मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है


पाना-खोना झूठा, छोड़ के जानी दुनियां
फिर भी कितने ख्वाब संजोना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

धो धोकर पीता है चरणरज मक्कारों की
जहर भी, और बहुत कुछ पीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

चौराहों पर मौतों से कोई फर्क नहीं है
आदमी, कितने आतंकों में जीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

गया जमाना - अब मोर नहीं जंगल में नाचते
बोली लगाना हर एक नगीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

बीती यादों में जिन्दगी नर्क हुई जाती है
तेरे नाम का जप-सा दिल ये कमीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

7 टिप्‍पणियां:

हास्यफुहार ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।

मनोज कुमार ने कहा…

चौराहों पर मौतों से कोई फर्क नहीं है
आदमी, कितने आतंकों में जीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है
कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।

महावीर ने कहा…

धो धोकर पीता है चरणरज मक्कारों की
जहर भी, और बहुत कुछ पीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है
एक सार्थक रचना है. सुन्दर!
महावीर शर्मा

vandana gupta ने कहा…

sahi kaha ab insaan har haal mein jeena sikh gaya hai.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

चौराहों पर मौतों से कोई फर्क नहीं है
आदमी, कितने आतंकों में जीना सीख गया है..

कमाल की बात कही है ..... आदमी सब कुछ सीख गया ..... बस आदमी भी बनना सीख जाए तो बात ही क्या है .....

रंजना ने कहा…

वर्तमान में असंवेदनशीलता के दिनानुदिन प्रसार को बड़े ही सार्थक शब्दों में आपने चित्रित किया है...सोचने को विवश करती बहुत ही सुन्दर रचना..आभार.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

सुंदर रचना.

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