Thursday 12 November 2020

रट्टू तोता

 


तकरीबन महीना भर पहले की बात है। ये तोता.. जिसकी तस्वीर यहां दी गई है, हमारे परिसर में आया। इसने दो चार गिनती के शब्द रटे हुए थे, यानि स्वाभाविक ही हम सब को महसूस हुआ कि शायद किसी के घर का पला—बढ़ा, मनुष्यों के बीच रहने वाला अभ्यस्त तोता है। जिस किसी की भी बालकनी में जाता वही, फल—फ्रूट—सब्जी, भोज्य इस तोते को प्यार से परोसता। किसी ने जबरिया पकड़ने और पिंजरे का इंतजाम कर अपने यहां ही रख लेने की कोशिश नहीं की। 

दिन गुजरे और आज धनतेरस का दिन आ गया। दीपावली के अवसर पर बिल्डर के आदमियों ने परिसर के सभी ब्लॉक्स में कल ही बिजली के बल्बों की लड़ियां लटकाईं थीं। आज सुबह सभी को इस तोते की यह बात पता चली कि सभी बा​ल​कनियों में जहां भी यह तोता जा रहा है, ब​ल्बों की लड़ियों की तारें कुतर रहा है। महीने भर, सबके मनोरंजन का केन्द्र रहा यह तोता.. आज सबके गुस्से और परेशानी का सबब बन गया है। 
इस तोते की मजबूरी या विव​शता उसकी पिंजरे, मनुष्यों के बीच रहने की आदत है। मैं सोच रहा था यह वापिस — पास ही के जंगल में क्यों नहीं उड़ जाता, अपनी ही प्रजाति जाति के तोतों के झुंड में रहने क्यों नहीं चला जाता?, अपनी कुदरती आजादी में क्यों नहीं रहता? 
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मुझे जाने क्यों तोते से संबंधित एक कहानी याद आ गई। 
एक गांव के बाहर एक अमीर आदमी रहता था। धर्म अध्ययन—अध्यापन, योग अध्यात्म से उसे बड़ा प्रेम था। गांव के बाहर अपना निवास बना रखा था ताकि लोग उसके इस काम में बाधा ना बनें। एक सुबह घर के सामने, एक ऊंचे पेड़ से के कोटर से गिरा हुआ एक तोते का बच्चा उसे मिला। उसने उसे पाल लिया। एक बड़े सुंदर से पिंजरे में उसे रखा और जो भी अध्ययन मंत्र गीत उसे प्रिय थे उन्हें सिखाने लगा। कुछ ही दिनों में तोता उसकी सिखाये कई शब्द बोलने लगा। एक दिन उस व्यक्ति को किताबें खरीदने शहर जाना था तब उसे लगा कि अब कौन इसकी देख रेख करेगा? खैर.. इस बात का इंतजाम कर वो शहर गया। शहर में, अपने कामकाज की जगह जाते हुए उसने देखा कि एक पंछी बेचने वाला कई छोटे छोटे पिंजरों में 5—10 तोतों को बेच रहा था। उसे अपना तोता याद आया।
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जब वो घर लौटा तो उसने सोचा कि हो सकता है यह तोता कभी इस पिंजरे से उड़ जाये। किसी जंगल चला जाये। पर फिर किसी शिकारी के हाथ गया तो? तो क्यों न तोते को मैं कोई/कुछ ऐसी बात सिखा दूं... ​रटा दूं कि इसे किसी जालिम शिकारी के पिंजरे में न कैद होना पड़े। यहां वहां न बिकना पड़े। इसे बचने का मौका मिल जाये, ये उड़ जाये, और लौट कर फिर कभी न आये... और सदा मुक्त रहे। 
तो उसने तोते को सिखाया— रटाया:
मिट्ठू... मिट्ठू से मिलने जायेगा
लौट को फिर यहीं आयेगा
भरोसा तो करो....

