायेंगे। हमारी सिट्टी पिट्टी गुम, हमने अस्पताल के बाहर आकर डॉक्टर को फोन लगाया कि सर गरीब आदमी हैं हमारी तो एक तनख्वाह ही आपकी जांचों में निकल जायेगी, कृपया उचित दवाई गोली लिख दें फिर जो होगा भगवान पर। डॉक्टर को शायद रहम आया उन्होंने तुरन्त आने को कहा। हमने अधिकारीनुमा व्यक्ति को जाकर कहा कि डॉक्टर ने खुद बुलाया है वो कैबिन में गया और पूछकर हमें साथ ले गया। डॉक्टर ने ऊपर से नीचे तक देखा और शोषण के अयोग्य पाकर हमारे अस्तित्व के नकारापन को लानत देते हुए उस रोग का सामान्योपचार लिख दिया। ईश्वर की कृपा से 4 दिन में में सुखद परिणाम रहे और फिर सालों बाद तक सकुशल रहे।
तो बीमार होने इन बातों का ख्याल रखना बेहतर हो सकता है?
- बीमारी के बारे में अपने कहीं से लिखे, पढ़े या सुने मुताबिक कोई पूर्वधारणा ना बनायें। यानि कि ना तो बीमारी को हल्का लें ना ही इतना गंभीर कि आपकी सोच ही अमल में आने लगे।
- खुद दवाईयां लेना किसी भी परिस्थिति में गंभीर हो सकता है, इस बारे में तो महंगे या सस्ते किसी योग्य डॉक्टर का परामर्श ही आधार हो सकता है।
- बच्चे हों या बड़े, कुछ बीमारियों के घंटों मिन्टों में ही मिजाज बदलते देर नहीं लगती, तो सावधानी में ही सलामती है। हमारा जरूरत से ज्यादा आलस्य या फुर्ती दोनों नुक्सानदायक हो सकते हैं। क्योंकि हो सकता है कि आलस्य से बीमारी बढ़े या फुर्ती दिखा कर हम तीन दिन में 2 डॉक्टरों की दवाईयां खा लें और चौथे दिन बीमारी अपने आप ही ठीक हो सकती हो।
हमारा अपना बड़ा दुराग्रह था आयुर्वेदिक चिकित्सा को लेकर। एक बार पीलिया हुआ, जांच में मात्रा 7 बिन्दु तक पाई गई। निकट के रिश्तेदारों के सुझाव पर, उनके पुत्र के इसी रोग का निदान करने वाले, एक आयुर्वेदिक चिकित्सक कमाल पाशा के पास गये। उन्होंने एलोपैथिक डॉक्टरों की तरह ही 40 दिनों में 4 बार रक्त की जांच करवाई दवाईयां बदल बदल कर देते रहे। हालत ये हो चली की जिंदगी में पहली बार दुबलेपन और शारीरिक अशक्तता का क्या अर्थ होता है समझ में आ गया। थक हार कर, शहर में अपोलो अस्पताल की नई नई खुली ब्रांच में गये जहां कि महज 3 दिन की खुराक से जिस्म पटरी पर लौट आया। तो हमने जाना कि आयुर्वेदिक, ऐलोपैथिक, हौम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति तो अपनी जगह है डॉक्टर ही योग्य ना हो तो क्या कर लोगे। मुझे अपने ग्रामीण रिश्तेदारों की स्थिति का भान हुआ। पिछले 30 वर्षों से गांव में (शहर में झोलाछाप डॉक्टर कहे जाने वाला) एक डॉक्टर कुनैन की कड़वी गोली और लाल शर्बत या सामान्य मलहमों से ही सारे ग्रामीणों का इलाज करता आया है ऐसी नौबत कम ही आयी कि स्थिति उस झोलाछाप डॉक्टर के वश से बाहर हो गई हो।
कुछ बातें डॉक्टरों के बारे में भी खयालों में आती हैं-
- प्रत्येक उपचार के लिए किसी ना किसी तरह की जांच ही आजकल के डाॅक्टरों के उपचार का आधार है, क्या पिछली सदियों में जो डॉक्टर अनुमान से कर रहे थे वो सब गलत था या मजबूरी थी ? या आयुर्वेदिक डॉक्टरों की तरह ही एलोपैथिक वैज्ञानिक डॉक्टर भी तुक्के लगाकर ही काम चला रहे थे।
