एक छोटा सा तथ्य आदमी के चरित्र का सारा बखिया उधेड़ देता है। आज तक के मानवीय इतिहास में हमने देखा है कि कोई भी देश अपने सर्वश्रेष्ठ महानगरों में आधुनिकता और कृत्रिम सभ्यता ही नहीं, उस काल्पनिक नर्क को भी यथार्थ में पालता है जो कि कई धर्मों में सविस्तार वर्णित हैं।
“भारत के आई.टी.सिरमौर शहर बैंगलोर में यदि आप अगली बार किसी मधुशाला में जायें तो संभव है कोई साकी सलीकेदार सलवार कुर्ते जैसा परिधान पहने जाम पेश करे।” खबर छोटी सी है पर विचार की कसौटी पर रखने पर मानव के व्यक्तित्व संबंधी कई सवाल पैदा करती है।
व्यावहारिक और व्यवस्थासम्पन्न बात तो ये है कि आपको शराबखाने में हट्टे-कट्टे-मुस्टंडों द्वारा शराब परोसी जाये, ताकि आपका चरित्र जब पीकर अपना जौहर दिखाने को हो तो उसे सक्षम प्रत्युत्तर देने का सामान तैयार रहे। लेकिन आप ऐसे मदिरालय के ग्राहक नहीं बनेंगे।
तो थोड़ा और आगे बढ़कर मधुशालामालिक आपको एक महिला के हाथों शराब पेश करना शुरू करता है। आदमी उस बार में जाना शुरू करते हैं, क्योंकि उसे ‘शराब और शबाब’ के संयोजन का साकार रूप उपलब्ध होता है।
होशपूर्वक देह की उत्तेजनाओं में गर्क होने में सभी स्त्री-पुरूष सक्षम नहीं होते। शराबी पैसे का मुंह नहीं देखता। शराबखाना संचालक भी आदमी के बेहोश होकर दैहिक उत्तेजनाओं के आनन्द लेने को थोड़ा और सम्बल प्रदान करता है। वो आदमी के लिए सभी उम्र, देहाकार वाली स्त्रियां ‘‘साकी’’ के पद पर नियुक्त करता है।
अब आदमी को अपने चर्मचक्षुओं और कल्पनाओं के धुआंे के छल्लों को कुछ और रंगीन करने का साक्षात जीवन्त सामान मिल जाता है। पीने के बाद बातें और आगे बढ़ती हैं। पर कौन कम्बख्त इन बातों को रोकना चाहता है- न शराबी, न मधुशालास्वामी, न झीने वस्त्रों में आवृत्त साकी।
ये संसार है और कुछ लोग ये मान के चलते हैं कि कुछ नर्क गढ़ना संसारी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन होश आने पर जब पिछली रात के नारकीय दृश्य रह रह कर नजर आते हैं तो वो उसे सलीकों का जामा पहनाना शुरू करता है। ”साकी के लिए सलवार कुर्ते और अन्य सलीकेदार सु-श्लील परिधान“ - क्या इसी तरह का पाखण्ड नहीं? हो सकता है आने वाले वर्षों में वेश्याओं के लिए कुछ तरह के टीकाकरण अभियान अनिवार्य कर दिये जायें ताकि पुरूषों को एड्स या अन्य संक्रामक बीमारियों से बचाया जा सके।
लेकिन अपनी हवस के निवारणार्थ ईसामसीह, बुद्ध, नानक, कबीर द्वारा बताये उपायों को लागू करने के लिए एक आम आदमी को व्यक्तिगत रूप से ही आगे आना होगा। ये काम सामाजिक संस्थाओं या सरकारों पर टालना उन्हें अमल में ना लाने के बहाने के सिवा कुछ भी नहीं।
“भारत के आई.टी.सिरमौर शहर बैंगलोर में यदि आप अगली बार किसी मधुशाला में जायें तो संभव है कोई साकी सलीकेदार सलवार कुर्ते जैसा परिधान पहने जाम पेश करे।” खबर छोटी सी है पर विचार की कसौटी पर रखने पर मानव के व्यक्तित्व संबंधी कई सवाल पैदा करती है।
व्यावहारिक और व्यवस्थासम्पन्न बात तो ये है कि आपको शराबखाने में हट्टे-कट्टे-मुस्टंडों द्वारा शराब परोसी जाये, ताकि आपका चरित्र जब पीकर अपना जौहर दिखाने को हो तो उसे सक्षम प्रत्युत्तर देने का सामान तैयार रहे। लेकिन आप ऐसे मदिरालय के ग्राहक नहीं बनेंगे।
तो थोड़ा और आगे बढ़कर मधुशालामालिक आपको एक महिला के हाथों शराब पेश करना शुरू करता है। आदमी उस बार में जाना शुरू करते हैं, क्योंकि उसे ‘शराब और शबाब’ के संयोजन का साकार रूप उपलब्ध होता है।
होशपूर्वक देह की उत्तेजनाओं में गर्क होने में सभी स्त्री-पुरूष सक्षम नहीं होते। शराबी पैसे का मुंह नहीं देखता। शराबखाना संचालक भी आदमी के बेहोश होकर दैहिक उत्तेजनाओं के आनन्द लेने को थोड़ा और सम्बल प्रदान करता है। वो आदमी के लिए सभी उम्र, देहाकार वाली स्त्रियां ‘‘साकी’’ के पद पर नियुक्त करता है।
अब आदमी को अपने चर्मचक्षुओं और कल्पनाओं के धुआंे के छल्लों को कुछ और रंगीन करने का साक्षात जीवन्त सामान मिल जाता है। पीने के बाद बातें और आगे बढ़ती हैं। पर कौन कम्बख्त इन बातों को रोकना चाहता है- न शराबी, न मधुशालास्वामी, न झीने वस्त्रों में आवृत्त साकी।
ये संसार है और कुछ लोग ये मान के चलते हैं कि कुछ नर्क गढ़ना संसारी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन होश आने पर जब पिछली रात के नारकीय दृश्य रह रह कर नजर आते हैं तो वो उसे सलीकों का जामा पहनाना शुरू करता है। ”साकी के लिए सलवार कुर्ते और अन्य सलीकेदार सु-श्लील परिधान“ - क्या इसी तरह का पाखण्ड नहीं? हो सकता है आने वाले वर्षों में वेश्याओं के लिए कुछ तरह के टीकाकरण अभियान अनिवार्य कर दिये जायें ताकि पुरूषों को एड्स या अन्य संक्रामक बीमारियों से बचाया जा सके।
लेकिन अपनी हवस के निवारणार्थ ईसामसीह, बुद्ध, नानक, कबीर द्वारा बताये उपायों को लागू करने के लिए एक आम आदमी को व्यक्तिगत रूप से ही आगे आना होगा। ये काम सामाजिक संस्थाओं या सरकारों पर टालना उन्हें अमल में ना लाने के बहाने के सिवा कुछ भी नहीं।
2 टिप्पणियां:
ये बात सच है की खुद को उपर उठाना होगा .... पर अगर पूरे समाज से बुराई को डोर करने की बात करें तो सामाजिक संस्थाएँ और सरकार की मदद ज़रूरी है .... कम से कम रोकने के लिए ही सही ...
bahut khoob likha hai, ....
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