 

तोता बूढ़ा नहीं था, जल्द ही उसने यह तीन वाक्य भी रट लिये। जब यह तीन वाक्य, तोते ने भली भांति रट लिये तो व्यक्ति ने सोचा — कि मैंने जो इसे सिखाया है इसमें गलत क्या है... वैसे भी पंछी को तो मुक्त ही रहना चाहिए। यदि इसे पिंजरे में रहना होगा तो खुद ही आयेगा। उसने तोते को पिंजरे से बाहर निकाला, खुला छोड़ दिया.. मगर तोता वापिस पिंजरे में जा बैठता। तो आदमी ने कहा — चलो मुक्त रहो, और मेरे पास भी रहो। अब वह तोते से निश्चिंत था। तोता भोजन पानी के लिए नीचे आता और बाकी समय घर के सामने या अन्य पेड़ों पर उड़ान भरता, मनमौजी रटी बातें बोलता और मस्त रहता। 
फिर एक बार यूं हुआ कि तोता उसके घर कई दिनों तक नहीं आया। उस व्यक्ति ने सोचा कि चलो, पंछी है, मौज में कहीं चला गया होगा। उसने इंतजार किया पर तोता गया तो लौटा ही नहीं।
कुछ महीने बाद व्यक्ति को, फिर किताबें खरीदने शहर जाना पड़ा। लौटते हुए उसे वही तोते पंछी आदि बेचने वाला मिला, बड़ी उम्मीद से वह उसके पास पहुंचा और बोला कि क्या किसी जंगल में राम राम, गायत्री मंत्र और मिट्ठू इत्यादि बोलने वाला तोता तो नहीं दिखा। पंछी बेचने वाला बोला — भाई साहब हम तो शहर में रहते हैं... जंगली शिकारियों से पंछी खरीदते हैं शहर में बेच देते हैंं। हम खुद थोड़े ही जंगल जाकर...वगैरह वगैरह।

कई महीने बीत गये और साल भी। उस व्यक्ति का घर पुराना हो गया। छत चूने लगी। उसने मजदूर बुलाये और उन्हें घर के रिनोवेशन के काम पर लगाया। इस काम धाम से अलग एक कमरे में वो शांत हो किताबों में मग्न था। एक दोपहर उस व्यक्ति का ध्यान... दो मजदूरों की बातों पर गया—
पहला मजदूर बोला — मैं कल ही शहर गया था, हमारा मिट्ठू तो बहुत महंगा बिका, एक शहरी व्यक्ति ने उसके दो हजार रूपये दिये। 
दूजा बोला — चलो किसी काम तो आया, वरना गांव में तो उसने लोगों को परेशान कर रखा था। कहीं भी बैठ जाये मंत्र गाये, राम राम बोले और वो क्या बोलता था... 
मिट्ठू... मिट्ठू से मिलने जायेगा
लौट को फिर यहीं आयेगा
भरोसा तो करो....

.... अरे मिट्ठू टें टें कर तोतों को बुलायेगा, फसलें सब्जियां खराब करेगा, यहां वहां चीजें कुतरेगा ये तो बोलता ही नहीं था।
पहला मजदूर बोला — अरे शहरियों को क्या मतलब, उसकी आजादी से... वो तो पिंजरे में रखेंगे, उनके वास्तुदोष शांत हो जायेंगे और उनके बच्चों का मनोरंजन भी। वैसे भी, उसे तो पिंजरे में ही रहने की आदत है... पता नहीं किसने सिखा दिया था कि —
मिट्ठू... मिट्ठू से मिलने जायेगा
लौट को फिर यहीं आयेगा
भरोसा तो करो....
भरोसा क्या करना, वो तो पिंजरे में ही रहने का आदी हो गया था, समय पर खाना—पीना, बच्चों—औरतों के बीच , मनुष्यों घरों में ही रहना—बैठना, रटी रटाई बातें बोलना। 

...

किताबों में मग्न व्यक्ति को अचानक जैसे ब्रह्मज्ञान हुआ। बरसों से वह भी किताबों में मग्न है। धर्मग्रन्थों का अध्ययन अध्यापन, दूजों को बताना कि क्या करना और कैसे करना है... लेकिन वो स्वयं तो उस तोते की तरह है, जिसने उसे स्वयं ही सिखाया था कि —
मिट्ठू... मिट्ठू से मिलने जायेगा
लौट को फिर यहीं आयेगा
भरोसा तो करो....
उसने स्वयं कभी ​किताबों, भाषणबाजी और रटी—रटाई बातों से इतर मुक्ति का स्वाद नहीं चखा। ना उन बातों का उसके जीवन में, जिसे वह जी रहा है... उससे कोई सरोकार रहा।

1 comment:

Onkar said...

सुन्दर रचना

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