- एक्स-रे, सीटी स्केन जैसी जांचें मनुष्य के शरीर के लिए आज तक भी पूर्णतः सुरक्षित नहीं हुई हैं। डॉक्टर सलाह देते हैं कि इस तरह की जांचें एक अंतराल के बाद ही और सकुशल तकनीशियन से ही, कराया जाना उचित है। अंग विशेष के अनुसार भी इन विकिरणों के दुष्प्रभाव आम या खास होते हैं। जांच प्रयोगशालाओं से सेटिंग के कारण कई डॉक्टर अक्सर जांचें लिखने में तत्परता दिखाते हैं जो कि कई बार अनावश्यक होती हैं।
- कुछ दवाईयां एक रोग के निदान के लिए तो पूरी तरह समर्थ होती है पर कुछ समय लेकर भयंकर परिणामों का कारण भी होती है। कुछ दवाईयां बहुत ही जरूरी होती हैं पर आम आदमी को जिन्दगी के दर्दों से छुटकारा दिलाने में प्रवृत्त सरकारों की अनुमति और दवा कंपनियों के लालच से ये दवाईयां अपने साइड इफेक्टस की अपूर्ण जानकारी के ही बाजारों में प्रसारित हो जाती हैं। इसलिए अपडेटेड डॉक्टर के पास ही जायें, जिसे इस बात की जानकारी हो कि कौन सी दवाईयां किस कारण, किस देश में प्रतिबंधित हो चुकी हैं। पुराने इलाजों से ही काम चला रहे डॉक्टर पुरानी दवाईयों के जाहिर हो चुके दुष्परिणामों से बेखबर होकर रोगी को साईड इफेक्ट दे रहे होते हैं।
मानसिक, मौसमी और एलर्जिक रोगों के बारे में रोगी ज्यादा बता सकता है कि किन चीजों या परिवेश से वह कितना प्रभावित होता है। इसी तरह कुछ बातें पूरी तरह रोगी की ओर से स्पष्ट होना जरूरी हैं, क्योंकि हो सकता है समयाभाव या किन्हीं कारणों से डॉक्टर कुछ प्रश्न पूछे ही ना। किसी भी रोग के बारे में बिना मान अपमान की चिंता, शर्म लिहाज किये हमें चिकित्सक को सारा अतीत जाहिर कर देना चाहिए। हमारी समझदारी किसी भी डॉक्टर के अचूक निदान का कारण हो सकती है। अतः जरूरी है हम खुद से ही ये प्रश्नों के उत्तर पूछकर डॉक्टर के समक्ष उपस्थित हों।
- हम रोग के प्राथमिक लक्षणों को किस गंभीरता से ले रहे हैं?
- पिछली बार रोग के लक्षणों, आक्रमण की क्या स्थिति थी?
- अपने पुश्तैनी रोगों के बारे में हमें कितनी जानकारी है?
- अपनी मानसिक, शारीरिक प्रकृति और रोग के इतिहास को हम डॉक्टर को कितना स्पष्ट कर पाये हैं?
- पहले कभी किन दवाईयों के हमारे शरीर पर क्या साइड इफेक्ट रहे?
- खान पान की मात्रा और किन चीजों को हमारा शरीर आसानी से स्वीकार कर लेता है और किन आम चीजों से ही तकलीफ या समस्याएं खड़ी होने लगती हैं।
एलोपैथिक डॉक्टर अक्सर खानपान से संबंधित किसी खास परहेज की बात नहीं करते दिखते, वहीं हौम्योपेथिक चिकित्सक का बुनियादी परहेज ही ये है कि मीठी गोलियों के 30 मिनिट पहले और बाद में क्या खाना है और क्या नहीं। आयुर्वेदिक चिकित्सक भी तेल, खटटा और तीखे खाद्य से दूर रहने की समझाइश देते हैं लेकिन ये तो हम ही अपने बारे में बता सकते हैं कि हमारी जुबान पर हमारा कितना वश चलता है। डॉक्टर खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं, अगर ये विश्वास मरीज ही डॉक्टर को दिला सके तो दोनों के लिये भला ही होगा।
हमने देखा कि किस तरह रोग कोई हो... चाहे दैविक या दैहिक, हर कदम पर सावधान रहने की जरूरत है। रोगी यानि हम स्वयं, दवाई, और डॉक्टर इन सबसे पहले यदि ‘‘सावधानी’’ रहे तो रोग पैदा होने से पहले ही खत्म हो सकता है, पैदा हो गया है तो शीघ्र खत्म हो सकता है और लाइलाज है तो हम अपनी पूरी उम्र तक पूर्ण सक्षमता से जिन्दगी के मजे ले सकते हैं।